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वचनदूतम् नाथ ! प्रापको मेरे कहने पर होता यदि नहिं विश्वास, तो जा करके स्वयं देख लें उस दुखिया को बनी उदास । हम तो अब तक यही समझते "बह अपने मनमन्दिर में, ६: बनम तुम्हें बिना पूर्ण कर में । प्रतः लीन वह दीन तुम्हीं में हैं सो विरह वेदना से । ऐसी प्राकुल व्याकुल है हम कह न सकें इस रसना से, दुदिन में होती है जैसी स्थलकमलिनी हा ! बेहाल । ठीक दशा वैसी है उसकी नहि प्रबुद्ध नहि सुप्त प्रबार, ॥११॥
इतस्तत्सखीनां निवेदनं प्रारभ्यते
एतासु काचित् तस्या अन्तर्वेदनां स्ववचनव्यनक्तिइस्थं तस्या व्यसनभरिसं वृत्तमावेश सम्यक,
तूष्णीभूते पितरि च तदा प्रोक्तमालीमिरेसत् । त्यक्ता राजीमतिरतिसती या स्वया कश्यमेतत्,
अश्लाघाहं जगलि भवतो वाच्यताभधायि जातम् ॥१२॥
अन्वय अर्थ -(इत्यं व्यसनभरित) इस प्रकार के कष्टों से भरे हुए (तस्याः दृतमावेध) राजुल के वृत्तान्त को सुनाकर--कह कर (पितरि तूष्णीमूने) उसके पिता जब चुप हो गये (तदा) तब (प्रालीभिः) राजुल की सखियों ने (एतत् प्रोकम्। यह कहा कि (अतिसती या राजमतिः त्वया त्वक्ता) जो अापने सनी-साध्वी राजुल का परित्याग किया है सो (एतत् कृत्यम्) यह काम {अश्लापाह) प्रापकी प्रशंसा के योग्य नहीं होकर (जाति) संसार में (भवतः वाच्यताधायि) उल्टी आपकी निदा कराने बाला ही (जात) हुआ है।
भावार्थ-जब राजुल की व्यथा कह कर उसके पिता चुप हो गये तब गजुल की सखियों ने नेमि से कहा कि प्रापने राजुल का त्याग कर जगत में अपना प्राइशं उपस्थित नहीं किया किन्तु इससे तो आप जगत के समक्ष निंदा के ही पान बने हैं।
दुम्प से भरित वृत्त राजुल का इस प्रकार से कह करके, चुप जब पिता हुए, सखियों ने अपना मौन भंग करके ।