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वचनदूतम् जिस पाशा के बल पर अबतक यह घर में रहती प्रामी उस प्राशा के तार बिखर गये उसे वेदना है छायी कान्तिहीन हो मुस्न पर विखरे जुडा के वे फीके केश विरह-वन्हि के मानों ये हैं उद्यत हुए धूम्र अवशेष जागो जाओ! सुखी करो मन सदय नाथ ! उस राजुल को काजलहीन नींबविन नयना जिसके तरसे स्वागत को नाथ मानकर विभो ! प्रापकी जो पूजा में रक्त रहीं उसे त्यागकर कहो आपने कौन कमाई भली करी पृथ्वी-शय्या पर जो बैठी बाट देखती रहती है जाकर ढाडस उसे बँधावो यही साधुता कहती है जान सको यदि शयनकक्ष में तो उसकी ही खिड़की से उसे देखलोगे तो होगी मुखी दृष्टि की वृष्टी से ||६||
याऽनषीत् त्वद्विविधकथयामा सखीभिनिषण्णा,
बौधों रात्रि क्षणमिव भुवा स्त्रीयसौभाग्यजुष्टा । तामेवोषण विरहमहतो मधु भिर्यापयन्ती,
तां क्लिन्नास्यां करतलागतागण्डपाली प्रपश्य ॥१०॥ अन्वय-अर्थ हे नाथ ! (सखीभिः प्रमा) अपनी सखियों के साथ (निपणा) बैठी हुई (या) जिसने (त्वद्विविधकथया) आपके सम्बन्ध की अनेक प्रकार की चर्चाओं को लेकर (मुद्रा) प्रसन्न मन से (दीत्रों रात्रिम्) लम्बी-लम्बी रात्रियों को (स्वीयसौभाग्यजुष्टा) अपने सौभाग्य से संतुष्ट बन कर (क्षणमिब) एक क्षरण की तरह (अनंषीत्) व्यतीत किया (ताम् एव) उन्हीं रात्रियों को जो क्रि (विरह महतीम) प्रापये विरह से उसे बहुत बड़ी लगती हैं प्रब (उपरणेः अश्वभिः ) गर्म-गर्म प्रभुत्रों के साथ (यापमन्तीम्) बह निकाल रही है । ऐसी (क्लिनास्याम्) प्रांसुरों से गीले मुखवाली और (कस्तलगतागण्डपालीम) चिन्ता के मारे जिसने अपने गाल को हथेली पर रख लिया है (ताम् ) मेरी उस मुला को आप जाकर (प्रपश्य) देखने की कृपा करें। . प्यारे-प्यारे तव गण-गुणों की कथा के सहारे
रातें जिसकी क्षरण सदृश ही चन से बीतती थीं।