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वचनतम्
कहा—नाथ ! नहि किया आपने यह कारज अभिशमा योग्य,
राजुल का परिहार बना है सिर्फ आपको निद्रा योग्य ।।१२।। स्वामिन् ! रात्र्या सह निवसनादेख चन्द्राधकास्ते,
भास्वरकानया रविरपि तथा सत्सडागोऽउजलवाया। एवं मर्त्यः शुभकुलजया धर्मपत्न्येति भत्मा, ___ तो स्वीकृत्याचर गहिवर्ष स्थास्ततस्त्वं मुनीन्द्रः ॥१३॥
अन्वय अर्य- (स्वामिन्) हे नाध ! (राम्या सह निवसनात् एव) रात्रि के साध रहने से ही (चन्द्रः) चन्द्रमा (चकास्ते) चमकता है. (भास्वत् कान्त्या सह निवसनात् एत्र) अपनी चमचमाती हुई क्रान्ति के साथ रहने से ही (रविः अपि तधा) सूर्य उद्दीपित होता है (सत्तडागः प्रजलक्ष्म्या सह निवसनात् एव) और सरोवर कमलनी के साथ रहने से ही सुहावना लगता है, (एव) इसी प्रकार (शुभकुलजया धर्मपत्न्या सह निवसनात् एत्र) अच्छे प्रशस्त कुल में उत्पन्न हुई धर्मपत्नी के साथ रहने से ही (मत्यः) मानब मोभित होता है (इति मत्वा) ऐमा मानकर (स्वं तां स्वीकृत्य गृहिवार आचर) पाप पहिले उस राजुल को स्वीकार करके गृहस्थ धर्म पालो (ततः मुनीन्द्रः स्याः) बाद में मुनि धर्म अंगीकार करो।
भावार्थ---हे स्वामिन् ! जिस प्रकार रात्रि के साथ रहने से चन्द्र मण्डल शोभित होता है, अपनी प्रखर कान्ति के साथ रहने से ही सूर्य प्राकाश में दमकता है
और पद्यश्री के साथ रहने से सरोवर सुहावना दिखता है उसी प्रकार सुकुल प्रसूत सद्गृहिणी के साथ रहने से मानव की शोभा होती है । अतः प्राप पहिले राजीमति के साथ रहकर गार्हस्थिक जीवन अपनाईये और फिर बाद में मुनि जीवन में उतरिये । -
स्वामिन् ! जैसे विधु चमकता राधि का योग पाके,
पूषा भी तो ज्वलित छवि के योग से दीप्त होता । होता शोभा सहित सर भी कंज की कान्ति से हो,
ऐसे ही है मनुज खिलता योग से सन्नरी के । सो हे स्वामिन् ! प्रथम बनिये आप गेही, गृहस्था
चारों का पालन कर बनों आप देशवती, सो....