Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 34
________________ २४ बचनदुतम् जाने में तो अब मत करो डोल घोड़ी, या भी -.. लामो ऐसे दुखित जन पै क्यों दयाहीन होते, होगी स्वामिन् ! दरश करके ही विचारी अशोका। सो निद्रा जो विगत हुइ है वो उसे प्राप्त होगी ।।१६-१७।। नाय ! मापके पाने के हित वह कटोरतर नियमों को, पालन करने में रत रहती छोड और सब कामों को, भूल न जाऊं कहीं इन्हें मैं दैनन्दिनी में लिखती है, अगर देखना चाहे कोई उसे न लखने देती है। कहती है वह नाय द्वार पर प्राये फिर भी नहीं मिले । वर का बाना छोड़, मोड़ मुख द्वारे से ही लोट गये, ऐसा मेरा किस भव का यह पाप उदय में पाया है, जिसने मेरे प्रारएनाथ को मुझ से हाय ! झुडाया है. जैसी थी वैसी ही रहती क्यों मैं ऐसी बनी बनी यह कैसी विधि की विडंबना संधवा रही न विधवा ही, न जाने मुझ पापिन ने किस भव में परपति विलग किया, जो इस भव में पति विछोह का विधि ने मुझको दुःख दिमा, मैं हूं कितनी दुर्भागिन जो हा ! स्वामी से श्यक्त हुई ऐसी अपनी निंदा करती प्रतिक्षण गदगद कंठ हुई, नाथ ! देखते ही कृश एवं क्षीरणशक्ति उस दुखिनी को, पत्थर मा कठोर दिल होगा मोम छोड़ निभ करनी को स्वयं विचारावलि तब होगी उदित मुदित यह कैसे हो. हो यह कैसे स्वस्थ दुःख से भी विहीन यह कैसे हो छोड़ी जब से नाथ आपने निद्रा ने भी उसे तजा ना जाने किस पुरव भत्र के पापों की पा रही सजा, सजे सजाये सभी ठाट नौ बाट हुए, कौतुक सारेइधर उधर फिर रहे विचारे मानों के मारे मारे नई बनापी डोली भी तो हाय ! धरी की धरी रही, मांग रह गई माली की सिन्दूर बिन्दु से बिना भरी

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