Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ वचनद्वतम् बैठे-बैठे निजभवन में साथ में आलियों के, . वे ही रातें अब विरह की व्योम जैसी घनी सी। लम्बी-लम्बी बनकर उसे हैं सताती रुलाती, ___ काटे से भी नहिं विरह की बीतती वे निशाएँ । सो रोती है विकल बम के प्रासुनों को बहाती, नेत्रों से वे विगलित हुए अश्व, गण्डस्थली पैं। हो जाते हैं स्थिर फिर उन्हें पोंछतो और रोती, जैसे-तैसे इस तरह वो हा! विचारी अकेली। रात्रीयों को क्षपित करती गाल पें हाथ दे दे, जामो-जाओ लखकर उसे धैर्य ही को बंधायो । होगा ऐसे सुजस जग में पुण्य का बन्ध होगा, जो देता है दुखित जन को शांति है साधु वो ही ११०।। - - - - --. --... बैठ भवन में कथा मापकी से व्यतीत जो करती थीरजनी को सबनीमों के संग, सुख विभोर पो बनती थी, अमन चैन से हरी भरी वे रातें बातों-बातों में । क्षण सम होकर निकली जिसको सुल भरती थीं गातों में, पर हा ! अब के हो तो रातें उसको ही विलपाती हैं । कलपाती हैं डरपाती हैं जो को भौर जसाती हैं, • नभस्थली के तुल्य पसीमित लगती हैं वे बड़ी-बड़ी । मरी हुई को मार रहीं जो वे ही रावें घड़ी-बड़ी, निद्राभंगरूप में ताना देकर यों धमकाती हैं। "कहाँ गये के सेरे बालम कह, कह कर चमकाती हैं, पहिले के वे सभी मनोरथ देख कहाँ किस बाट पड़े । जिनके लिये सजाये तूने ये तन में शृङ्गार बई, सौ-सौ बाट ठाट सब हो गये नहीं एक भी दिखता है । नयन युग्म जिनके तकने को तेरा हाय तरसता है, ऐसे तानों से ही मानों उसके. नेत्र बरसते हैं। मथू नरी के मरमानों के रक्षकदल से बनते हैं,

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115