Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 31
________________ वचनदूतम् भावार्प--इस समय पाप साधुवृत्ति वाले हैं, अतः भापका अन्तःकरण दुःखित जीवों के ऊपर दयाशील होना ही चाहिये, इसलिये पाप धैर्य से सर्वथा विहीन हुई मेरी सती को ढांढस बंधाने की कृपा करें। देहों में है अधिक सबसे अापकी देह श्रेष्ठ, है संस्थान त्रिभुवनपते ! आपका सोम जैसा । शक्ति स्वामिन् ! प्रचुर तन में आपके है अनौखी, योलामो से अविजित प्रभो ! शौर्य भी है अपूर्व । ऐसे-ऐसे अनुपम गुणों से विशिष्ट प्रभो! हो, तो क्यों होते रजमति सखी पै कृपाहीन नाथ ! जो छोड़ा है इकदम उसे तो दया छोड़ते क्यों ?. ऐसा बाना सदय होता है जरा ध्यान तो दो । आके देखो विकल वह है, धैर्य भी खो चुकी है, सो हे स्वामिन् ! चलकर उसे प्राप ढांढस बंधावो । कष्टों से जो व्यथित उनको संत देते सहारा, "क्योंकि"-- पारमा तो अधिकतर होते दयावृत्तिवाले ॥१५॥ नाथ ! आपका यह गरीर सब हो शरीर से उत्तम है, शांतिप्रद, प्राकृति में अनुपम तथा कान्ति में विघु सम है । है भंडार शक्ति का भी यह कमी नहीं किञ्चित् इसमें, शूरवीर भी जिससे मैं शौर्य भरा है नस-नस में । ऐसे-ऐसे निखिल गुणों से जब यह तन परिमंडित है, तो फिर मेरी प्राली को क्यों किया दया से वंचित है । अस्तु हुन्ना जो हुआ न अब भी सुनो नाय ! कुछ बिगड़ा है, गल्ती से सचेत होने पर रहता कहीं न झगड़ा है । पालो तको अब उसे विकल वह बड़ी न कल क्षणभर उसको, • निष्कारण को तजा आपने धीरज छोड़ गया उसको। सो जैसे भी हो वैसे ही धीरज उसे अंधावो अब, मत विसरायो, भले न उसको पुन: नाथ ! अपनामा प्रब।

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