Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ २ वचनदूतम् जैसे तैसे शमन करने चित्त के क्षोभ को वो, वीणा लेके जब जब प्रभो ! बैठती है बजाने । त्यों पा जाती त्वरित गति से आपकी याद उस्को, सो नेत्रो सं अविरल बड़ी प्रश्न की बिन्दुओं स हो जाती है सुभग ! उसको हाय ! वीणा सलोनी गीली, सो वो सजनि अपनी छोर से शाटिका के ज्यों ही उस्को झटझट सखी पोंछती है विचारी सो जाती है बिसर अपनी की गई मूर्छना को, हो जाती सो अतिशप दुखी सौम्यमुद्रावती वो, राहुद्वारा ग्रसितविधु की चाँदनी सी दिखाती हो जाती है पति विरह में और की और नारी ।।२०।। चित-अशान्ति के शमन हेतु बह वीणावादन करने को, होती ज्या सनद्ध भापकी याद सताती है उसको मोती जैसी प्रभुधार निर्गत हो वीणा पर गिरती बजती नहीं बजाने पर तब उसे साफ करने लगती सो यह नाथ ! मूर्छना को ही भूल बिसर इकदम जाती चिन्तित, व्यथित, अममनी बनकर कर पर कर धर परताती अतः सौम्य मुद्रायुत भी वह बिरहताप से तपती है दीन, क्षीणतन, मलिनवदनयुत्त सो प्रसौम्य ही दिखती है ॥२०॥ प्रालिस्य त्वां गिरिवरगतं त्वत्पर्य स्प्रष्टकामा. ___ तावन्मूर्थापरिघृततमुविधुत्तिष्ठतीयम् । सल्या होना पतति भुवि सा छिन्नबालीय, वक्ति करस्मिन् प न सहते संगम नौ कृतान्तः ॥२१॥ अन्वय-अर्थ .. हे नाथ ! (गिरिवरगतं त्वां आलिख्य) पहाड़ पर बैठे हुए रूप में आपको चित्रित करके (इयम्) यह मेरी सखी (त्वत्पदं स्प्रष्टुकामा प्रावत् उसिष्ठति) प्रापके चरणों को छूने की इच्छा से ही उठती है (तावत् मूपिरिमृततनुः) त्योंही इसका शरीर मूर्छा से आक्रान्त हो जाता है । सो (संख्या हीना छिन्नयल्लीन भुवि सा

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115