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प्रस्तावना |
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निरुक १५ - १ ) यास्कका ज्ञान भी वेदोंके विषयमें उससे कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था । ( निरुक्त १६।२) फिर ईस्वी १४ वीं शती में सायण भी ॠम्भाष्यमें वैदिक परम्परीण अर्थको ठीक नहीं पाते हैं । ( स्थाणुग्यम् मारहारः किलाभूर्वित्य वेदं न विज्ञानाति योऽर्थम् । ) अत: यह कैसे कहा जा सकता है कि वेदोंके ऋषभादि शब्दों का. अर्थ जैनत्व द्योतक नहीं है ? अधुना ब्राह्मण विद्वान् उन्हें जैन सूचक बताते हैं । उसपर स्वयं सायण वैदिक अर्थको स्पष्ट करनेके लिये पुराणादिको प्रमाणभूत प्रगट करते हैं । हिन्दू पुराणोंमें ऋषभ आदि शब्द स्पष्ट जैनधर्म बोधक मिलते हैं । अतः वेदोंमें जैनोंका उल्लेख संगत प्रतीत होता है ।
पुराणोंमें सर्व प्राचीन विष्णुपुराण' है। उसमें जैन तीर्थङ्कर सुमतिनाथे और जैनधर्मकी उत्पत्ति विषयक उल्लेख हैं । इसमें असु रोको जैनधर्म- रत और' आहेत ' कहा है । ( बंगाली आवृत्ति, अंश ३ अ० १७-१८), ' भागवत ' में श्री ऋषभदेवको दिगम्बर मतका प्रतिपादक और आठवां अवतार लिखा है। (स्कंध ५ अ० ३-६) 'वराहपुराण' – 'अग्निपुराण' - 'प्रभातपुराण' - 'पद्मपुराण' - शिवपुराण' में भी जैनधर्म विषयक उल्लेख हैं । यैह जैनधर्मको प्राचीन प्रमाणित करते हैं। उधर शारीरिक मीमांसा व महाभारतके कर्त्ता ऋषि व्यास अथवा बादरायन जैनियोंकी आलोचना दूसरे अध्यायके दूसरे पदमें ३३-३६ सूत्रद्वारा करते हैं । इसपर टीका करते हुए नीलकण्ठ कहते हैं कि
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१- इंडियन ऐटीक्वेरी, भा० ९, पृ० १६३ |
२- मवान पार्श्वनाथ ” की भूमिका १० २९-३० : देखो ।
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