Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 144
________________ षष्ठम परिच्छेद। [१२९ भी आजकल के विद्वान जिस ऋग्वैदिक समयकी सभ्यताका वर्णन करते हैं; उससे पूर्व भगवान ऋषभदेव हुए थे, इसलिए इस युगकालीन प्रारम्भिक जैन सभ्यताके उक्त दिग्दर्शनमें कुछ भी अन्योक्ति नहीं भसती; क्योंकि ऐसी ही वास्तविक विस्तृत सभ्यतासे ही अगाड़ी चलकर वैदिक सभ्यता अपना प्रथक् रूप धारण कर सकती थी।* उसपर यह मानी हुई बात है कि जो जाति सभ्यतामें चढ़ी बढ़ी होगी, वह साहित्य संसारमें भी अग्रसर होगी। हम आज भी जैन धर्मके अगाध साहित्यसे परिचित हैं। प्राकृत भाषामें मुख्यता जैन साहित्यकी है। संस्कृतमें भी अपरिमित उत्कृष्ट ग्रन्थ जैनियों के ही हैं। उसके मुख्य वैय्याकरणों में सर्व अग्रेसर एवं सर्व अधिक जैन ही हैं । तामिल और कनड़ी साहित्य भी जैन कवियोंकी सुललित मूल्यवान वाणीका ही फल है । साहित्य संसारमें उत्कृष्टता पाना तब ही संभव है, जब मनुष्य यथार्थ सम्यताकी उत्कृष्टताको पहुंच चुका हो । जैन सभ्यतामें सब बातें सुनियमित थीं, इसीसे उसमें आर्थिक चिन्ताकी विशेष आकुलत मनुष्यको नहीं सताती थी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वाधीनताका ध्यान जैन सम्यतामें एक गोचरणीय विषय है, इसी लिए उसमें प्रत्येक वर्णके लिए अपनी स्थिति के अनुसार धर्माचरण करनेका द्वार खुला हुआ है। उसकी सम्यताकी पराकाष्ठा इससे भी विदित है कि उस समयके मनुष्योंने _____ *मोहनजोदडो व हरप्पाके पुरातत्वसे वैदिक सभ्यतासे निराली प्राचीन द्राविड सभ्यताका अस्तित्व प्रमाणित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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