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वचनदूतम्
प्राषिक्षामा मलिनवसना केशसंस्कारहीना,
दुःलोकाविरससरसाऽऽहारतुल्याऽखला सा। त्वनाम्नद प्रमुदितमना वृत्तमेतद्गते स्यात्,
प्रत्यक्ष से निखिलमचिराद् भ्रातरक्त मया यत् ।।२२।।
प्रश्वम-प्र—(सा अबला) वह बलविहीन सखी राजुल (प्राधिक्षामा) मानसिक चिन्ता के कारण शारीरिक शक्ति से भी विहीन हो गई है, (मलिन बसना) मोड़ने पहिरने के कपड़े उसः पहिश हो गये हैं। शराहनाहीमा फैसों की सरकार करना उसने छोड़ दिया है । (दुःखोद्रेकात) दुःख की अधिकता को लेकर उसे सरस और नीरस आहार में भेद बुद्धि नहीं रही है, थोड़ी बहुत प्रसन्नता का कारण (स्वन्नाम्ना एव प्रमुदित मनाः) पदि उसे है तो वह पापका नाम ही है, (एतत् निखिल वृत्त) यह ममस्त उसका वृत्तान्त (भ्रासः यत् मया उक्तम्) हे नेमि भाई ! जो मैंने कहा है सो वह (गते) वहां पहुंचने पर (अचिरास्) स्पष्टरूप से शीघ्र ही (ते प्रत्यक्षं स्यात्) मापके जानने में मा जायगा।
भावार्थ:-हे नेमि भाई ! वह मेरी सम्झी राजुल "पति से त्यक्त होने पर नारी को क्या परिस्थिति होती है" इसकी साक्षात् भूर्ति बनी हुई है, मानसिक चिन्ता ने उसकी शरीरसंपत्ति को असमय में ही तहस नहस कर दिया है। उसके संस्कार विहीन केश और मलिन बस्त्र दूख के यादिश्य को उसमें प्रकट करसे हैं। जो सरस नीरस प्राहार उसे मिल जाता है उसे वह बिना कुछ कहे खा लेती है । हां ? अभी तक जो उसका इस हालत में भी जीवन टिका हुआ है उसका एकमात्र कारण प्रापका नाम ही है, जब वह आपका नाम सुनती है तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता नाचने लगती है । अतः यह सब उस की हालत जो वही जा रही है है सत्य है भतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है । यह सब यहां आपके पधारने पर प्रापको स्पष्टरूप से प्रसीति में आ जायेगा।
थी ना ऐसी बिल्कुल हमें स्वप्न में कल्पना भी,
"हो जायेगी विरहक्षण में यो सखी नाथ ! मेरी । चिन्ताम्लाना, विरससरसाहारतुल्या, अशक्ता,
पाधिक्षामा, मलिनवसना केशसंस्कारहीना"