Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 41
________________ वचनदूतम् हो जाती है मुदित जब वो आपके नाम से ही तो जाना ही उचित लगता नाथ ! ऐसी दशा में हो जावेगा यह सब कहा वृत्त प्रत्यक्ष सारा जाते ही व्हां फिर कुछ नहीं, ग्रापसे में कहूंगी ||२२|| बिना नाथ की हूं मैं कैसे अब सुहाग का भेष घरू, सुन्दर सेज बसन से कैसे इस शरीर को सुखित करू, इन चराले काले बालों को तेलों से चिकना कर क्यों अब इन्हें सजाऊं सजनी साजन बिन अपने शिर पर ऐसी ऐसी बातें कहकर फिर वह रोने लगती है उसके रुदन श्रवण से सबकी खाती हा ! हा ! फटती है चिन्ता ने उसके शरीर को नाथ ! सुनो जर्जरित किया तिलों से रूख केशों ने मेलजोल को त्याग दिया दीन हीन तनक्षीण मृगी सौ बीरपावादन में तब नाम, यह सुनती तो मुदितचित्त हो इधर उधर तकती अविराम | सरस विरस भोजन का भन्तर उसे ज्ञात नहीं होता है, जाने पर ही उक्तवृत्त यह नाथ ! ज्ञात हो सकता है ||२२|| 3 प्रस्याः कान्तं नयनयुगलं चिन्तया स्पन्दशून्यं, रुद्धायां चिकुरनिकरे रंजनन विलासः । हीनं मन्ये स्वदुपगमनात्तत्तदा स्वेष्टलाभात्, मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति ॥२३॥ ३१ अवय- अर्थ - हे नाथ ! यद्यपि (यस्याः ) सखी का (कालम् ) सुहावना (नयनयुगलम् ) नेत्रयुगल ( चिन्तया स्पन्दशून्यम् ) चिन्ता से चंचलता विहीन हो गया है, उसकी ( चिकुरनिकरैः) बालों से भ्रू के बालों से कोरे बैंक गई हैं और (अंजनविलास: हीनम् ) वह अंजन एवं भ्र विलासों से रहित भी हो चुका है, तब भी (त्वदुप गमनात्) आपके वहां जाने पर (तत्) वह नयनयुगल ( तदा) उस समय (स्वेषुमाभात् ) स्वष्टलाभ हो जाने के कारण (मीनक्षोभात्) मीनों की चंचलता से क्षुभित हुए (चलकुवलयश्रीतुलां एष्यतीति मन्ये ) चंचलकमल के जैसी शोभा को धारण करेगा ऐसा में मानती हूँ ।

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