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वचनदूतम् अपनी बिखरी चोटी को वह कसकर बांध न सकती है, उलझी हुई लटों को भी वह हाय ! न सुरझा सकती है, होते बाप आप बिटिया के पता त्याग का पड़ जाता ऐसी स्थिति में न मन सा पिघल पिघल कर गल जाता मुस्न ऊपर वे पड़ी लटे गालों पर ऐसी दिखती है मानो विधुमंडल को उसने राहुरश्मियां मधली हैं गर दिवस यामान के सातों रे ही लंग हुई निद्रा, संद्रा इसीलिये हे स्वामिन् ! उसफी भंग हुई, दर्शन-प्रगद दान से निश्चित वह स्वस्थित हो जावेगी रोने से गत हुई नींद भी आकर उसे खिलावेगी ।।१६-१७।।
मध्ये त्यक्त्वा परिणयविस्तां समागास्त्वमत्र.
नेतच्छ लाध्यं चरितमभवत्ते यतो लोकर्मियम् । शुद्ध स्याच्वेद्भवति जगतस्तद्विरुख न सेव्यम्,
प्राजरायः कथमिति भवान् नीतिमेतां न वेसि ॥१८॥ अषय-अर्थ:-हे नाथ ! (त्वं परिणयविधे: मध्ये तां त्यक्त्वा) प्राप विवाह के बीच में उसे छोड़कर (प्रय समागा.) यहां पर पा गये सो (एतन ते चरित माध्य न अभवत) यह आपका कार्य प्रशंसा योग्य नहीं हुमा है। क्योंकि (लोकनिंद्यम् । रोमा कार्य लोक में निदा योग्य होता है । (शुद्ध स्यात्) जो कार्य अच्छा भी हो, पर (चेन् तत् जगतः विरुद्धम्) यदि वह जगत के विरुद्ध होता है तो वह (प्राज: प्रायः न सेच्यम्) बुद्धिशाली सायं पुरुषों के द्वारा सेवनीय नहीं होता है (इति) ऐसी जो (नौतिम्) यह नौति है उसे (कश्चम्) क्या (भवान् न वेत्ति) आप नहीं जानते हैं ?
भावार्थ- 'यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नो करणीयं नाचरणीयम्" जो काम शुद्ध भी हो पर मदि वह लोक के विरुद्ध है तो उसे नहीं करना चाहिये । ऐसी हम लौकिक नीति को हे नाथ !. आपने कैसे मुला दिया, प्रतः श्रापका यह राजुन का भर विवाह में छोड़ना लोकविरुद्ध होने के कारण प्रशंसनीय नहीं हुअा है 1 पाये स्वामिन् ! तजकर यहां बीच में जो विवाह,
सो ये अच्छा प्रभु ! नहीं हुआ कार्य है भाप द्वारा । .