Book Title: Tirthankar Mahavira
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 16
________________ जैनधर्म की पृष्ठभूमि धर्म का आधार विश्व में जितने भी धर्म हैं, उन सब का मूल आधार है-आत्मा और परमात्मा । ये दो तत्व ही समस्त धर्मों के मूल तत्व हैं । इन्हीं दो तत्वरूप स्तंभों पर धर्म का सुरम्य प्रासाद खड़ा हुआ है। इस आधार को दृष्टिगत रखकर यदि धर्मपरम्पराओं का विवेचन एवं वर्गीकरण करें तो वे दो अलग-अलग भूमिकाओं पर खड़ी दिखाई देंगी। कुछ धर्म-परम्पराएं परमात्मवादी हैं और कुछ आत्मवादी। परमात्मवादी धर्म-परम्परा को सीधी भाषा में . ईश्वरवादी धर्म-दृष्टि भी कह सकते हैं। ईश्वर, भगवान, ब्रह्म चाहे कुछ भी नाम हों, किन्तु उस धर्म में सर्वोपरि सत्ता वही है, वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र शक्ति है, कर्ता, हर्ता और भर्ता वही है । वह अपनी इच्छा के अनुसार संसार यंत्र को चलाता है, आत्मा को वही शुभ-अशुभ की ओर प्रेरित करता है । जीव का यहां स्वतंत्र अस्तित्व कुछ नहीं है, जो कुछ है वह ईश्वर है । भारतीय धर्म-परम्पराओं में जैन एवं बौद्ध धर्म-परम्पराओं को छोड़कर प्रायः सभी धर्म-परम्पराएं ईश्वर को ही सर्वोपरि शक्ति एवं सृष्टियंत्र का संचालक मानती हैं । इसलिये वे ईश्वरवादी धर्म-परम्पराएं कहलाती हैं। ____ भारतीय धर्म-परम्परा में जैन एवं बौद्ध धर्म- दो ऐसी धर्म-परम्पराएं हैं, जो ईश्वर के सिंहासन पर आत्मा को ही बिठाती हैं । आत्मा को ही वे सर्वशक्तिसम्पन्न कर्ता-हर्ता मानती हैं । उनकी आस्था में ईश्वर या परमात्मा-कोई अजनबी वस्तु नहीं, कोई सर्वथा नवीन भिन्न तत्व नहीं, किन्तु परम विकसित शुद्ध निर्मल आत्मा ही परमात्मा बनता है । परमात्मा सर्व द्वंद्व मुक्त, इच्छा, द्वेष-शून्य आत्मा का ही रूप है । कर्मयुक्त जीव आत्मा है, और कर्ममुक्त जीव परमात्मा।। दूसरी बात जहां भारत के अन्य धर्मों में आत्मा को ईश्वर का अनुगामी, उपासक एवं सेवक माना है, वहां जैनधर्म में आत्मा को ही परमात्मा बनने का अधिकारी माना गया है। जहां, वैदिकधर्म में परमात्मा का सिर्फ भक्त बने रहने में ही आत्मा की कृतार्थता है, वहां, जैनधर्म में आत्मा को परमात्मा, भक्त को भगवान बनने तक का अधिकार है। भारतीय धर्म-परम्पराओं में दृष्टि एवं विश्वास

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