Book Title: Saraswati 1935 07
Author(s): Devidutta Shukla, Shreenath Sinh
Publisher: Indian Press Limited

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Page 22
________________ सरस्वती [भाग ३६ जो कला-रसात्मा दूसरों को शिक्षा देने के लिए नुसार सादृश्य, अनुधर्मता, अनुरूपता आप ढूँढ़ लेती अपनी कला को काम में लाता है वह तो धर्मापदेशक है। विरोध और प्रतिकूलता को हटाती चली जाती है. है, कलारस से छका हुआ उन्मत्त नहीं। इसी प्रकार विरोध में सामञ्जस्य और प्रतिकूलता में अनुकूलता जो कला-कुशल अपनी कला-द्वारा संसार में अनीति उत्पन्न करती हुई अग्रसर होती रहती है। और अनाचार फैलाने का अभिप्राय रखता है वह भाषा भी चित्रागार है। प्रत्येक शब्द एक प्रस्तुत विट है, कुट्टन है, लम्पटों का दूत है-कला रसोन्मत्त कला है । शब्दों से क्या कान को केवल आवाज ही नहीं है। दिगम्बर और नग्न में, नैसर्गिक शरीर और सुनाई देती है ? नहीं। हाँ, शब्द के सुनते ही एक असज्जित में कहीं बड़ा अन्तर होता है। पवित्रहृदय चित्र हमारे हृदय-पट पर खिंच जाता है। सर्वोत्तम बालक नंगे और ढंके हुए में कैसे भेद कर सकता है ? चित्र तो शब्दों से ही चित्रित होते हैं। कितने ही लज्जा का उद्गम दुर्बुद्धि और पापपरता है। नंगे को सहस्रों वर्ष पुराने शब्द-चित्र आज भी अनूठे और मूर्ख, गॅवार, भद्दा और असभ्य कहेंगे। दिगम्बर को हृदयग्राही प्रतीत होते हैं। पवित्र हृदय समझेगे। __ अगणित सुधारकों ने समय समय पर भरपूर * नीतिमत्ता क्या है ? यह भी तो क्रिया और चेष्टा की है कि संसार से अनुराग, वासना, इच्छा उठ अवस्था की अनुकूलता (या सामञ्जस्य) का ही नाम है। जाय, पर उठा नहीं सके। अरब में, ईरान में गानवाद्य आचरणों की मिली हुई स्वर-लहरी या मधुर गति और चित्रकारी का बीज लाख उपदेश करने पर भी नीति है। समाज में रहनेवाले की आचरणरूपी वंशी नहीं नष्ट हुआ। इन मानव-स्वभाव के स्वयम्भूत गुणों में बाल न हो, इसी को तो कहते हैं मिल कर बजे के नष्ट होने का अर्थ है मनुष्य-जीवन का ही अन्त और खटका न हो। गान में सुर-तान की मधुरता, हो जाना। चित्रकारी में रंग-रूप की सारूप्यता, नीति में आचरण संसार की जरूरतों की ही खोज और चिन्ता में की संगतिता का लक्ष्य एक ही है। बड़े बड़े चित्रों यदि मनुष्य पड़ा रहे तो जीवन भार हो जाय, घर और मूर्तियों के निर्माता मजूर नहीं होते। वे अपने कारागार बन जाय, आत्मीय जंगल के हिंसक जन्तु आनन्द के लिए अपनी कल्पना को व्यक्त करते हैं। प्रतीत होने लगें। कला के सहारे जीवन-क्षेत्र फैलता हाँ, वे चित्रकार अवश्य मजूर हैं जो केवल पैसे के है, दीवारें हटती हैं, छत और ऊँची हो जाती है, भावों लिए विशाल चित्र चित्रित किया करते हैं। इसी तरह के स्वतन्त्र विकास का मैदान विस्तीर्ण हो जाता है। अगर चित्रकार नीति सिखलाने का प्रयास करता है दर चश्मे मुहक्तिककाँ चे जेबा व चे ज़िस्त । तो उसे खींचतान का श्रम करना पड़ेगा, उसमें मंजल गहे आशिकाँ चे दोजख चे बहिश्त ॥ स्वाभाविक प्रवाह (रवानी) न होगा, इसलिए वह पोशीदने बेदिलाँ चे अतलस चे सास । चित्रकार नहीं, मजूर कहलायेगा। ज़रे सरे आशिकाँ चे बालीनो चे ख़िश्त ।। उपन्यास-लेखक, कवि किसी को भी ले लें, जहाँ अर्थात् तस्वदर्शियों की दृष्टि में क्या भला और कल्पना के स्वतन्त्र प्रवाह में कहीं किसी भी बाह्य क्या बुरा ? प्रेमी का स्थान जैसा स्वर्ग वैसा नरक । विचार ने बाधा डाली कि वस्तु की असलियत जाती आपे को भूले हुए मस्तों के पहरने के लिए जैसा रहती है, कृत्रिमता प्रविष्ट होकर सारा सौन्दर्य नष्ट अतलस वैसा पश्मीना। प्रेमियों के सिर के नीचे कर देती है। संसार-रूपी महाविश्वकोष हमारे सामने तकिया (उपधान) हो या ईट दोनों बराबर हैं। खुला पड़ा है, हमारी प्रतिभा इसमें से आवश्यकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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