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श्रीः
मूलचन्द जैन शास्त्रिरणा विरचितं
उत्सराद्धं पचनदूतम् ज्ञात्वं तज्जनक-जननी-बान्धवाश्चोर्जयन्तं,
____ गत्वा प्रोचुस्तपसि निरतं नेमिमित्यं स्वहार्दम् । प्रासीदेवं स्वाभिलषितं किं न पूर्व सयुक्तं,
सत्येवं नो भवति न विभो ! त्वत्कृता दुर्दशेयम् ॥१॥ अन्वय-अर्थ-(एवं ज्ञात्वा) हताश होकर राजमती भवन में आ गई हैं ऐसा जानकर (तज्जनक-जननी-बान्धवाः च) उसके माता, पिता और बन्धुजनों ने (उर्जयन्त गस्खा) गिरनार पर्वत पर जा करके (तपसि निरतं) तपस्या में- ध्यान में, मान हुए (नेमि) नेमिनाथ से (इत्थं) इस प्रकार का (स्वहार्दम्) अपना अभिप्राय (प्रोचुः) स्पष्ट रूप से कहा-(विभो) हे स्यामिन् ! यदि (एवं त्वदभिलषितं) एसा ही प्रापको अभिलषित था—करना इष्ट था तो (पूर्व) पहले से ही—अबकि प्रापका वाग्दान हो रहा था- तब ही--(तन फि न उक्तम्) मापने अपना बह अभिलषित-अभिप्राय-क्यों नहीं कहा, (एवं सति) यदि आप उसे कह देते तो (नः) हम लोगों को (त्वत्कृता) आपके निमित्त से (इयम्) यह (दुर्दशा) जो दुर्दशा (भवसि ) हो रही है (न) बह तो नहीं होती।
भावार्थ-राजुल जब नेमि के पास से हताश होकर वापिस अपने भवन में या गई और उसके आने की खबर जब उसके माता-पिता आदि हितचिन्तक जनों को पड़ी-तो ये सबके सब मिलकर गिरनार पर्वत पर पहुंचे । वहां पहुंच कर उन्होंने तपस्या में लीन हुए नेमिनाथ से बड़ी विनय के साथ कहा नाथ ! यदि आपको ऐसा ही करना इष्ट था तो जब प्रापका वाग्दान हो रहा था तब आपको अपना यह अभिप्राय स्पष्टरूप से फह देना चाहिए था, पर आपने नहीं कहा-यदि पाए अपना अभिप्राय प्रकट कर देते तो हम लोगों की ऐसी जो विवाद यह दुर्दपा आपके कारण हो रही है वह तो न होती ।