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वपनदूतम्
भावार्थ हे नाथ उसका मनोहर नयनयुगल मापकी फिकर के कारण निमेष विहीन हो गया है, म के बड़े-२ बालों से वह ढक गया है, अंजन और न के विलास उससे कभी की विदा ले चुका है। फिर भी आपके यहां पहुंचने पर वह उसका नयन युगल प्रापको देखते ही चञ्चलकमल के अंसा खिल उठेगा। ऐसी मेरी मान्यता है ।
चारू स्वामिन् ! नयन उसके हो गये स्पन्दशून्य
कोरों पे ही चिकुर सगरे हैं पड़े ही दिखाते, काले प्यारे मसूण सुरमे की न रेखा वहां है
दोनों भू भी इस समय में हैं विलासों विहीना, जाने से बे लवकर तुम्हें स्वेष्ट के लाभ से ही
मीतक्षोभप्रचलितपद्मश्रीतुला को धरेंगे।।२३ ।।
नाथ ! प्रापकी तरफ टकटकी सिर्फ लगाये बैठी है समझाते हैं पर न समझती प्रत्युत रोती कहती है "द्वारे भाये दूल्हा बनकर पर वे क्यों नहि मुझे मिले, खिले मनोरथ हाय ! न मेरे बिना खिले ही सूक चले जिन्हें संजोकर मनमन्दिर में हरदम मैंने रनखा है हाय ! आज उनने ही मुझको दिया अचानक धक्का है" काले छूटे केश मेत्र की कोरों पर बिखरे रहते जलती भीतर विरह वन्हि के घूमतुल्य जो हैं दिखते काजलहीन दीन नयनश्री उसकी यही बताती है इष्टविरह की व्यथा सती का काजल तक ले जाती है रहते और देखते इनने उन्हें न कुछ भी समझाया इसीलिये 5 के विलास ने आंखो को है ठुकराया सखी-मोह से प्रतः नाथ ! अब ऐसी आशा ही घरके पायी हूं मैं पास अापके लेने पाप कृपा करके शीघ्र पधारो राजभवन में सखी-नेत्र खिल जायेंगे तुम्हें निरख कर, झप से चञ्चल कंज थी को धारेंगे ।। २३॥