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१०४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । ज्ञानका बिलकुल लोप होजानेके भयसे ज्येष्ठ सुदी ५ को श्रीभूतबलि मुनिने उनके अवशेष भागको षखंडागम नामसे लिपिबद्ध किया था।
____ यह आर्षवेद अथवा श्रुतज्ञान जैनियोंकी द्वादशांग वाणीमें प्रविष्ट है। और वह अंगप्रविष्ट (१२ अंगोंमें ) और अंगबाह्य (१२ अंगोंके अतिरिक्त) के भेदसे दो प्रकारका है। इसकी भाषाके ६४ अक्षर हैं जिनमें ३३ व्यंजन और २७ स्वर हैं एवं २ मिश्रितरूप, १ अनुस्वार और १ विसर्ग है। ( Mixed sounds, anusvara, Visarga: hk, hkh, bp, hph. See S. B. J. Vol. II. P. 20 ). इन अक्षरोंका २, ३, ४ से ६४ पर्यन्त संयुक्ताक्षर परिणाम (२६४-१) है अर्थात् १, ८४, ४६,७४, ४०,
प्राकृत पूजाऐं कंठस्थ कराई जाती हैं। सेजर साहिबके द्राविड़ ज्ञानप्राप्तिके वर्णनमें इस विषयका उल्लेख है कि बहुतसे लोग द्राविड़ (Dravid) रीत्यानुसार कितनी ही कविताएं कंठस्थ रखते थे। उनमेंसे कितनेक विद्यार्थी अवन्यामें २० वर्ष तक रहते थे । तो भी गार्हस्थ कार्योंमें लिपिका आश्रय लिया जाता था। तब यह मनुष्य समाजमें एक साधारण कार्य था, और जैनी भी उससे पृथक् नहीं थे, जैसा कि अब प्रत्येक विद्वान मानता है। मि० बाथके अनुसार जैन सिद्धान्त लिपि करनेके पहिले अनुमानतः १००० वर्ष पूर्वसे विद्यमान थे। इस विषयमें जैनियोंकी भी व्याख्या प्राप्त है और वह अपने आगमज्ञानके लिपिबद्ध होनेका समय भी बतलाते हैं। यद्यपि वह लेखनकलाका प्रचार भगवान ऋषभदेवके समयसे हुआ बतलाते हैं, परन्तु समग्र श्रुत पूर्णरूपमें कभी लिपिबद्ध नहीं हुआ। वह यतिवरोंकी स्मृतिमें ही रहा। यह बात "बृहत् जैन शब्दार्णव" भाग १ पृष्ठ ४१ पर अङ्कित है। तथा श्वेताम्बर विद्वान प्रो० बनारसीदास भी
इससे सहमत हैं।" ( देखो माधुरी वर्ष ३). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com