Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 126
________________ ::.. पंचम परिच्छेद। [११९ द्वारा शेर, हाथी, घोड़ा, आदिका रूप धारण करना आता हो। इसमें भी २,०९,८९,२ . ० मध्यम पद हैं। (५) आकाशगता चूलिकामें उन मंत्रों, आहुतियों और तपोंका वर्णन है जिनके द्वारा मनुष्य आकाश आदिमें चल सकता है। इसके भी २,०९,८९,२०० मध्यम पद हैं। ___अंगबाह्य श्रुतके ८, १,०८१७५ अक्षर हैं और वह १४ प्रकीर्णकोंमें विभाजित हैं। • (१) मामायिक प्रकीर्णकमें ६ प्रकारके सामयिक ( आत्मचितवन, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नाम, स्थापनाकी अपेक्षा ) का विवरण है। (२) मस्तक प्रकीर्णकमें तीर्थकरोंके जीवनकी पांच मुख्य ' ' बातों, उनके ३४ विशदवल, ८ प्रातिहार्य आदिका वर्णन है। (३) बन्दना प्रकीर्णकमें मंदिरों एवं अन्य उपासनाके स्थानों का वर्णन होता है। (४) प्रतिक्रमण प्रकीर्णकमें उन क्रियाओंका वर्णन है जो दिन रात पक्ष आदिके दोष दूर करनेके लिए आवश्यक हैं । एवं ईयांपथ आदिके दोष दूर करनेका कथन है। (५) विनय प्रकीर्णकमें ५ प्रकारकी विनय आदिका विव. रण कहा है। (६) कृतिकर्म प्रकीर्णकमें जिनभगवान, तीर्थकर भगवानकी पूजा उपासना आदिकी, और अहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, सर्व. साधु, जैन धर्म, जैन तीर्थकोंकी मूर्तियों, जिनवाणी, एवं जिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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