Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 39
________________ बचनद्रुतम् २६ पति) सखी से हीन वह कटी हुई लया की तरह जमीन पर गिर पड़ती है । कहनी है— मेरा प्रशुभ्र कर्म कितना निर्देय है जो इस दशा में भी हम दोनों के मिलाप को सहन नहीं कर सकता है भावार्थ – हे स्थामिन् ! मेरी सखी आपको पहाड़ पर बैठे हुए रूप में चित्रित करके ज्यों ही आपके चरणों को छूने के लिये खड़ी होती है कि उसी समय उसे मूर्धा श्रा जाती है और वह कटी हुई लला की तरह पृथ्वी पर गिर पड़ती है। कहती है देखो ! मेरा अशुभ कर्म कितना प्रबल है जो इस दशा में भी मुझे मेरे नाथ के चरणों को नहीं छूने दे रहा है 1 पट्ट पे वो गिरिगत प्रभो ! आपकी मूर्ति प्यारी रंगों द्वारा रचित करके श्री उसे लोचनों के आगे अच्छी तरह रखके आपके सिने I ही होती सी सी उसे स्थों, आजाती, सो पतित क्षिति में छिन्नमूला लता सीहो जाती वो, उस समय में नाथ ! ये ही कहे है देखो मेरा अक्ष्य कितना हाय ! दुर्देव है ये ने देता नहिं चरण जो नाथ के हाथ से भो ऐसी कैसी विधि - सबलता मारती जो मरो को ||२१|| गिरि पर बैठे नाथ ! ग्रापको पहिले मन में चित्रित कर फिर अति वह तुमको करती पट्टे पर रंग भर भर कर रख कर लोचन के समक्ष वह चरणस्पर्शन करने को होती खड़ी कि श्रा जाती है मूर्च्छा वर्जन करने को गिर पड़ती है हाय ! बिचारी विशलता सी भूपर बह श्री सत होकर यों कहती, कैसा विविविलास है यह जो प्रिय के पावन पग तक को मुझे न छूने देता है इतना क्या अपराध किया जो मुझ से यह मों कुढता है, ऐसी हालत में भी निर्दय यह मेरी विकराल विधि हम दोनों के क्षणिक मिलन को भी सहता जो न कुधी ॥ २१ ॥

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