Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
मंत्री प्रवर की दीक्षा स्वर्ण जयंती के स्वर्णिम-शुभ | हो रहे हैं ऐसी स्थिति में जन-जन को सम्यक् पथ प्रदर्शन अवसर पर हमारी ओर से हार्दिक शुभाशंषा व कोटि- | में पूज्य गुरुदेवश्री जी ने अहं भूमिका निभाई है। कोटि बधाइयाँ।
गुरुदेव श्री का जन्म राजस्थान प्रांत के बीकानेर 0 विनोदमुनि | जिला पाँचूं ग्राम में हुआ। किसे पता था कि इस छोटे से अहमदनगर (महाराष्ट्र)
गांव की मिट्टी में खेलनेवाला यह बालक बड़ा होकर महान् बनेगा। एक असहाय बालक ! माता पिता का
साया भी जिस पर नहीं है वह जैन धर्म की ज्ञान गंगा को मेरी अनन्त आस्था के केन्द्र
प्रवाहित करेगा? कहा है - पूज्य गुरुदेव
“होनहार विरवान के होत चीकने पात" गुजरने को गुजर जाती हैं, उमरें शादमानी में।
यह उनकी पूर्व जन्म की साधना ही थी कि इस जन्म मगर ये मौके कम, मिला करते हैं जिन्दगानी में।।
में उन्हें साधना पथ पर ले आई। आप श्री ने साढ़े चौदह
वर्ष की अल्पायु में ही अम्वाला के निकट साढ़ौरा ग्राम में संसार बंधन से छूटने के लिए प्रभु ने हमें साधना का
जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की। मार्ग प्रदान किया। यह साधना-मार्ग प्रभु आदिनाथ से प्रभु महावीर तक और श्रमण महावीर से आज तक चला आ
जैसे स्वाति नक्षत्र की बूंद सीप में पड़कर मोती वन रहा है।
जाती है इसी प्रकार आपश्री का जीवन भी महापुरुषों के
ज्ञान रूपी समुद्र की सीप में पड़कर आज पूरे भारत में __साधना एक ऐसी शक्ति है जिसे पाकर कर्म निर्जरा
मोती सा उद्दीप्त हुआ है। और जन-जन को आलोकित करता हुआ संसार बंधन से सदा-सदा के लिए प्राणी मुक्त
कर रहा है। आपका गहन अध्ययन आज सबका मार्ग हो जाता है।
दर्शक बन गया है। ज्ञानाराधना, श्रुत-सेवा, प्रवचन आदि जैन जगत् में अनेकों महान् विभूतियाँ उत्पन्न हुई हैं | के साथ ही आप में सेवा का गुण भी प्रचुर मात्रा में जिन्होंने इस साधना मार्ग पर चलते हुए प्रभु के उपदेश | विद्यमान है। आपने संघों की एवं महान सन्तों की अत्यधिक को घर घर, जन-जन तक फैलाने का प्रयास किया है। सेवा की है। आपका कथन है कि हमें सेवा के लिए ही इसी कड़ी में हमारे पूज्य गुरुदेव श्री सुमन मुनि जी
जीवन मिला है। हमें धर्म की, समाज की, साधु सन्तों की का नाम भी आता है। आचारांग सूत्र में श्रमणों के
सेवा करनी ही चाहिए। सेवा का फल कभी निष्फल नहीं आचार का प्रतिपादन है। हमें उस आचार को जीवन में
जाता है। लाना है। यह आचार साधु के लिए ही नहीं अपितु पूज्य गुरुदेव अनेक गुणों के सागर हैं। ऐसे महान श्रावकों के लिए भी आवश्यक है। यही कारण है कि | गुरु के गुणों का वर्णन करना मेरे सामर्थ्य की बात नहीं पूज्य गुरुदेव अपने प्रवचनों में आचार के परिपालन पर | है। संत कबीरदास जी ने ठीक ही कहा है -- बहुत जोर देते हैं। आज हमारा आचार, चरित्र, आहार | "सात समंद की मसि करूं, लेखनी सब वनराय। विकृत हो रहा है। मन मस्तिष्क के विचार भी असंतुलित | धरती को कागद करूँ, गुरुगुण लिखा न जाय ।।"
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