Book Title: Saraswati 1935 07
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 24
________________ १२ सरस्वती जहाँ प्राइमरी स्कूलों की अवस्था इस प्रकार श्रव्यस्थित है, वहाँ रात्रि - पाठशालों या सयानों के लिए शिक्षा की व्यवस्था होने की आशा करना भ्रममात्र है । माध्यमिक शिक्षा प्रदान करनेवाले स्कूल भी पर्याप्त शिक्षा के विचार से बहुत ही पिछड़े हुए हैं । जो शिक्षा उनमें दी जा रही है वह विदेशों में वैसे ही स्कूलों में दी जानेवाली शिक्षा की अपेक्षा बहुत निम्नकोटि की है और शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए बहुत ही पर्याप्त है। ये स्कूल इस बात में भी दोष-पूर्ण हैं कि इनमें बालकों को केवल साधारण शिक्षा ही दी जाती है - व्यावसायिक शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे स्कूल बहुत थोड़े हैं जिनमें कृषि, व्यापार या शिल्प-कला की शिक्षा दी जाती हो । जो हैं भी वे बहुत पूर्ण हैं । उस प्रकार की कृषि, व्यापार और शिल्प-कला आदि का जो पाठ्यक्रम इंग्लैंड के सेन्ट्रल स्कूलों में प्रचलित है उसके प्रचलित होने की यहाँ के स्कूलों में श्राशा करना व्यर्थ है । उक्त सरकारी रिपोर्ट में माध्यमिक स्कूलों के विषय में लिखा है – “मेट्रिकुलेशन और विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में फेल होनेवालों की अत्यधिक संख्या शिक्षाप्रचार के प्रयत्न की हान् असफलता और अपव्ययता का द्योतक है । व्यवसाय और शिल्प सम्बन्धी शिक्षा प्रदान करने का जो उद्योग किया गया है उसका साधारण शिक्षा-प्रणाली से कोई सम्पर्क नहीं है, फलतः वह अपने उद्देश में असफल हुआ है ।" विश्वविद्यालयों की तुलना उन वृक्षों से की जा सकती है जिनका मूल प्राइमरी स्कूल-रूपी पृथ्वी की गहराई में घुसा हु है । ये वृक्ष अपनी खाद और बल माध्यमिक स्कूलों से प्राप्त करते हैं । जहाँ ये दोनों दुर्दशा ग्रस्त और सदोष हों, जहाँ विद्यार्थियों का व्यावसायिक पाठ्यक्रम की ओर झुकने के लिए व्यवस्था ही न हो, जहाँ लगभग प्रत्येक छात्र एक ऐसे पाठ्यक्रम को पढ़ने के लिए बाध्य हो जो उसको एक मामूली क्लर्क के काम को छोड़कर और सब कामों के अयोग्य बनाती हो, वहाँ कोई आश्चर्य नहीं है यदि विश्वविद्यालयों को बिना विचार के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ भाग ३६ ऐसे छात्रों को भर्ती करना पड़ता है, जो विश्वविद्यालय की शिक्षा पाने की क्षमता नहीं रखते हैं और अधिक - तर दूसरे प्रकार के जीवन-क्रम में सफल हुए होते। प्रकृत दशा में विश्वविद्यालयों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे पाठ्यक्रम की कक्षा को जितना ऊँचा चाहें, कर लें । इसलिए यह स्पष्ट है कि ऐच्छिक सुधार और उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि सार्वजनिक अनिवार्य और निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली एवं श्राकर्षक व्यावसायिक पाठ्यक्रम से युक्त माध्यमिक शिक्षा का प्रचार और उपयोग किया जाय। इसी मार्ग पर चलने से वर्तमान असन्तोषप्रद स्थिति से छुटकारा मिल सकता है । विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकले हुए स्नातकों की बेकारी का यह कारण है कि विश्वविद्यालय भी छात्रों को जीविका की उपयुक्त शिक्षा प्रदान करने के लिए भिन्न भिन्न पाठ्यक्रमों से युक्त नहीं हैं । इसलिए साधारणतः वे छात्र जो कला या शुष्क विज्ञान की डिग्री प्राप्त करते हैं, अध्यापकी या शासन प्रबन्ध के किसी पद को छोड़कर और किसी काम के योग्य नहीं होते। लेकिन स्कूल, कालेज और सरकारी नौकरियाँ हर साल बहुसंख्या में निकलनेवाले स्नातकों में से इने-गिनों को ही जीविका प्रदान कर सकती हैं। रोज़गार और व्यवसाय की शिक्षा का पाठ्यक्रम न होने से बहुत-से छात्र क़ानून पढ़ने को बाध्य होते जहाँ उनको निराशा ही निराशा है । इसलिए इस रोग का उपचार तो इसी में है कि उपयुक्त प्रकार के व्यापारिक, कृषि सम्बन्धी, शिल्पकला-सम्बन्धी तथा इंजीनियरिंग की शिक्षा उचित मात्रा में प्रदान करने की व्यवस्था की जाय। यह कहना कि कृषि और व्यापार में अधिक लोगों की आवश्यकता नहीं है, बुद्धिमानी का उत्तर नहीं है । शिक्षा को इस प्रकार व्यावहारिक बना होगा कि उसकी माँग हो सके — और इस माँग को भी बढ़ाना ही पड़ेगा। सरकार और विश्वविद्यालयों को नवयुवकों को उचित शिक्षा देने के लिए सहयोग से कार्य करना और उनके लिए उपयुक्त जीविका के द्वार निश्चित करना होगा । भिन्न भिन्न सार्वजनिक विभागों में से कोई भी, एक विभाग किसी असीम संख्या में शिक्षितों को नहीं खपा www.umaragyanbhandar.com

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