Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ २६ वचनदूतम् होवे अच्छा, पर वह नहीं लोक में मान्य हो, तो प्राज्ञों द्वारा नहिं वह कभी सेव्य माना गया है || १८ || अव्याही राजुल को तजकर जो आये हो आप यहां लोकनिद्य यह किया आपने कार्य आर्यजन हेय कहा, नहीं छपी कार्य कभी यह सभा देने वाला है, उचित, लोक-विरुद्ध कार्य नहि कभी किसी को ताला है, हैं यह नीति कार्य अच्छा हो पर वह हो यदि लोकविरुद्ध, तो वह नहि कर्तव्य कोटि में आता माता सकल प्रबुद्ध, तो क्यों नाथ ! श्राप इस उत्तम नीति-रीति को भूल गये, और भलतं सबको विसार कर इस पहाड़ पर बैठ गये । चित्तक्षोभं शम्रयितुमियं राजपुत्री स्वकीयम्, संस्थाध्यां तब प्रतिकृति पृच्छति त्वां स्यहार्दम् । ब्रू हिहि त्यजसि किमिमां नाथ ! मां निनिदानम्, प्रायेण रमण विरहेण्वंगमानां विनोदाः ॥१६॥ श्रन्वय अर्थ - हे नाथ ! (स्वकीयं चित्तक्षोमं शमम्) अपने वित्त के क्षोभ को शान्त करने के लिये ( इयं राजपुत्री) यह राजपुत्री - राजुल (तव प्रतिकृतिम् ) आप की फोटो को (संस्थाप्य) अपनी झोली में अच्छी तरह से रखकर (स्त्रां स्वहाई पृच्छति) आप से आपका अभिप्राय पूछती है कहती है- (ब्रू हि हि.) जल्दी से जल्दी बताओ (नाथ ! इमां मां निनिदानं किं त्यजसि ) नाथ ! इस मुझ-बुः खिनी को बिना कारण आप क्यों छोड़ रहे हो । सो (एते विनोदा: प्रायेण रमण विरहेषु अंगनानां " भवन्ति") ऐसे चित्त को शान्ति प्रदान करने वाले विनोद प्रायः अपने पतियों के त्रिकाल में नारीजनों के होते हैं । भावार्थ- नाथ ! जब राजुल के चित्त में जाती है तो वह उसके शमनार्थ आपकी प्रतिकृति आपके मनोभाव को पूछती है, कहती है हे नाथ कारण क्यों छोड़ रहे हैं। इस प्रकार के विनोदों से ! यह तो बताओ आप मुझे बिना वह अपनी प्रशांति को दूर करती रहती है । अशान्ति की मात्रा अधिक बढ़ को अपनी गोद में रखकर आपसे

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115