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द्वितीय परिच्छेद ।
[१९ है। इसका नाम दुःषमा काल है। यह इक्कीसहजार वर्षका होता है। इसमें मनुष्य शरीरकी आयु, बल और लंबाई बहुत कम होती जाती है । इसके प्रारम्भमें ७ हाथका शरीर होता है और १२० वर्षकी आयु रहती है। फिर प्रति हजार वर्षमें पांच वर्ष आयु घटती जाती है। अंत समयमें दो हाथका शरीर व बीस वर्षकी आयु रह जाती है । उस समय मनुष्य मांसभक्षी और वृक्षोंपर बंदरोंके समान रहनेवाले होते हैं । धर्मका लोप होजाता है।
(६) छठवें भागमें और भी अवनति होजाती है। इस भागका नाम दुःपमा दुःषमा है। इस कालके जब उनञ्चास दिन शेष रह
जाते हैं तब धूल, हवा, पानी, अग्नि, पत्थर, मिट्टी विषकी सात सात . दिनों तक वर्षा होती है अर्थात् प्रचलता होती है। और इनकी प्रबलतासे आर्यखंडके सम्पूर्ण पशु, पक्षी, मनुष्य, नगर, देश, मकान आदि नष्ट हो जाते हैं। यह समय प्रलयका कहलाता है। केवल ऐसे प्राणी जो मातापिताके संयोगसे उत्पन्न होते हैं वे देवोंद्वारा तथा म्वतः सुरक्षित स्थानोंमें जा रहते हैं । यही समय अवनतिकी पलटनकी पूर्णताका है।
अवनतिकी पलटन पूरी हो जानेपर ( अवसर्पिणी काल पूरा हो जानेपर ) उन्नतिकी पलटन ( उत्सर्पिणी काल ) का प्रारम्भ होता है। इसके पहिले भागका नाम दुःषमा सुषमा, दूसरा दुःखमा. तीसरा मुम्बमा दुःखमा. चौथा दुःखमा सुखमा, पाँचवाँ सुषमा और छठवाँ सुषमासुषमा होता है। इनमें क्रमशः आयु, काय, सुख दुःख उसी तरह बढ़ते जाते हैं जिस तरह अवनतिकी पल्टनमें घटते थे। अवनतिकी
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