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वीरः सर्वसुरासुरेनमहितो, वोरं तुषाः संश्रिताः । बोरेणाभिहतः स्वकर्म-निचयो. वीराय नित्यं नमः ।। वोरात् तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपो। बोरे श्री-धृति-कोति-कान्तिनिषयो, हे वीर ! भद्रं विश ॥
सौरभ से गमकते-महकते फूल की मधुर सुवास प्रत्येक हृदय को उल्लास से पुलकित कर देती है, और उसके दिव्य-भव्य कमनीय रूप पर दृष्टि मुग्ध हो जाती है, किन्तु यह अलौकिक सुषमा, सौन्दर्य और सौरभ पाने के लिये फूल को कितने दिन भूमि की अंधेरी गुफाओं में तपस्या करनी पड़ी, कितनी पीड़ाएं और यातनाएं झेलनी पड़ीं-और किस साहस तथा साधना के बल पर वह भूगर्भ से निकल कर विकास के इस चरम रूप को प्राप्त हुआ, इसका रहस्य तो कोई विरला ही जान पाता है ।