Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 22
________________ वचनदूतम् रोती है वो प्रतिदिन तुम्हें ध्यान में नाथ ! लेके, सो होता है सुनकर हमें चित्त में दुःख भारी। कालर-काला अघर उसका देख छाती फटे है, चन्दा जैसा वदन उसका हो गया नाथ ! ऐसा जैसा होला सघनधन से इन्दु का बिम्ब फीका मानों स्वामिन् ! अब घर चलो कष्ट क्यों भोगते हो देखेगी वो रजमति सुता सम में आपको-तो मानेगी वो सफल अपना जन्म पाके तुम्हें ही ॥८॥ नाथ ! प्रापकी स्मृति से ही यह प्रतिदिन है रोती रहती, उसके करुणाकन्दन को सुन चैन हमें भी नहिं पड़ती दीर्घ उष्ण बासों से उसका विद्रम जैसा लाल हुषा। अघर प्रोष्ठ कासा, पाला से मानों सरसिज दम्ध हुमा । प्रतिक्षण भाला सा यह करता हृदय विदीर्ण सभी का है। भनियो भने पर कोई कभी न रहता नीका है । उसका सुन्दर प्रानन तो प्रब ऊजड कानन सा लगता मेघों से प्रावृतमय के बिम्ब तुल्य निष्प्रभ दिखता ॥८॥ पान स्वां मुवितमनसा या पुराऽयेत्य नाथ, स्वन्मुक्ता सा मवति विकला साम्प्रतं धैर्यमुक्ता। गच्छातस्त्वं सुलय सदयो वीक्ष्य केशास्तकान्ति, तामुनिद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः ।।६ भावार्थ---हे नाथ ! जिसने पापको अपना प्राणनाध मानकर प्रसन्नचित्त से पहिले पूजा की, आपने उसी का परित्याग किया, इसी कारण वह इस समय धैर्यरहित होकर बड़ी विकल हो रही है, अतः आप जाकर कम से कम उस केशास्तकान्तिवाली मेरी सुता को उसकी वासमबन की खिड़की से ही देखकर सृखित कीजिये । वह निद्राविहीन हुई जमीन पर ही बैठी हुई पापको दिखेगी। पूजा में जो रत नित रही अापकी, सो उसी को छोड़ा स्वामिन् ! बिन कुछ कहे, आपने ये किया क्या?

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