Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 139
________________ १२४ ] संक्षिप्त जैन इतिहांस प्रथम भाग | धर्मने समय समयपर स्वेडेन- नार्वे जैसे दूरस्थ देशोंतक अपना प्रकाश फैलाया था । \\\\\\\\\\\\\\\\\\\ इस प्रकार जैनधर्मकी शिक्षा बहुत ही गहन और गंभीर और उच्चकोटिकी है। उसमें आत्मा सम्बन्धी संपूर्ण प्रश्नोंको अतीव दार्शनिक रीतिमें वैज्ञानिक ढंगपर प्रतिपादन किया गया है। इसलिये संसार में वह अद्वितीय वैज्ञानिक ढंगका निराला मत है 1 आर्वेदिक मत जैनधर्म जब कि अपने ढंगका एक उत्कृष्ट मत है तब उसकी सभ्यता भी एक अतीव उच्चकोटिकी होगी। जैनधर्मके इस युगकालीन आदि प्रचारक श्री ऋषभदेवने ही इसलिये भारतीय आर्य सभ्यताकी जड़ जमाई थी। और उसका चित्र अधिकतर जैन साहित्य में ही मिल सकता है, क्योंकि उस अज्ञात समयकी कोई भी - सामग्री अब प्राप्त होना असंभव है । परन्तु उसी सभ्यता से संस्कारित हो जो पश्चात् में भगवान महावीर के समय के वा उनके पश्चात् के जो जैन स्तूप - भवन - मंदिर आदि मिलते हैं, उनसे उसकी उत्कृष्टताका भान हो जाता है। आय्यके आर्ष वैदिक मत जैनधर्मका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अब उनके सामाजिक राजनैतिक जीवनका चित्र इस प्रकारका होगा - कर्मभूमिके प्रारम्भमें जो आर्य्य बसते थे उन्हें अपने सांसारिक जीवनोपयोगी कर्तव्यों का भान नहीं था, क्योंकि उससे पहिले भोगभूमि मौजूद थी, जिसमें पुण्य प्रभाव कर सर्व भोगोपभोगकी सामग्री स्वतः ही एक प्रकार के उदार वृक्षोंसे मिल जाती थी। इसलिए भगवान ऋषभनाथने उनको असि, मसि कृषि, आदि दैनिक कृत्य बतलाए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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