Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ वचनदूतम् पद्यानुवार मन्दाकान्ता छन्द-ज्यों ही जाना जनक-जननी ने समाचार सारा, प्यारी बेटी रजमति सती का, गये शीघ्र त्यों ही । वे नेमी के निकट गिरि पै, साथ ले बन्धुओं को, बोले स्वामिन् ! अभिलषित था वेष ये जो धरा है। अच्छा होता प्रकट करते भाषना आप ऐसी, वाणी द्वारा प्रथम हमसे तो न होती हमारी । प्यारी बेटी रजमति सती की तथा बन्धुनों की, ऐसी जैसी अब बिकट ये दुर्दशा हो रही है ।।१।। श्राटक छन्द–हो हताश राजुल गिरिवर से लौट भवन में आई है, ऐसी. ज्यों ही मात सास ने खबर कर्णबाटु पाई है। स्यों ही चिन्तित, व्यथित हृदय में बंधुजनों से परिवृत हो, कल्पों जैसे संकल्पों से तजित मर्पित अदित हो । पहुँचे गिरि पर, गिरते पड़ते नेमि निकट, बोले उनसे, गद्गद् वाणी से यो स्वामिन् ! तुम्हें राग था मुनिपन से। सो हे नाध ! बना का बाना बना द्वार पर क्यों आये, और न पहिले से ही ऐसा निज मन्तव्य मता पाये । स्वामिन् ! वाग्दान से पहिले यदि मन्तब्य बता देते, तो हम भी सचेत हो जाते मोल न यह प्रापद लेते । होते श्राप न कारण इसके और न ऐसी ही होती, हम लोगों की विकट दुर्दपा। और न राजुल ही रोती ।।१।। सा मे पुत्री व्यथितहृदया प्रत्यहं दुर्विकल्प---, __ स्वच्चिन्तोस्ः स्वपिति न मनाग निनिमेषाक्षिमुग्मा । वक्त्रं तस्या हिमकरनिभं त्वद्वियोगेऽस्तशोभम्, सूर्यापाये न खलु कमल पुष्यति स्वाभिस्याम् ॥२॥ अन्वय-अर्थ-हे नाथ ! (प्रत्यहं त्वञ्चिन्तीत्यीः) रात दिन प्रापको चिन्ता से उत्पन्न हुए (धिकल्पः) दुविकल्पों द्वारा (ब्यथितहृदया) जिसका हृदय व्यथित

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115