Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 16
________________ वचनदुतम् छोड़ो छोड़ो प्रियदुपते ! आप ये शृङ्ग जल्दी, ती काटो सहित क्षति है क्योंकि यहां की विषैली । भिल्लश्यामा प्रतिदिन यहीं से सभी नाथ ! होके, आती जाती, लखकर तुम्हें मार्ग में नग्न बैठा, होवेगी ये अमित, घुंघटा से केंगी स्व आस्य मुस्कायेंगी, निकल करके वे यहां से जहां भी, जायेंगी, व्हां खुलकर विभो ! श्रापकी वे करेंगी, निदा भारी, सुनकर जिसे दुखः होगा हमें भी, तानें देंगी, हर तरह से गालियां भी बकेंगी, स्वामिन् ! बोलो तब फिर यहाँ बैठना योग्य कैसेमाना जावे, उचित अब तो है यही नाथ ! मेरेरक्षाशाली घर पर चलो, है बड़ा वो प्रशस्त बाधा होगी नहीं तनिक भी आपको नाथ ! व्हां पे ||४|| कंटक - निकर सहित गिरिवर के तजो नाय शिखरस्थल को यदि चाहते शांति स्वान्त में और चाहते मंगल को नहीं समा ध्यान आपका यहां न मन सुस्थिर होगा क्योंकि यहां कारण हैं ऐसे जिनसे यह विचलित होगा गिरिवासी भीलों की प्रतिदिन श्यामा प्रोढा मुग्धाऐं सभी यहीं से आती जाती सधवा विधवा बालाएँ नग्न तुम्हें बैठा देखेंगी वे ज्यों ही शरमायेंगी हँसी करेंगी प्रोर गालियां भी अपार बरसावेंगी ताना देंगी नाना तुमको तुम्हें बुरा बतलायेंगी निंदा करती हुई अन्त में के तुमको घमकावेंगी कहो कौनसी शोभा इसमें नाथ ! आप भी तो सोचों राजपुत्र हो घृणा पात्र बन क्यों जीवन को यों दो।४ -

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