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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
नयमें सेनाका विशेष प्रबन्ध था। महाराजका रणवास भी साथ था। साथमें मनुष्योंको ठहरनेके लिये कपड़े के तंबू लगाए गए थे घोड़ोंकी घुड़साल भी कपड़ेकी ही बनाई गई थी। भरतके अजितजय नामक स्थके घोहे जल और थल दोनोंपर चलते थे। महाराज भरतने म्लेच्छ खण्डपर भी अपना आधिपत्य जमा लिया था। उनकी सेनामें १८ कराड घोडे, ८४ लाख हाथी, ७४ करोड़ पैदल सेना और ८४ लाख स्थ थे। उनने छहों खण्डोंपर अपना साम्राज्य फैला लिया था। भरतने अपनी एक प्रशस्ति हिमवन पर्वतकी ओर वृषभाचल पर्वतकी एक शिलापर लिखी थी। इस दिग्विजयमें भरतको साठ हजार वर्ष लगे थे। दिग्विजयसे लौटनेपर भरत अयोध्याको लौटे, परन्तु उनका चक्र रत्न नगरमें प्रवेश नहीं करता था। तब उन्होंने जाना कि मैंने अपने भाई बाहुबलीको अभी बिजय नहीं किया है। बाहुबली प्रथम कामदेव, परम सुन्दर थे और भगवान ऋषभनाथके दूसरे पुत्र थे और इनकी राजधानी दक्षिण दिशामें पोदनापुर थीं। इन्होंने भरतकी आज्ञा शिरोधार्य नहीं की थी और अन्तमें दोनों भाइयोंमें युद्ध हुआ था। मंत्रियों के कहनेसे सेनाओंका युद्ध नहीं कराया था। बाहुबलिने भरतको हगया। इसपर खिजकर भरतन उनपर चक्र चलाया, पर चक्रने भी उनको भरतका आत्मीय जान मारा नहीं । इतने में बाहुबलिको वैगम्य होगया और उन्होंने दीक्षा लेकर दुर्धर तपश्चरण किया था। वे एक वर्षका आसन माढ़ एक स्थानपर ही तप तपते रहे थे, जिससे वन लताऐं उनके शरीरमें लिपट गई थीं व सोने पैरोंके नीचे वामियां बना लीं थीं। जिस दिन बाहुबलीका एक वर्षका उपवास पूर्ण हुआ
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