________________
श्री
सु
ह
ष्टि
१०
नमस्कार करें हैं । २०७ । भगवान के विहारकर्म का वर्णन है। २०५ । वादिराज गुरु जरु मानतुंग नामा आचार्यगुरु स्तोत्रके कर्त्ता तिनकों नमस्कार है। ग्रन्थ पूरण होते कवीश्वर अपना जन्म सफल जानि हर्ष पाया || २०६१ ग्रन्थपूरण होते कवीश्वर अपना नाम धरि जिस नगरमें पूरण किया ताक बताय तिस वर्ष मास दिन को सुफल जानि तिनके सुधरने करि ग्रन्थ पूरण करने का कथन है। २३०। ऐसे इस ग्रन्थका सामान्य टिप्पण । कहा। सो विवेकी श्रोता तथा वक्ता पीठिकाके कथन याद करि मनमें राखें तो इस सब ग्रन्थका सुमिरण होय । २२२ ।
इति श्री सुष्टितरङ्गिणी नाम ग्रन्थ मध्ये सर्वावलोकन पीठिका संक्षेप अर्थं वर्णन नाम प्रथमो परिच्छेदः सम्पूर्णः ॥ १ ॥ ऐसे सामान्य पीठिका कही अब ग्रन्थारम्भ रूप प्रथम ही इष्टदेव कों नमस्कार किजिये है।
गाथा - अरिहंत देव बन्दे, गुरुबन्दे णगण णाण बौरायो। धम्म दयामय बन्बे, कम्मखय कारणं शुद्धं ॥
अर्थ- जो कर्म-अरिनिका नाश किया तातें अरिहंत देव हैं सो ऐसे अरहंतदेवको हमारा नमस्कार होऊ । अरु सर्व परिग्रह रहित ममत्व त्यागी न. राग द्वेष रहित वीतरागी गुरुकूं हमारा नमस्कार होऊ षट्काय जीवनको माता समान रक्षाकी करणहारोदया, सो ऐसी दयामई धर्म कथन सहित सप्तभंगरूप सम्यकप्रकार सर्वज्ञ वीतरागीका प्ररूपा जो धर्म ऐसे धर्म को नमस्कार होऊ। ऐसे प्रथम मंगलके हेतु अपने इष्टदेव धर्मगुरुको भक्ति भाव सहित नमस्कार करते पुण्यका संचय किया। कैसे हैं देव गुरु धर्म, भक्त जीवनके कर्मनाशके कारण हैं। सर्व दोष-रहित, शुद्ध हैं, तातै भक्त मी परंपराय शुद्ध होय है। सो या बात सत्य है जाकी सेवा करे तैसाही फल होय है । सो लौकिक विषै भी प्रगट देखिये है। जो जीव जाकी सेवा करे तैसा ही परंपराय होय । जो कोई जौहरीको सेवा करे तो परंपराय जौहरी होय । कोई सर्राफको चाकरी करे तो सर्राफ होते देखिये । आटा दाल के बेचने हारेकी सेवा करें तो परंपराय दुकानदार होते देखिये है। होन संग विषै शिल्पीको सेवा करे तो शिल्पी पद पावै । बढ़ईकी सेवा करै तो परंपराय बढ़ईका पद पावै, इत्यादिक जैसी जैसी संगति करे तो तैसा हो पद पावें । तैसें शुद्ध देव गुरु धर्मकी सेवा करें तो शुद्ध होय, ऐसा आचार्यने कहा। तातें मैं ऐसा जानि अपने देव गुरु धर्मको वंदनाकरी, ताके फल स्वरूप मेरा कर्म मल नाश होय, शुद्ध अवस्था होऊ । यहाँ
१०
त
रं
गि
ली