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वचनदूतम् घरे गाल पर हाथ सोचती उनको मैं कैसे पाऊँ, धौर्य बंधात्री नाथ ! साधु हो तुमको, मैं क्या समझाऊँ ।।१०।। अस्माकं विश्वसिप्ति बचनं न त्वदीयं मनश्चेत्,
गत्वा तहि स्वनयनपुगेनाबलोक्या सतो सा। जानीमस्तां वयमतिजास्त्वनिमग्नेकनुद्धिम्,
साधेडलीव स्पलकमलिनी न प्रमुखां न सुम्साम ॥११॥
अन्वय अर्थ हे नाथ ! (चेत्) यदि (त्वदीयं मनः) आपका मन (अस्माकं वचनम्) हम लोगों की बात पर (न विश्वसिति) विश्वास नहीं करता हो (तर्हि)
तो (गत्वा) जा करके (सा) उसे पाए (स्वनयनयुगेन) अपनी आँखों से (अब..:: खोक्या) देख लें (वयं) हम लोग तो (अतिजड़ाः) बिलकुल मूर्ख हैं । सो (तां त्वनि....:, मग्नकबुद्धिम्) उसे "वह आप में ही दत्तचित्त है" ऐसा ही (जानीमः) जानते हैं ।
इसलिये (साभ्रे प्रन्हि) वह मेघ वाले दिनों में (स्थलकमलिनीम् इव) स्थलकमलिनी के समान (न प्रबुद्धां न सुप्ताम्) न सोती हे पोर न जगती है । उसकी तो कोई अपूर्व ही स्थिति है।
भावार्थ-हे स्वामिन् ! हो सकता है कि जो कुछ हमने अापसे राजुल की स्थिति के सम्बन्ध में प्रकट किया है उस पर प्रापको विश्वास न हो तो प्रार्थना सही हैं कि आप एकबार यहां पधार कर स्वयं अपनी आँखों से उसकी परिस्थिति का अध्ययन करें, हम तो सामान्यजन है और उसकी दयनीया दशा देखकर यही समझे हुए हैं कि उसकी इस प्रकार की दुर्दशा का कारण आपका विरह ही है । अतः मेघों से पाच्छादित दिवस में जैसे स्थलकमलिनी न प्रफुस्लित होती है और न मुकलित हो । वैसे ही वह न तो सचेत हैं और न अचेत ही; अपूर्व ही उसकी हालत है ।
स्वामिन् ! मेरे कथन में जो न विश्वास हो, तो,
जाके देखो नयन अपने से स्वयं नाथ ! उस्को । हे वो मग्ना बस इक तुम्हीं में यही जानते हैं,
देखोगे तो इस कथन में तथ्यता ज्ञात होगी। जैसी होती स्थलकमलिनी मेघ वाले दिनों में,
ऐसी ही है इस समय वो जागती है न सोती ॥११॥