Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
देनेसे याजकको कोई पाप नहीं लगता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि यज्ञ के लिये ही पशु रचे गये हैं, यह साध्य कोटीमे ही पड़ा हुआ है, यज्ञ के लिये पशुओंको सृष्टि होना सिद्ध नहीं हो चुका है, जगत्के सम्पूर्ण प्राणी अपने अपने उपात्त कर्मोके वश हो रहे जन्म मरण करते हैं उनको क्लेश पहुँचानेवाला पापी हैं, ईश्वरका निराकरण करनेवाले प्रघट्टमे ईश्वर सृष्टिवादका समूलचूल खंडन कर दिया गया है । यदि पशुओंको यज्ञके लिए बनाया गया माना जाता है तो सिंह व्याघ्र, नक्र, चक्र आदिका आलाभन क्यों नहीं किया जाता है? विचारे घोडे,बकरे आदि दोन पशुऔपर ही शस्त्राघात किया जाता हैं,इस हिंसावाद को धिक्कार है । दूसरी बात यह हैं कि जो जिसके लिए होता है उसका दुसरे प्रकारोंसे उपयोग करनेपर दोष उपजना देखा जाता है जैसे कि ज्वर, श्लेष्म, वातपीडा, आदि के निवारणार्थ की गई औषधी का यदि अन्य प्रकारोंसे उपयोग किया जायेगा तो रोगी को हानि उपजेगी तिसी प्रकार यदि यज्ञ के लिए ही पशु बनाये गये माने जाते हैं तो पशुओंका क्रयविक्रय दुग्धपान, सवारी, भारवाहन आदि कार्योंमे उपयोग करनेसे कर्ताओंको अनिष्ट फलकी प्राप्तिरूप हो जानेका प्रसंग आवेगा जो कि वैदिकोंको इष्ट नहीं हैं।
मन्त्रप्राधान्याददोष इति चेन्न, प्रत्यक्षविरोधात् । हिंसादोषाविनिवृत्त: नियतपरिणामनिमित्तस्यान्यथा विधिनिषेधासंभवात् कर्तुरसंभवाच्च ।
यज्ञमे पशु हिंसा का फल स्वर्गादि है, यो माननेवाले कह रहे हैं कि मन्त्रोंको प्रधानता हो जानेसे कोई दोष नहीं आता है। अर्थात् विषको उपयोग भी कर लिया जाय, सांप बिच्छू को हाथमे ले लिया जाय, किन्तु मंत्रोंकी प्रधानतासे विषका असर नहीं पडता है, मृत्यु नहीं हो पाती है, तिसी प्रकार मन्त्रोंके संस्कारसे किया गया पशुवध भी पापोंका कारण नहीं हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से विरोध आता है, जैसे कि मन्त्रसे नहीं संस्कार किये गये विषमे मन्त्रसंस्कृत विषसे अन्तर दीखता है, मंत्रकीलित सर्पकी साधारण कृष्ण सर्पसे विशेषता है। लेज, सांकल, आदि बंधनोंके विना भी जल, मनुष्य चिटी, मछली, आदिका मन्त्रोंद्वारा स्तम्भन कर दिया जाता है, तिसप्रकार यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओमे केवल मन्त्रोंसे ही पशुओंका मार देना दीखता होता तब तो मन्त्रके बलपर श्रद्धा की जा सकती थी, किन्तु लेज, यूप आदिसे पशुको बांधकर पुनः शस्त्राघातसे वहाँ पशुओंको मार जाता है तिस कारण प्रत्यक्ष विरोध हो जानेसे निर्णीत किया जाता है कि मन्त्रोंकी सामर्थ्य कुछ भी नहीं है, एक बात यह भी हैं कि शस्त्र आदिकों करके प्राणियोंको मार रहे हिंसकके अशुभ अभिप्राय अनुसार पापबंध अवश्य होता है उसीप्रकार मन्त्रोंसे भी यदि पशु मार दिये