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वचनदूतम् स्वामिन् ! मेरी वह प्रियसखी आप में लीनचित्ता
होने से है तब विरह में क्षुब्ध, सो क्षोभ को वो जैसे तसे शमन करने हेतु फोटो तुम्हारी,
अोली में ही रखकर प्रभो ! पूछती यों तुम्ही से छोड़ी स्वामिन् ! बिन कुछ कहे अापने क्यों मुझे है,
होते प्रायः पति विरह में नारियों के विनोदऐसे ही-सो मरणक्षण से वे उन्हें हैं बचाते ॥१६॥
नाथ ! माप ही में प्रसक्त है चित सखी राजीमति का, सो वह विरह प्रापके में है चना सग दुखसन्तति का, उसके प्रशमनहेतु आपकी वह प्राकृति को रखती हैअपनी गोदी में,-फिर उससे प्रश्न नाथ ! यों करती है, कारण बिना पिया ! क्यों मेरा तुमने यो परिहार किया, क्या मेरा अपराध हुअा-अब उसे बतानो खोल हिया, रभराशियों के रमणविरह में प्रायः ऐसे होते हैं । मनोभाव--जो मरणचाव से हरक्षण उन्हें बचाते हैं ।।१६।
चिसक्लान्ति शमयितुमसो वादयन्ती दिपञ्चों,
संस्मृत्या से मुहुरुपगतरभु भिः क्लिग्नगात्राम् । संमान्तो भवति नितरां सौम्यमुद्राप्यसौम्या,
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्च्छनां विस्मरन्ती ॥२०॥
अन्वय-अर्थ-ई नाथ ! (चित्तक्लान्ति शमयितुम्) पित्त की वेचनी को दूर करने के लिये (प्रसौ} यह मेरी सती (विपश्ची वादयन्ती) जब वीणा को बजानी है, तब (ते संस्मृत्या) उसे प्रागकी याद आ जाती है, इससे (मुहुः उपगतः प्रश्रुभि) बार बार जमे यांना जाते हैं, सो उनसे (क्लिनगात्राम्) उसकी चीणा गीली हो जाती है, अतः उसे (संमार्जन्ती) वह साफ करती है सो इस स्थिति में वह (भूयः भूयः स्वयं अपि कृतां मूकई नां विस्मरन्ती) बार बार स्वयं की गई मूर्छना को भूल जाती है. इस कारण (सौम्य मुद्रा अपि नितरां प्रमौम्या भवति) वह सुन्दरमुढापाली होती हुई भी प्रमुहायनी दिखने लगती है।