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वचनदूतम् धीरे-धीरे अणुव्रत समाराधना-साधना से,
हो जायेगा अनुभव तुम्हें पूर्ण संयम निभानेका, सो रामा सजकर विभो ! प्राप होना मुनीन्द्र ।।१३।। नाथ ! योग पाकर क्षणदा का चन्द्र चमकता जस है, भास्वर कान्ति छटा से युक्त हो सूर्य दमकता जैसे है । सरवर जैसे कमलश्री से जनमन मोहक बनता है, बसे ही मत्पत्नी से ही मानव खुब निखरता है । सच तो है सत्पत्नी से ही युक्त चमकता मानध है, उसके सदाचार से बिलता नवजीवन का उपवन है । जीवन उसका मौलिक बनता धर्म चेतना के बल से, जन-मन-दुर्वलताएँ ढलती जाती उस ही सम्पल से 1 "मूल'' भूल से समय-समय पर वह सचेत करती रहती, स्वयं संभल कर चलती घर को खूब संभालकर है रखती। उसके धाभिक व्यवहारों से वातावरण मुघरता हैघर का- घर पाने वालों का धर्म-कर्म सब सधता है । तो फिर क्यों ठुकराते स्वामिन् ! ऐसी घर की लक्ष्मी को, जगत नहीं अच्छा कहता है क्यों महते बदनामी को । राजुल के संग रहकर घर पर अणुगत का साधन करके, घरो पूर्ण संयम को स्वामिन् ! राजुल को फिर तज करके ।।१३।।
रात्री रम्या न भवति यथा नाथ ! चन्द्रेण रिक्ता,
____ कासारधीः कमलरहिता नंव वा संविभाति । लक्ष्मीळा भवति च यथा दानकृत्येन हीना,
नारी मान्या भवति न तथा स्वामिना विप्रमुक्ता ।।१४।। अन्वय अयं-(नाय) हे नाथ ! (यया) जैसे (चन्द्रेण रिक्ता) चन्द्रमा विना की (रात्रिः) रात (रम्बा न भवति) सुहावनी नहीं लगती है, (कमलरहिता कासारधीः नव का संविभाति) कमलों से विहीन सरोवरधी जैसे मन को मुदित नहीं करती है, और (यथा) जैसे (दानकृत्येन हीना) दान से रहित (लक्ष्मीः व्यर्थी भवति) लक्ष्मी व्यर्थ