Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 20
________________ वचनदूतम् स्वय्यालोना विरहृदिवसास्तेऽधुना संस्मरन्ती, स्काभूषा कुसुमशयने निस्पृहाऽस्वस्यचित्ता । गत्वेकान्तं प्रलपति भृशं रोदिति ब्रूत, इत्थम् - जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वाच्यस्वाम् ||७|| अन्वय अर्थ हे नाथ ! (त्वयि प्रालीना) आपके ध्यान में निमग्न हुई वह मेरी पुत्री (अधुना ) इस समय (ते विरहृदिवसान् ) आपके विरह के दिनों को (संस्म रन्ती) याद करती हुई (कुसुमशमने निस्पृहा) पुष्पों द्वारा रची गई सेज की भी चाहना से शून्य हो चुकी है। (त्यक्ता भूषा) प्राभूषणों को भी उसने छोड़ दिया है (अस्वस्थ - चित्ता) उसकी बाहरी चेतना चली गई है, वह (एकान्तं गरबा ) एकान्त में जाकर के ( प्रलपति) प्रलाप करती है और प्रलाप करते करते ( रोदिति) रोने लगती है । तथा (ते) जो मन में आता है वह कहने लगती है । (इत्थं जाताम् ) इस प्रकार की दशा में पहुंची हुई उसे (शिशिरमथिता) मैं शिशिर से मथित (प्रम्मरूपाम् ) श्रन्यरूपवाली (पतिवा) पद्मिनी की तरह (मन्ये) मान रहा हूं । मेरी पुत्री राजकर जिसे आप आये यहां हैं, है वो दुःखी विरहदिवसों की सती याद से ही है संमग्ना बस वह प्रभो ! श्रापके ध्यान में हो, सो पुष्पों की रचित उसको सेज है ना सुहाती । भूषा छोड़ा, अरु तज दिया भेष भी तो सलोना चित्त ग्लानि प्रशम करने हेतु जाती जहां भी रोती है वो विरह दिवसों की बहां याद से ही प्राता जी में बस वह वही बोलती व्यर्थ जैसा, छोड़ी स्वामिन् ! इकदम उसे आपने, हो गई सो ऐसी जैसी शिशिरमथिता पद्मिनी हो विरूपा ॥७॥ ॥ त्यागी जब से नाथ ! आपने मेरी पुत्री राजमती. तब से तो वह विरह दुःख से हो गई भिन्नाकारवती । दूषण सम आभूषण उसने इकदम ही परित्यक्त किया, प्रग्नि जान पुष्पों की शय्या का भी तो परिद्वार किया

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