Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 19
________________ वचनदूतम् मिलेगा और सायंकाल के समय भापके जैसा हृदयवाला पयर केकावारणी मनाकर आपका मनोरंजन करेगा। देखो स्वामिन् ! अतिविषम है ये यहां की धरित्री मिट्टी भी तो नहिं नरम है है बड़ी ये कठोर शिष्टों से भी रहित यह है बुद्ध ओं से भरी है कष्टों से ही कण कण यहां का सना है, न साताकोई पाता रहकर यहां, है अतः त्याज्य ही ये ज्ञानानंदी सुजन जिसमें तत्त्वचर्चा करे हैं सायं प्यारा सुहृद सम ज्यां बैठता नीलकण्ठ केका द्वारा सुभग ! गुण गा गा तुम्हारी होगाचित्ताशांति, सुखित मन होगा प्रभो ! आपका, सो मेरे प्यारे उस सदन में आप स्वामिन् ! पधारो देखो थोड़े समय रहकै कोइ बाधा न होगी ।।६।। गिरिवर की यह मही विषम है, है कटोर, अरु भयप्रद हैहिंसक जीवों के निवास से, कण करण इसका दुखप्रद है, शिष्टों के दर्शन दुर्लभ हैं, है पशिष्ट ये पारण्यक, रक्षाशक्त न दिखता कोई, सबके सब है जन-वासक, । इसीलिये यहाँ का निवास है नहिं प्रातक विहीन, मुनो आपद मोल स्वयं क्यों लेते, कुछ तो मन में पाप गुनो, अतः प्रार्थना नाथ ! यही है इसे तजो, मम मन्दिर मेंचलो, न बैठो, मानो प्रब इस, गिरिवररूपी जंगल में सायं जहां सदन पर भाकर भोर शोर कर जो नचता मानों कर फैलाकर केका द्वारा तुमसे यों कहता पामो सखे ! न जाणो भन तुम मोर कहीं, बस रहो यहीं राजुल के सँग गृहस्थधर्म को पालो नैष्ठिक बनो सही ।।६॥

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