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में ही पैदा हो और नीचकुल में जन्मा हुआ भविष्य में नीच गति, योनि या गोत्र में ही पैदा हो । अपितु जीव के जैसे अपने कर्म होते हैं, उसी प्रकार की चेष्टा करता हुआ वह नट की तरह नये-नये रूप और वेश धारण करके संसार में परिभ्रमण करता है ॥४५-४६-४७॥ कोडीसएहिं धणसंचयस्स, गुणसुभरियाए कन्नाए । न वि लुद्धो वयररिसि, अलोभया एस साहूणं ॥४८॥
शब्दार्थ : सैकड़ों कोटि धनराशि और गुणों से परिपूर्ण कन्या उनके चरणों में आयी, मगर वज्रस्वामी जरा भी लुब्ध नहीं हुए । इसी प्रकार अन्य साधुओं को भी ऐसी निर्लोभता धारण करनी चाहिए ॥४८॥ अंतेउर-पुर-बल-वाहणेहिं, वरसिरिघरेहिं मुणिवसहा । कामेहिं बहुविहेहिं य, छंदिज्जंता वि नेच्छंति ॥४९॥
शब्दार्थ : 'सुंदर कामिनियाँ, नगर, चतुरंगिणी सेना, हाथी-घोड़े आदि सवारियाँ, उत्तम धन के भण्डार और अनेक प्रकार के साधन पंचेन्द्रिय-विषयसुख सामग्री-के लिए निमन्त्रित करने पर भी मुनि वृषभ (श्रेष्ठ साधु) इन्हें बिलकुल नहीं चाहते । वे तो सिर्फ अपने चारित्र धर्म को सुरक्षित रखने की इच्छा करते हैं' ॥४९॥ छेओ भेओ वसणं, आयास-किलेस-भय-विवागो य । मरणं धम्मब्भंसो, अरई अत्था उ सव्वाइं ॥५०॥ उपदेशमाला
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