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वचतदूतम्
देखो जाके विकल वह है, आपके त्याग से ही,
साता जैसा सुभग क्षण भी एक भी है न, उस्के । जी में, सो वो सब तरह से ही असाता-युता है,
होवेंगे वे अब नहिं कभी नाथ मेरे, न मैं भी हो पाऊँगी, अब कहिं कभी हन्त ! पत्नी उन्हों की,
कर्मों की ये अति सबलता हाय ! कैसो अनोखी, छीना मेरा सुपति जिसने देखते देखते ही
द्वारे आये पर नहिं थमे वे वहां नैक भी तो। जो वे जाते थम यदि वहां तो मना नाथ को मैं
लेती, लेती चरणरज को नाथ की माय 4 में । जाने देती फिर नहिं उन्हें रोक लेती अकेली,
हो जाता ये सफल भव प्रौ नाथहीना न होती, ऐसी ऐसी निजहृदय की वेदना की कथा को,
ज्यों ही धैर्यच्युत बन विभो ! वो सुनाती सभी को । तो कोई भी जन नहिं तुम्हें नाथ ! अच्छा बताता,
जायो देखो सदय उसको म्लान हैं केश जिस्केवेणी के, श्री नयनयुग भी नींद से है विहीन, __ स्वामिन् ! उसके यदि न शयनागार में जा सको तो। बारी से ही बस तुम उसे देखलो सौध की, वो
चिन्तामग्ना अवनितल प हाय ! बैठी दिखेगी। हो जावेगी लखकर तुम्हें वो अधीरा निहाल ।।६।।
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भरयौवन में दीक्षा लेकर मुझे नाथ ने है छोड़ी नोभव से जो चली प्रारही प्रीति उसे सहसा तोड़ी कारण कुछ भी कहा न मुझसे ध्यानमग्न हो गिरिब कैसे घेर्य धरू हे सजनी ! साजन ही जब यों रूठे 11 मेरी जैसी नहीं प्रभागिन इस जग में नारी होगी ग्रास हाथ का छीन जिसे विधि ने ठोकर यों दी होगी ऐसे ही विचार से मेरी सुता विकल नित रहती है। राजमहल में रहती हु निज भाग्य कोसती रहती है