________________
वचनदूतम्
पाषाणों से लकुट थपडों और शस्त्रों शरों से इस्से तो है सुभग ! यह ही श्रेष्ठ छोड़ो इसे, औ मेरे प्यारे सदन पर ही आप यहां से पधारो ॥ ५ ॥
नाथ ! नहीं है ध्यान योग्य यह अबलावल सोपद्रद है, वही चला है ध्यान योग्य तो होती जो निरुपद्रव है । हत्यारे भीलों की टोली क्योंकि यहीं से होकर के, अपने इष्ट कार्य संपादन हेतु निकलती सजधज के । प्रातः सो जब तुम्हें मार्ग में नंगा बैठा देखेगी, तो वह कार्यसिद्धि में तुमको विघ्नरूप हीं मानेगी । होगी रुष्ट ब्रुष्ट बनकर वह प्रभो ! तुम्हें धमकावेगी, ताड़ेगी, मारेगी श्री क्या ना जाने करवायेगी ॥ ५ ॥
अत्यांविर्मा,
शिष्ट: रितां गुलिगावरेस्स्यक्तवेशां दुराढ्याम् । मत्वा त्याज्यां सुजनसहितां सौधभूमि प्रयाहि,
यामध्यास्ते दिवस विगमे नीलकण्ठः सुहृद्धः ॥६॥
अन्वय अर्थ - हे नाथ ! (विषमविषमां ) प्रतिविषम, ( कठोराम ) कठोर, ( शिष्ट: रिक्ताम् ) शिष्ट जनों से विहीन, ( गुणिगरणवरैः त्यक्तदेशाम् ) गुणीजनों द्वारा सर्वधा हेय एवं (दुराद्वयाम्) दुःखों से भरपूर (त्यां एतां भूमिम् ) यहां की इस भूमि को स्थान को - ( त्याज्यां मत्वा) छोड़ने योग्य मानकर ( त्वं ) आप ( सुजनसहित सौभूमि प्रयाहि) अच्छे सेवाभावी जनों से परिपूर्ण ( साँधभूमि ) राजमन्दिर में (प्रमाहि) पधारों (याम् ) जिस पर ( दिवसविगमे ) सायंकाल के समय ( ब ) श्राप के जैसा हृवयवाला (नीलकण्ठः ) मयूर (अध्यास्ते) बैठता है ।
नीची ऊंची है, कठोर है,
भावार्थ -- हे स्वामिन् ! यहां की यह भूमि प्रत्यन्त एक भी शिष्टजन यहां रहता नहीं है । श्रेष्ठ गुणियों का यहां कष्टों के अतिरिक्त साता एक क्षण की भी नहीं है, छोड़कर राजमन्दिर की भूमि को अलंकृत करें। वहां श्रापको सज्जनों का सहवास
यहां सर्वथा प्रभाव है । अतः श्राप इस स्थान को