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षष्ठम परिच्छेद ।
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[ १३१ पुस्तक में इनका समावेश न हो सके और न वह सब प्रकाशित ही किये जा सकें। इनका उन्नत प्रकाश विविध आचार्योंने अपने महत्वशाली ग्रन्थोंमें किया है वहांसे जानना चाहिये ।
जैनधर्म और जैन सभ्यताका दिग्दर्शन करके इस सभ्यता के समय के साधुओं पर एक नज़र डालते चलिये। भगवान ऋभने संसार से विरक्त नरनारियोंके लिए एक सधुसंघकी व्यवस्था की थी, उसमें चार कक्षाएं रक्खी थीं, अर्थात् मुनि संघ, आर्यिका संघ, श्रावक संघ और श्राविका संघ । मुनि संघमें नग्न दिगम्बर भेषधारी * निस्परिग्रह साधुजन एक एक आचार्यकी देखभाल में रह आत्मकल्याण किया करते थे । आर्यिका संघ में वह साध्वी स्त्रियां रहती थीं जो संसारसे उदासीन हो संसारसे कतई नाता तोड़ आई थीं। यह दुर्द्धर तपश्चरण आदि तपा करती थीं। यह श्वेत धोती धारण करती थीं, क्योंकि स्त्रीके लिए लज्जा का निवारण करना एक दुष्कर बात है । इसलिए वह स्त्रीभवके अतिरिक्त मोक्ष भी क्रमशः पा सकती थीं। तीसरे श्रावक संघ में वह
* साधुका यथार्थ प्राकृत मंत्र परमहंस नग्नावस्था ही है, क्योंकि स्वभावसे ही जीव जन्मते और मरते समय नग्न होता है । षभूषा कृत्रिम रूप है, इसलिए अपने स्वभावको पानेके इच्छुक मनुष्यको स्वाभाविक भेष में रहना लाजमी है। इस आधुनिक जमानेमें भी लोग इस बातका अनुभव करते हैं और वे नग्न रहते हैं जैसे जर्मनीका एक सभ्य सम्प्रदाय । औरंगजेब पादशाहके जमाने में एक मादरजात नंगे मुसलमान फकीरने बादशाहकी खिलअतको यह कहकर वापिस कर दिया था कि " जिसने तुमको बादशाही ताज दिया, उसीने हमको परेशानीका सामान दिया। जिस किसी में कोई ऐत्र पाया, उसको लिवास पहिनाया और जिनमें ऐब नहीं पाया उन्हें बरहना रहना बतलाया । "
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