________________
वचनद्रुतम्
कैसे धर्मध्यान सधेमा होगा मन अविचल कैसे, क्षरण क्षरण में वह रक्त पियेगा इस इस कर जब तन में से, sarvaकुल विकराल काल सा पद पद पर फिरता रहता, जीवघात करके जो अपना गह्वर-उदर भरा करता, दीनहीन तनक्षीण मलिनमुख जनता यहां पर रहती है हिंसक जीवों के घातों से रक्षाशक्त न दिखती है
अतः छोड़कर इस प्रदेश को राजमहल में श्राप चलो कान्त ! शान्त प्रातङ्क हीन उसमें निशङ्क वन ध्यान करो ।।३।।
7
अद्रेः शृङ्गप्रियहुपते ! कंटकाकीर्णमेतत्
मुञ्चाशु एवं शवरदयिता वीक्ष्य नग्नं यतस्त्वाम्, ईषद्धास्या श्रवनतमुखा लज्जया निम्दयन्त्यः,
यास्यत्यस्मादविनययुता गहितां वाचमुक्त्वा ॥४॥
अन्य प्रयं - ( प्रियमपते ) हे प्रिययदुपते ! ( कंटकाकीर्णम्) कांटों से भरी हुई ( एतत् शृङ्ग) इस पर्वत की चोटी को (त्वम्) आप (आशु मुञ्च ) शीघ्र छोड़ दीजिये | ( यतः ) क्योंकि ( त्वाम् ) आपको (नग्न) नंगा ( वीक्ष्य) देखकर ( वरदयिताः ) भीलों की पत्नियां ( ईषद्धास्या) पहिले तो मुस्कायेंगी, फिर ( लज्जया ) लज्जा से ( श्रवनतमुखाः) वे अपना मुख नीचा कर लेंगी, बाद में (निन्द्रयन्त्यः )
)
आपकी निंदा करती हुई वे (महितां वाचम् उक्त्वा श्रविनययुताः अस्मात् ) प्रापके प्रति विनय न दिखाकर से ( यास्यन्ति ) निकल जायेंगी ।
अपशब्दों का प्रयोग करके आपके पास से होकर के यहां
भावार्थ हे यदुवंशियों के लाडलेलाल ! प्रापको यह पर्वत का शिखर जल्दी से जल्दी छोड़ देना चाहिये। क्योंकि यह नुकीले कांटो से भरा हुआ है और प्रापके कोमल चरणों में उनसे रक्षित होने का कोई साधन नहीं है। तथा यहीं से होकर भीलों की
स्त्रिया माती जाती रहती हैं। सो जब वे आपको रास्ते में नम्न स्थिति में बेठा हुप्रा देखेंगी तो लज्जा से उनका मुख नीचा हो जायेगा। वे प्रापकी प्रशंसा न कर प्रत्युत निंदा ही करेंगी और जो उनके मुख में आयेगा वही बकेंगी ।