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वचनदूतम्
मो है भाई आत्मा वे हैं होते करूरता के बारी, अनुकम्पा से हीन न होता कभी सिद्धि का अधिकारी || १५||
त्वां सम्प्राप्तु ं विविध नियमान् पालयन्तीं सखी मे, चैतािंवरिएमा सम्पनन्दान् सिसन्तीम् । निन्दन्तीमशुभवचनश्चासकृत्सारयन्तीम्,
स्वां
गण्डायोगात्
द्रष्टे एवं गणितनियमः स्याः स्वयं तां कृशाङ्गीम्, स्यात्स्वस्थेयं कथमिति भवेत्ते विचारांवलिश्च । गत्मा क्षिप्रं व्यसनपतितां पश्य तामस्त निद्रा, माnirvat नयम ससिलोत्पीऽरुद्धावकाशम् ॥१७॥
कठिनविषमः कवेरणीं करेण ॥१६॥
अन्वय अर्थ हे नाथ ! ( त्वां सम्प्राप्तु ) आपको प्राप्त करने के लिये (नव्यनस्यान् विचिचनियमान् ) नये-नये अनेक प्रकार के नियमों को कि जिन्हें वह (परिगणनया दैनन्दिन्यां लिखन्ती) गिन गिन कर अपनी डायरी में लिखती रहती है, एवं (अशुभबचनैः स्वां निन्दन्तीम् ) प्रभवचनों से जो स्वयं की निन्दा करती रहती है और जो (असकृत् ) बार-बार (गण्डाभोगात् कठिनविषमां एकवेशीम् ) गालों के ऊपर से कठिन रुक्ष, एवं विषम अस्तव्यस्तबालों वाली वेपी को (करे) अपने हाथ से यथा स्थान करती रहती है ऐसी ( मे सखों पश्य) मेरी सखी को आप दर्शन दें-देखें (तां कुशाङ्गी दृष्टं व) उस कुश शरीर वाली मेरी सखी को देखकर हो ( एवं स्वयं गलित नियमः स्याः) श्राप अपने आचार-विचार से शिथिल हो जोंगे और (यं स्वस्था कथं भवेत् ) यह स्वस्थ कैसे हो यह (ते विचारावलिः च भवेत् ) आपके मन में विचार श्रा जायेगा । इसलिये ग्राप (क्षिप्रं गत्वा) शोध जा करके (व्यसनपलितां नयनसलिलो पीढरूद्धावकाशम् अस्तनिद्राम् ) कष्टपतित और रातदिन के रोने से गई हुई निद्रा की (कांक्षन्तीम् ) चाहना वाली (ताम् पश्य ) उस मेरी सभी को देखें ।
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भावार्थ हे स्वामिन्! मेरी सखी आपको प्राप्त करने के निमिल अनेक नियमों के पालन करने में निरत है, इससे उसका शरीर बिलकुल कृश हो गया है ।