Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ !!! संक्षिप्त न इतिहास प्रथम भाग । किस न मूलचन्द प्रकाशक कापडिया भवन रा.स दिगम्बर धी चाक का पंडिया पुस्तकालय कामताप्रसाद जैन M. R. A.S. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीराय नमः। संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। लेखकः श्री. बाबू कामताप्रसादजी जैन, M. R. A. S. ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, संपादक-'वीर' और 'जैन सिद्धान्त भास्कर' तथा भ० महावीर ___ भ. पार्श्वनाथ, भ० महावीर व बुद्ध आदि अनेक ऐतिहासिक जैनग्रंथोंके रचयिता-अलीगंज (एटा) प्रकाशक : . मूलचन्द किमनदास कापडिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापड़ियाभवन-मूरत । दूसरो आवृत्ति कार्तिक, वीर सं० २४७० [प्रति ४०० "जैनविजय' प्रिन्टिंग प्रेस-मुग्तमें मूलचन्द किमनदास कापडियाने मुद्रित किया। मूल्य–एक रुपया दो आना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलचन्द किसनदास का पडिया . जैन- विजय प्रेस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www निवेदन । सुप्रसिद्ध जैन ऐतिहासिज्ञ श्री० बा० कामताप्रसादजी जैन कृत यह संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग हमने १८ वर्ष हुए प्रकट करके "दिगम्बर जैन" के १९ वें वर्ष के ग्राहकों को भेटमें बांटा था व उसकी कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली थीं जो चार पांच वर्ष हुए खतम हो जानेसे इसकी मांग आती ही रहती है; क्योंकि इसके दूसरे तीसरे भाग के ५ खंड प्रकाशित हो चुके हैं, उनके साथ प्रथम भाग सव ही मंगाते हैं और वह न होनेसे पाठकों को बड़ी कठिनाई हो रही थी इसलिये इसकी यह दूसरी आवृत्ति कागज़के दुष्कालके समय में भी हमने प्रकट करना उचित समझा है ' इसवार इसमें उचित संशोधन भी श्री० बा० कामताप्रसादजीने कर दिया है, अतः आपके हम अत्यन्त आभारी हैं। क्योंकि आप अपनी सभी रचनायें निस्वार्थवृत्तिसे ही कर रहे हैं । और रात दिन जैन साहित्य सेवामें संलग्न रहते हैं । धन्य है आपकी इस साहित्यसेवाको ! निवेदक: मूलचन्द किसनदास कापड़िया, प्रकाशक । सुरत, चीर सं० २४७० कार्तिक सुदी १ त्ता. २९-१०-४३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = दूसरा संस्करण। “संक्षिप्त जैन इतिहास" के प्रथम भागका यह दूसरा संस्करण पाठकोंको भेंट करते हुये हमें हर्ष है। इस अन्तरालमें इस 'इतिहास' के पाँच भाग वा खंड प्रकाशित हो चुके हैं; किन्तु अभी मध्यकालीन जैन इतिहास भी पूरा नहीं होपाया है। उस पर मजा यह है कि यह सब भाग संक्षेपमें लिखे गये हैं। अतः विज्ञ पाठक अनुमान कर लीजिथे कि विस्तृत जैन इतिहासकी रचना कितनी परिश्रमसाध्य और विशद है। अकेला एक व्यक्ति उसकी पूर्ति नहीं कर सकता। व्यक्तिगत प्रयासका परिणाम यह “संक्षिप्त जैन इतिहास" है, जिसके ५ भाग प्रगट होचुके हैं और कई अभी प्रगट होना शेष हैं। इस भागमें प्राङ्ग ऐतिहासिककालीन जैन महापुरुषों और जैनधर्मका वर्णन है। यह वर्तमान इतिहासको कालपरिधिसे पूर्वका विषय है; परन्तु वह समय भी शायद आवे जब हमारे भारतीय विद्वानोंके गवेषणात्मक अन्वेषणोंसे भारतीय इतिहासकी रूपरेखा बदल जावेगी और उसका आदि काल भूतकी गहनतामें दूर-दूर चमकता नज़र आयगा! तब जैन मान्यतानुसार लिखित यह इतिहास अपने महत्वको प्रगट कर सकेगा। मित्रवर कापड़ियाजी यह दूसरा संस्करण कागजके इस अकारके समयमें निकाल रहे , इसलिए उन्हें वधाई है। इस संस्करणको हमने पुनः तो नहीं लिखा है, जैसी हमारी इच्छा थी; परन्तु इसका काफी संशोधन कर दिया है। अतः पाठक इसे उपयोगी पायेंगे। इत्यलम् अलीगंज, । ता० १-१०-४३. विनीतकामताप्रसाद जैन। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार । प्रिय पाठकवृन्द ! 1 जैन जातिका इतिहास जितना विशद और फिर तितर-बितर है, उसको देखते हुये इस 'संक्षिप्त' रूपमें उसके पूर्ण दर्शन पाना अशक्य ही है । तौभी इस संक्षिप्त संस्करण से यदि आप लाभ उठायेंगे तो अवश्य ही हम अपने प्रयत्नको सफल समझेंगे । वस्तुतः समाजोत्थान के कार्य में उस समाजका इतिहास विशेष कार्यकारी होता है अतएव इससे समाजको लाभ पहुंचना बिलकुल संभव है । अस्तु । I इस 'संक्षिप्त इतिहास' के संकलनमें जिन श्रोतों से हमने सहायता ग्रहण की है, उन सबके प्रति हार्दिक आभार स्वीकार करना आवश्यक है । तथा जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने इसकी लिखित कापीको पढ़कर हमें उचित सम्मतियाँ प्रदान की थीं, उनके लिये हम आपके विशेष आभारी हैं अथवा इसी सम्बन्धमें हम अपने प्रिय मित्र श्रीयुत् प्रोफेसर हीरालालजी जैन एम. ए. एलएल. बी. को नहीं भूल सकते हैं । आपने हमारे कहने पर इस पुस्तककी भूमिका लिखी है; जिसके लिए हम विशेष रीतिसे आपको हार्दिक धन्यवाद समर्पित करते हैं । सचमुच आपसे समाजको बड़ी आशायें हैं। श्री मा० दि० जैन परिषद् के प्रस्तावानुसार आप एक विशद जैन इतिहास तैयार करनेके कार्य में संलग्न हैं ? हमारी भावना है कि वह दिन शीघ्र आए जब आपद्वारा प्रणीत 'विशद इतिहास' समाजके हाथों में हो और वह उससे पूर्ण लाभ उठावे । एवम् भवतु ! इति शम् ! आपका --: हैदरावाद (सिंघ ) १-३-१९२६. - कामताप्रसाद जैन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com } Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भूमिका - ( प्रो० हीरालालजी ) २- प्रस्तावना विषय-सूची । - जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता । 1 ऐतिहासिक कालके पहले जैनधर्म क्या जैनी भारतके मूल निवासी थे ? जैन दर्शन, आर्य दर्शन है व जैनी आर्य हैं पूर्वी आर्य म्लेच्छ और प्राचीन आर्य । वेदों में यज्ञ विषय पहले नहीं था । आर्य व अनार्य । भारतकी जातियां, भाषाएं, धर्म । इतिहासकी आवश्यकता | जैन इतिहासके काल - विभाग । 1 ३ - पहला परिच्छेद जैन भूगोलमें भारतवर्षका स्थान | भारतवर्षका संक्षिप्त विवरण । ४- द्वितीय परिच्छेद ... ... ... ७- पंचम परिच्छेद आपवेद अर्थात् द्वादशांग वाणी । ८- षष्ठम परिच्छेद ... भारतकी जन संख्या । भारतकी प्राचीन अर्वाचीन आकृति । भारत के प्राचीन प्रदेश व नगर । ... ५- तृतीय परिच्छेद भगवान ऋषभदेव और कर्मभूमिको प्रवृत्ति । ६-चतुर्थ परिच्छेद– अवशेष तीर्थङ्कर और अन्य महापुरुष । : ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ... ... भरतक्षेत्रमें समयचक्र और भोगभूमिका काल | ... ... ... ... ... ... ... :: ... ... 400 : ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... : : ... आपवैदिक धर्म अर्थात् जैनधर्म और उसकी सभ्यता - 144 [ ७ ] १० १३ १५ १७ १८ २५ २७ ३१ ३२ ३४ ३६ ३८ ३९ ३९ ૪૪ ५८ ८१ १०१ ९१४ www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका। - इतिहासकी आवश्यक्ता। जिस प्रकार किसी व्यक्तिविशेषकी मान-मर्यादाके लिये उसकः पूर्ववृत्तान्त जानना आवश्यक है, उसी प्रकार किसी देश व समाजको वर्तमान समारमें सन्मान प्राप्त करने के लिये अपना इतिहास उपस्थित करनेको आव. श्यक्ता है । एक विद्वानका कथन है कि भारतवर्षकी संसारमें आज जो कदर होना चाहिये वः इसी कारणसे नहीं होती कि संमारको इस देशके सच्चे और गौरवपूर्ण इतिहासका पता नहीं है । यह उक्ति जैन धर्मके विषयमें और भी विशेषरूपले घटित होती है । संसारकी विद्वत्समाजमें जो आज जैनधर्मके विषयमें अनेक भ्रमपूर्ण कल्पनायें और मत फैले हुए हैं उनका मूल कारण यही है कि अभीतक जैन धर्मका सच्चा इतिहास संसारके सन्मुख नहीं रक्खा गया । जबतक यह कमी सुचारुरूपसे पूरी नहीं की जायगी तबतक न तो उन भ्रमपूर्ण कल्पनाओंका निराकरण हो सक्ता है और न जैनधर्मका गौरव संसारमें बढ़ सक्ता है । प्रमाणिक इतिहासके साधन । ____एक समय था जब मनुष्योंकी ऐतिहासिक लालसा किसी प्रकारकी भी दैवी व मानुषी घटनाओं के पढ़ने सुननेसे तृप्त हो जाती थी, पर आजकल इतिहासका अर्थ कुछ और ही होगया है । आजकल केवल वे ही घटनायें इतिहास क्षेत्रमें मान्य होसक्ती हैं जो प्राकृतिक नियम व मानवीय युक्तिके अविरुद्ध होती हुई निम्नलिखित आधारों द्वारा अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करती हैं: १-तात्कालिक शिलालेख, ताम्रपत्र, मुद्रा आदि । २-सामयिक ग्रन्य। ३-पुरातत्व सकधी वंसावशेष । .. ४-कुछ समय पीछेके शिमलादि व अन्यादि। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] . उक्त चार प्रकारके साधन ही आजकल इतिहास निर्माणके उपयुक्त साधन गिने जाते हैं। इन साधनोंकी यथोचित ऊहापोहके पश्चात् जो इतिहास तैयार किया जाता है वही सर्वतः मान्य होता है । इन चार साधनोंमें भी क्रमशः ऊपर ऊपरवाला साधन अपनेसे नीचेवाले साधनसे अधिक बलवान प्रमाण गिना जाता है । इतिहासातीत काल। ___ भारतवर्षके प्राचीन इतिहासके लिये विक्रम सम्वतके चार पांचसौ वर्ष पूर्वसे इस तरफके लिये तो उपर्युक्त चारों प्रकारके साधन थोडे बहुत प्रमाणमें उपलब्ध हुए हैं, पर इससे पूर्वके इतिहासके लिये इन सब साधनोंके अभावमें हमें केवल प्राचीन ग्रन्थों का ही सहाग लेना पडता है । इसीलिये वैज्ञानिक इतिहासकार इस कालको इतिहासातीत काल कहते हैं । जैन पुराणोंकी प्रमाणिकता। ___जैनधर्मका सर्वमान्य इतिहास श्री महावीरस्वामीके समयसे व उससे कुछ पूर्वसे प्रारम्भ होता है। इससे पूर्वके इतिहासके लिये एक मात्र सामग्री जैनधर्मके पुराण ग्रन्थ हैं । इन पुराण ग्रन्थोंके रचनाकाल और उनमें वर्णित घटनाओं के कालमें हजारों, लाखों, करोडों नहीं अरबों, खर्वो वर्षों का अन्तर है । अतएव उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस बातपर अवलंबित है कि. वे कहांतक प्राकृतिक नियमोंके अनुकूल, मानवीय विवेकके अविरुद्ध व अन्य प्रमाणोंके अप्रतिकूल घटनाओं का उल्लेख करते हैं। यदि ये घटनाय. प्रकृति विरुद्ध हों, मानवीय बुद्धिके प्रतिकूल हों व अन्य प्रमाणोंसे बाधित हों तो वे धार्मिक श्रद्धाके सिवाय किसी आधारपर विश्वसनीय नहीं मानी जा सकतीं, पर यदि वे उक्त नियमों और प्रमाणोंसे बाधित न होती हुई पूर्वकालका युक्तिसंगत दर्शन कराती हों तो उनकी ऐतिहासिकतामें भारी संशय करने का कोई कारण नहीं हो सकता । जिन इतिहासविशारदोंने जैन पुराणों का अध्ययन किया है उनका विश्वास उन पुराणोंकी निनलिखित तीन बातोपर प्रायः नहीं जमता: १-पुग णोंके अत्यन्त लम्बे चौडे समर्य विभागोंपर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-पुराणों में वर्णित महापुरुषों के भारी भारी शरीर मापोंपर व उनकी · दीर्घातिदीर्घ आयुपर । ३-कालके परिवर्तनसे भोगभूमि ब कर्मभूमिकी रचनाओं के परिवर्तनपर। 'पल्य' और 'सागर' के मापोंकी यथार्थता। जैन पुराणोंमें अरबों खा ही नहीं पल्य और सागरों (आधुनिक संख्यातीत ) वर्षोंके माप दिये गये हैं। इनको पढ़कर पाठकोंकी बुद्धि थकित हो जाती है और वे झट इसे असंभव कहकर अपने मनके बोझको हल्का कर डालते हैं, पर विषयपर निष्पक्षतः बुद्धिपूर्वक विचार करनेसे इन मापोंमें कुछ असम्भवनीयता नहीं रह जाती । ___यह सभी जानते हैं कि समयका न आदि है और न अन्त । वैज्ञानिक शोध और खोजने यह भी सिद्ध कर दिया है कि इस सृष्टि के प्रारम्भका कोई पता नहीं है और न उसमें मनुष्य जीवनके इतिहास प्रारम्भका ही कुछ कालनिर्देश किया जासक्ता है । सन् १८५८ ईस्वीके पूर्व पाश्चात्य विद्वानों का मत था कि इस पृथ्वीपर मनुष्यका इतिहास आदिसे लेकर अब तकका पूरा २ ज्ञात है, क्योंकि 'बाइबिल' के अनुसार सर्व प्रथम मनुष्य ‘आदम' की उत्पत्ति ईमासे ४००४ वर्ष पूर्व सिद्ध होती है। पर सन् १८५८ ईस्वीके पश्चात् जो भूगर्भ विद्यादि विषयोंकी खोज हुई है उससे मनुष्यकी उक्त समयसे बहुत अधिक पूर्व तक प्राचीनता सिद्ध होती है। अब इतिहासकार ४००४ ईस्वी पूर्वसे भी पूर्वकी मानवीय घटनाओंका उल्लेख करते हैं। मिश्रदेशकी प्रसिद्ध गुम्मटों (Pyramids). का निर्माण काल ईस्वीसे पांच हजार वर्ष पूर्व अनुमान किया जाता है। शाल्दिया (Chaldea) देशमें ईसासे छह सात हजार वर्ष पूर्वकी मानवीय सभ्यताके प्रमाण मिले है । चीन देशकी सभ्यता भी इतनी ही व इससे अधिक प्राचीन सिद्ध होती है । अमेरिका देशमें पुरातत्व शोधके सम्बन्धमें जो खुदाईको काम हुआ है उसका भी यही फल निकला है। हालहीमें भारतवर्षके पंजाब और सिन्ध प्रदेशोंके 'हरप्पा' और 'मोयनजोडेरो' नामक स्थानोंपर खुदाईसे जो प्राचीन वंसावशेष मिले हैं वे भी ईसासे भाठ दस हजार वर्ष पूर्वक अनुमान किये जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ये सत्र प्रमाण भी हमें मनुष्यके प्रारम्भिक इतिहासके कुछ भी समीप - नहीं पहुंचाते, वे केवल यही सिद्ध करते हैं कि उतने प्राचीन कालमें भी मनुष्य अपार उन्नति करली थी, ऐसी उन्नति जिसके लिये उन्हें हजारों -लाखों वर्षोंका समय लगा होगा । अब चीन, इजिप्त, शाल्दिया, इंडिया, अमेरिका किसी ओर भी देखिये इतिहासकार ईसासे आठ२ दश २ हजार वर्ष पूर्वकी मानवीय सभ्यताका उल्लेख विश्वास के साथ करते हैं। जो समय कुछ काल पहले मनुष्यकी गर्भावस्थाका समझा जाता था वह अब उसके गर्भका नहीं, बचाना भी नहीं, प्रौढ़ कालका सिद्ध होता है । जितनी खोज होती जाती हैं उतनी ही अधिक मानवीय सभ्यताकी प्राचीनता सिद्ध होती जाती है । कहां है अब मानवीय सभ्यताका प्रातःकाल ? इससे तो प्राचीन टोमन हमारे समसामयिक से प्रतीत होते हैं, यूनानका सुवर्ण-काल कलका ही समझ पडता है । मिश्रके गुम्मटकारों और हममें केवल थोडेसे दिनों का ही अन्तर पडा प्रतीत होता है । मनुष्यकी प्रथमोत्पत्तिका अध्याय आधुनिक इतिहास हीसे उड गया है। ऐसी अवस्था में 'जैन पुराणकार मानवीय इतिहासके विषयमें यदि संख्यातीत वर्षोंका उल्लेख करें तो इसमें आश्वर्यकी बात ही क्या है ? इसमें कौनसी असम्भाव्यता है ? पुरातत्वज्ञों का अनुभव भी यही है कि मानवीय इतिहास संख्यातीत वा पुराना है । दीर्घ शरीर और दीर्घायु । दूसरा संशय महापुरुषों के शरीर माप और उनकी दीर्घातिदीर्घ आयुके विषयका है । जो कुछ आजकल देखा सुना जाता है उसके अनुसार - सैकड़ों हजारों धनुत्र ऊंचे शरीर व कोडाकोडी वर्षोंकी आयुपर एकाएकी विश्वास नहीं जमता । इस विषय में मैं पाठकोंका ध्यान उन भूगर्भ शास्त्रकी गवेषणाओंकी ओर आकर्षित करता हूं जिनमें प्राचीन कालके बडे २ शरीरधारी जन्तुओंका अस्तित्व सिद्ध हुआ है । उक्त खोजोंसे पचास २ साठ २ फुट लम्बे - प्राणियों के पाषाणावशेष ( Possils) पाये गये हैं। इसने कम्चे क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] अस्थिपञ्जर भी मिले हैं। जितने अधिक दीर्घकाय ये अस्थिपंजर के पाषाणावशेष होते हैं वे उतने ही अधिक प्राचीन अनुमान किये जाते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि पूर्वकालमें प्राणी दीर्घकाय हुआं करते थे। धरे २ उनके शरीरका ह्रास होता गया। यह ह्रास-क्रम अभी भी प्रचलित है । इस नियमके अनुसार जितना अधिक प्राचीनकालका मनुष्य होगा उसे उतना ही अधिक दीर्घ काय मानना न केवल युक्तिसङ्गत ही है किन्तु आवश्यक है । प्राणिशास्त्रका यह नियम है कि जिस जीवका जितना भारी शारीरिक परिमाण होगा उतनी ही दीर्घ उसकी आयु होगी। प्रत्यक्षमें भी हम देखते हैं कि सूक्ष्म जीवोंकी आयु बहुत अल्पकालकी होती है। जन्मके थोड़े ही समय पश्चात् उनका शरीर अपने उत्कृष्ट परिमाणको पहुंच जाता है और वे मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं। जिस २ प्राणीका शरीर बढता जाता है उसकी आयु भी उसीके अनुसार बढती जाती है। हाथी सब जीवोंमें बड़ा है इससे भी उसकी आयु सब जीवोंसे बडी है। वनस्पतियोंमें भी यही नियम है । जो वृक्ष जितना अधिक विशालकाय होता है उतने ही अधिक समय तक वह फूलता फलता है। वटवृक्ष सब वनस्पतियोंमें भारी होता है। अतएव उसका अस्तित्व भी अन्य सब वृक्षोंकी अपेक्षा अधिक कालतक रहता है । अतएव यह प्रकृतिके नियमानुकूल व मानवीय ज्ञान और अनुभवके विरुद्ध ही है, जो जैन पुराण यह प्रतिपादित करते हैं कि प्राचीनकालके अति दीर्घकाय पुरुषोंकी आयु अति दीर्घ हुआ करती यी, इसके विरुद्ध यदि जैन पुराण यह कहते कि प्राचीनकालके मनुष्य दीर्घकाय होते हुए अल्पायु हुआ करते थे या अल्पकाय होते हुए दीर्घायु हुआ करते थे तो यह प्रकृति विरुद्ध और अनुभव प्रतिकूल बात होनेके कारण अविश्वसनीय कही जा सकती थी। भोगभूमि और कर्मभूमि । तीसरा शंकास्पद विषय भोगभूमि और कर्मभूमिके विपरीत वर्तनका है। जैन पुगणोंमें कथन है कि पूर्वकालमें इसी कालमें इसी क्षेत्रके निवासी मुखसे बिना श्रमके कालयापन करते थे। उनकी सब प्रकास्की आवश्यShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] कतायें कल्पवृक्षोंसे ही पूरी होजाया करती थीं। अच्छे और बुरेका कोई भेद नहीं था। पुण्य और पाप दोनों भिन्न प्रवृत्तियां नहीं थीं। व्यक्तिगत संपत्तिका कोई भाव नहीं था । 'मेरा' और 'तेरा' ऐसा भेदभाव नहीं था। यह अवस्था भोगभूमिकी थी। क्रमशः यह अवस्था बदली । कल्पवृक्षोंका लोप होगया। मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये श्रम करना पडा । व्यक्तिगत संपत्तिका. भाव जागृत हुआ। कृषि आदि उद्यम प्रारम्म हुए । लेखन आदि कलाओंका प्रादुर्भाव हुआ, इत्यादि । इस प्रकार कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ। शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस भोगभूमिके परिवर्तनमें कई अस्वाभाविकता नहीं है। बल्कि यह आधुनिक सभ्यताका अच्छा प्रारम्भिक इतिहास है । जिन्होंने सुवर्णकाल (Golden age) के प्राकृतिक जीवन (Life according to Nature) का कुछ वर्णन पढ़ा होगा वे समझ सकते हैं कि उक्त कथनका क्या तात्पर्य हो सकता है । आधुनिक सभ्यताके प्रारम्भ कालमें मनुष्य अपनी सब आवश्यकताओंको स्वच्छन्द बनजात वृक्षों की उपजसे ही पूर्ण कर लिया करते थे। वस्त्रोंके स्थानमें बल्कल और भोजनके लिये फलादिसे तृप्त रहनेवाले प्राणियों को धनसम् त्तिसे क्या तात्पर्यता ? सबमें समानताका व्यवहार था । मेरे और तेरेका भेदभाव नहीं था। क्रमशः आधुनिक सभ्यताके आदि धुरधरोंने नानाप्रकारके उद्यम और कलाओंका आविष्कार कर मनुष्यों को सिखाया। जन पुगणों के अनुसार इस सभ्यताका प्रचार चौदह कुलकरों द्वारा हुआ। सबसे पहले कुलकर प्रतिश्रुतिने सूर्य चन्द्रका ज्ञान मनुष्यों को कराया । इस प्रकार वे ज्योतिष शास्त्रके आदि आविश्कर्ता ठहरते हैं। उनके पीछे सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंधरादि हुए. जिन्होंने ज्योतिष शास्त्रका ज्ञान बढाया, अन्य कलाओंका अविष्कार किया व सामाजिक नियम दण्ड विधानादि नियत किये। जैन पुराणोंने इस इतिहासको, यदि विचार किया जाय, तो सचमुच बहुत अच्छे प्रहारसे सुरक्षित रक्खा है। धर्मके संस्थापक । . . . . कुलकरों के पश्चात् ऋषभदेव. हुंए जिन्होंने धर्मकी संस्थापना की। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनका स्थान जैसा जैन पुगणोंमें है वैसा हिन्दू पुराणोंमें भी पाया जाता है। वहाँ भी वे इस सृष्टिके आदिमें स्वयंभू मनुसे पांचवी पीढीमें हुए बतलाये गये हैं और वे ईशके अवतार गिने जाते हैं। उनके द्वाग धर्मका जैसा प्रचार हुआ उसका भी वहां वर्णन है। जैन पुराणों में कहा गया है कि ऋषभदेवने अपनी पुत्री 'ब्राह्मी' के लिए लेखनकलाका आविष्कार किया । उन्हींके नामपरसे इस आविष्कृत लिपिका नाम 'ब्राह्मी लिपि' पडा । इतिहासज्ञ ब्राह्मी लिपिके नामसे भलीभांति परिचित हैं । आधुनिक नागरी लिपिका यही प्राचीन नाम है । ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्रका नाम भरत था जो आदि चक्रवर्ती हुए। भरत चक्रवर्ती का नाम हिन्दू पुगणोंमें भी पाया जाता है, यद्यपि उनके वंशका वर्णन वहाँ कुछ भिन्न है। इन्हीं भरतके नामसे यह क्षेत्र भारतवर्ष कहलाया। हिन्दू पुगणोंमें ऋषभदेवके पश्चात् होनेवाले तीर्थंकरोंका उल्लेख अभीतक नहीं पाया गया, पर जैन ग्रन्थोंमें उन सब पुरुषों का चरित्र वर्णित है जिन्होंने समय २ पर ऋषभदेव द्वारा स्थापित धर्मका पुनरुद्धार किया। ज्यों २ हम ऐतिहासिक कालके समीप आते जाते हैं क्यों २ जैनधर्मके उद्धारकोंका परिचय अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध होने लगता है । २२ वें तीर्थकर नेमिनाथके विषयकी अनेक घटनाओंका समर्थन हिन्दू पुगणोंसे सिद्ध होता है । तेईसवें तीर्थकर णर्श्वनाथ तो अब ऐतिहासिक व्यक्ति माने ही जाने लगे हैं, इनके जीवन के सम्बन्धमें नागवंशी राजाओंका उल्लेख आता है। इस वंशके विषय पर ऐतिहासिक प्रकाश पडना प्रारम्भ हुआ है । चौवीसवे तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामीका समय तो जैन इतिहासकी कुजी ही है । वैज्ञानिक इतिहासने धीरे धीरे महावीरकी ऐतिहासिकता स्वीकार कर क्रमसे पार्श्वनाथ तक जैनधर्मकी शृखला ला जोडी है। आश्चर्य नहीं, इसी प्रकार वैज्ञानिक शोधसे धीरे २ अन्य तीर्थकरोंके समयों पर भी प्रकाश पडे। जन भूगोल । भारतवर्षका जो भूगोल सम्बन्धी परिचय जैन पुराणों में दिया है वह भी स्थूल रूपसे आजकलके ज्ञानके अनुकूल ही है। भरतक्षेत्र हिमवत् पर्वतसे दक्षिणकी ओर स्थित है। इसकी दो मुख्य नदियां हैं-गंगा और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] सिन्धु ॥ ये दोनों नदियां हिमवत पर्वतपरके एक ही 'पद्म' नाम सरोवरसे निकलती हैं । गंगा पूर्वकी ओर वहती हुई पूर्वीय समुद्रमें गिरती है और सिन्धु पश्चिमकी ओर वहती हुई पश्चिम समुद्रमें गिरती है । कुलकरों और तीर्थकरों का जन्म गंगा और सिन्धुके बीचके प्रदेशोंमें ही हुआ था। यह वर्णन किसी प्रकार गलत नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत ग्रन्थ । ___ इस थोडेसे विशदीकरणके साथ मैं इस — संक्षिप्त जैन इतिहास' को सहर्ष पाठकोंके हाथमें देता हूं। यदि इस स्पष्टीकरणको ध्यानमें रखकर पाठक इस पुस्तकको पहेंगे तो मुझे आशा है कि वे इसका इतिहासकी दृष्टिसे आदर करेंगे । लेखकने इसे अच्छे परिश्रमसे लिखा है । लेखककी प्रस्तावना ध्यानपूर्वक पढ़नेयोग्य है । भारी आवश्यकता। यह जैनियों के पूर्ववर्ती काल का इतिहास संकलित होगया । अव ऐतिहासिक कालके अर्थात् श्री महावीरस्वामीसे लगाकर अबतकके इतिहास संकलनकी बड़ी भारी आवश्यकता है। यह कार्य बडे ही महत्व, पर साथ ही बडे ही परिश्रमका है। इसके लिये केवल एक व्यक्ति का प्रयास सर्वथा पर्याप्त नहीं है। इस कार्यमें भारतके सभी इतिहासप्रेमियों विशेषतः जैन इतिहासके रुचियों को पूरा २ योग देना चाहिये। सबसे प्रथम भिन्न भिन्न प्रान्तोंमें भिन्न २ शताब्दियोंमें जैनियोंकी राजनैतिक सामाजिक धार्मिक आदि परिस्थितियोंपर खोजपूर्ण ऐतिहासिक निवन्ध लिखे जाना चाहिये। इस प्रकार जब विषयकी पूरी २ छानबीन हो जाय तब ही सन्तोषप्रद इतिहास संकलित किया जा सकता है। यदि इतिहास-प्रेमियोंने इस ओर ध्यान दिया तो यह कार्य भी शीघ्र ही पूरा हो जायगा । ___ अमरावती इतिलं विबुधेबुकिंग एडवर्ड कॉलेज १४ जनवरी १९२६ । -हीरालाल जैन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः। संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। प्रस्तावना (द्वितीयावृत्तिकी संशोधित) जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता। जैनधर्म अथवा जैन जातिकी ऐतिहासिक प्राचीनताके विषयमें यदि कोई निश्चयात्मक बात कही जा सकती है तो वह यह होगी कि जितनी ही ऐतिहासिकता भारतवर्षके ऐतिहासिक कालकी सिद्ध होती बायगी उतनी ही जैनधर्मकी प्राचीनता प्रगट होगी, कारण कि भारतके प्राचीनकालमें जैनधर्मके अस्तित्वकी प्रधानता रही है। वर्तमानमें जिसप्रकार मारतवर्षका ऐतिहासिक काल ईसासे पूर्व ६०-७०० वर्षसे ही नहीं बल्कि श्रीकृष्णजीके समय अर्थत् ई - पूर्व ३-४ हजार वर्षोंसे प्रारम्भ होता है उसी प्रकार जैन इतिहासकी कालगणना समझना चाहिए। यपि एक दृष्टिसे जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्रमाणता ईसासे पूर्व लगभग ५-६ हजार वर्ष तक बढ़ जाती है क्योंकि आधुनिक खोजने सिधुकी उपत्ययकामें प्राप्त पुरातत्वमें इस प्रकारकी साक्षी उपलब्ध की है। वहांकी ना मूर्तियां नैनोंके समान हैं और वहाँकी एक मुद्रा पर प्रो० प्राणनामले चिनेन्द्र' शब्दहा है। अतः जैनधर्मकी प्राचीनता भारतके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । CLUB ISSUIN अनन्त अतीत में विलीन मिलती है। इसीलिए आधुनिक दृष्टिसे एक विशेष विश्वसनीय जैन इतिहास बहुत पहले नहीं तो ईसासे पूर्व की ९ वीं शताब्दिसे प्रारम्भ हुआ मानना उपयुक्त है । CH उधर यह स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथके पूर्वगामी तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथजी अर्जुनके मित्र और गीताके श्रीकृष्णके समकालीन थे । जैन गणना के अनुसार वह भगवान पार्श्वनाथसे ८४००० वर्ष पहिले हुए कहे जाते हैं। इनका उल्लेख यजुर्वेद अध्याय ९ मंत्र २५ में है । इनसे भी पूर्वके तीर्थङ्करीका वर्णन वेदों एवं अन्य हिन्दू पुराणों में आया है, जैसे भागवत पुराण में जैनधर्मके इस युगकालीन संस्थापक श्री ऋषभनाथजीको आठवां अवतार माना है और १३ वें अवतार वामनका भी उल्लेख वेदोंमें है । इसलिये इन सर्व बार्तोसे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्मका अस्तित्व वेदोंके निर्मित होनेके पहिलेसे है । और पाश्चात्य विद्वानों में सर्व अन्तिम सम्मति "इन्सायक्लोपेडिया ऑफ रिली-: जन एण्ड ईथिक्स" के भाग ७ पृष्ठ ४७२ की से इस विषय की पुष्टि होती है, क्योंकि वहां पर बतलाया गया है कि कर्मसिद्धान्त में व्यवहृत आश्रव और संचरका यथार्थ शब्दार्थ जैनधर्मसे इन शब्दोंका प्रगट है. एवं अन्य किसी धर्ममें वह अपने असली शब्दार्थ में व्यवहृत नहीं हुए हैं। इसके अतिरिक्त मेजर जेनरल जे० जी० आर० फरलॉन एफ. आर. एस. ई., एफ. आर. ए. एस., एम. ए. डी. आदि आदिने अपने १७ वर्षके लगातार अन्वेषणके पश्चात् प्रगट किया है कि " ईसासे पहिले २५०० से ८०० वर्षतक, बल्कि अज्ञात समयसे, उत्तरीय, पश्चिमी और उत्तरी- मध्य भारत तूरानियोंके " जिनको खासानीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। ......... [३ लिये द्राविड़ कहा गया है " राज्यशासनमें था, और वहां वृक्ष, सर्प और लिङ्ग पूजाका प्रचार था, किन्तु उस समयमें भी उत्तरीय भारतमें एक प्राचीन और अत्यन्त संगठित धर्म प्रचलित था, जिसका सिद्धान्त सदाचार और कठिन तपश्चरण उच्च कोटिका था, अर्थात् जैनधर्म जिसमेंसे ब्राह्मण और बौद्धधर्मके पुराने तपस्वियोंके आचार स्पष्टतया उद्धृत किये गये हैं। (देखो-" Short Studies in the Science of Comparative Religion pp. 243-244.") फिर प्रो० बील और सर हेनरी रोलिन्सन प्रमाणित करते हैं कि म० बुद्धके द्वारा बौद्धधर्मकी उत्पत्ति होनेके बहुत पहिले मध्य ऐशिया में एक ऐसा धर्म प्रचलित था जो बौद्धधर्मसे मिलता जुलता था । जैनधर्मकी बौद्धधर्मसे सदृश्यता सर्वप्रगट ही है। इसलिए यह जैनधर्म होना संभवित है। . इसके अतिरिक्त यदि हिंदू शारोंका और अध्ययन किया जाय तो उनसे बराबर जैनधर्मके अस्तित्वका पता चलता है। हिंदुओंके निकट वेद ही प्राचीन ग्रन्थ हैं। उनमें भी जैन महापुरुषों का उल्लेख उपलब्ध है। यह प्रायः सर्वमान्य है कि जैनियोंके आप्तदेव · अईत' अथवा 'अर्हन्' नामसे प्रसिद्ध हैं। बौद्धोंने भी इस शब्दका व्यवहार किया है, किन्तु आप्तदेवके स्वरूपमें बौद्धोंने इस शब्दका प्रयोग नहीं किया है। एक खास तरह के साधुओंको बौद्ध अर्हत' कहत हैं।' अतः बैनी ही अपने आप्तदेवको ‘अर्हत् ' कहकर पुकारते हैं। इन्हीं १-इंडियन हिस्टारोकल कार्टरलो भा० ३ पृष्ठ ४७३-४७५- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। 'अन्' का उल्लेख "ऋग्वेदसंहिता" (अ० २ व०१०) में हुआ है।' कालीदासकृत हनूमान नाटक' में (अ. १ श्लोक ३ ) लिखा है कि 'अन्' जैनियों के उपासनीय देव हैं। 'ऋवरसंहिता' (१०१३६-२) में आगे 'मुनयः वातवमना: ' रूपमें दिगम्बर जैन मुनियों का उल्लेख मिलता है । डॉ० अल्वेट वेबरने यह वेद वाक्य जैन मुनियों का द्योतक बताया है। ऋषम, सुपै.श्व, नमि' आदि नाम भी ऋग्वेद और यजुर्वेदमें मिलते हैं। यह नाम जैन तीर्थंकरोंके हैं। प्रत्युत चौवीस तीर्थरोंका उल्लेख भी उन वेदों में मिलता है। ऋग्वेदमें ऐसे श्रमणोंका भी रल्लेख है, जो यज्ञों में होनेवाली हिंसाका विरोध करते थे। जैनधर्म हिंसक यज्ञोंका विरोधी रहा है। अत: इन उल्लेखोंसे वैदिक कालके समय जैनधर्मका अस्तित्व सिद्ध होता है। वेदोंके उपरोक्त उल्लेखोंके विषयमें कहा जाता है कि निरुक्त और भाष्यसे उनका जैन सम्बन्ध प्रगट नहीं है, किन्तु यह याद रखनेकी बात है कि उपलब्ध वेद भाष्य आदि प्रायः अर्वाचीन हैं। पेदोंका यथार्थ अर्थ और ऐतिहासिक परिपाटी बहुत पहले ही लुस होचुकी थी। भ, पार्श्वनाथके समकालीन (ई. पू० ७वीं शताब्दी) वैदिक विद्वान कौत्स्य वेदोंकी असम्बद्धता देखकर भौंचके-से रह गये थे और वेदोंको अनर्थक लिखा था। (अनर्थ का हि मंत्राः । यास्क, १-मोशमूलद्वारा सम्पादित (लंन १८५४) भा० २ पृष्ठ ५७९. २-इंडियन एटीकेरी, भा० ३० (१९०१) व जिनेन्द्रमत दर्पण पृ. २१. १-ऋग्वेद ३०-३, ३६-७; ३८-७.४- सुराश्वमिन्द्रहवे'-यजुर्वेद । ५-यजुर्वेद अ० १ मं० २५. ६-सत्यार्थ दर्पण पृष्ठ ११. ७-शग्वेद ३-३-१४-२९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | [ ५ निरुक १५ - १ ) यास्कका ज्ञान भी वेदोंके विषयमें उससे कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था । ( निरुक्त १६।२) फिर ईस्वी १४ वीं शती में सायण भी ॠम्भाष्यमें वैदिक परम्परीण अर्थको ठीक नहीं पाते हैं । ( स्थाणुग्यम् मारहारः किलाभूर्वित्य वेदं न विज्ञानाति योऽर्थम् । ) अत: यह कैसे कहा जा सकता है कि वेदोंके ऋषभादि शब्दों का. अर्थ जैनत्व द्योतक नहीं है ? अधुना ब्राह्मण विद्वान् उन्हें जैन सूचक बताते हैं । उसपर स्वयं सायण वैदिक अर्थको स्पष्ट करनेके लिये पुराणादिको प्रमाणभूत प्रगट करते हैं । हिन्दू पुराणोंमें ऋषभ आदि शब्द स्पष्ट जैनधर्म बोधक मिलते हैं । अतः वेदोंमें जैनोंका उल्लेख संगत प्रतीत होता है । पुराणोंमें सर्व प्राचीन विष्णुपुराण' है। उसमें जैन तीर्थङ्कर सुमतिनाथे और जैनधर्मकी उत्पत्ति विषयक उल्लेख हैं । इसमें असु रोको जैनधर्म- रत और' आहेत ' कहा है । ( बंगाली आवृत्ति, अंश ३ अ० १७-१८), ' भागवत ' में श्री ऋषभदेवको दिगम्बर मतका प्रतिपादक और आठवां अवतार लिखा है। (स्कंध ५ अ० ३-६) 'वराहपुराण' – 'अग्निपुराण' - 'प्रभातपुराण' - 'पद्मपुराण' - शिवपुराण' में भी जैनधर्म विषयक उल्लेख हैं । यैह जैनधर्मको प्राचीन प्रमाणित करते हैं। उधर शारीरिक मीमांसा व महाभारतके कर्त्ता ऋषि व्यास अथवा बादरायन जैनियोंकी आलोचना दूसरे अध्यायके दूसरे पदमें ३३-३६ सूत्रद्वारा करते हैं । इसपर टीका करते हुए नीलकण्ठ कहते हैं कि " १- इंडियन ऐटीक्वेरी, भा० ९, पृ० १६३ | २- मवान पार्श्वनाथ ” की भूमिका १० २९-३० : देखो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६। संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | 62 सर्वे संशयत मितिस्यादवादिनः स्तभंगी नयज्ञाः " (श्लोक २ अ०.४९) और यह प्रगट ही है कि सप्तभंगी जैनधर्मका मुख्य सिद्धांत है । इस हेतु स्याद्रादियोंसे भाव जैनियोंसे है जैसे कि मि० बार्थ अपनी पुस्तक Religions of India P. 148 पर और अमरकोष एक क्षेपक लोकद्वारा स्वीकार करते हैं । महाभारतके आदि पर्व अ० ३ श्लोक २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्नक्षपणक' के रूपमें है। अद्वैत ब्रह्मसिद्धि नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्ता क्षपणक के अर्थ जैन मुनि करते हैं। यथा “क्षपणका नैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इति केचित् (पृष्ठ १६९ Cal: ed: )। फिर महाभारत के शांतिपर्व मोक्षधर्म अ० २३९ श्लोक ६ में सप्तभंगी नया उल्लेख आया है। साथ ही शांतिपर्व मोक्षधर्म अध्याय २६३ पर नीलकण्ठ टीका में ऋषभदेव के पवित्र चरणके प्रभावका उल्लेख व आर्हन्तो वा जैनोंपर पड़ा बतलाते हैं। ऋषभदेवका उल्लेख वाचस्पत्यमें 'जिनदेव " के नामसे और शब्दार्थ - चिन्तामणि में आदि जिनदेवके रूपमें है । इस सबसे प्रगट है कि महाभारतके समय में भी जैनधर्मका अस्तित्व था । 66 PANININD 1 महाभारतसे पहिले रामायण कालमें भी जैनधमकी विद्यमानता प्रमाणित होती है। योगवशिष्टके वैराग्य प्रकरण में रामचंद्रजी कहते हैंनाहं रामो न मे वांछा, भावेषु न च मे मनः । शांत आसितुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ " - अध्याय १५ श्लोक ८ । रामायणमें बालकाण्ड ( सर्ग १४ श्लोक २२ ) के मध्य राजा दशरथका श्रमणको आहार देनेका उल्लेख है । अर्थात् " तापसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 46 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: .. प्रस्तावना : [७ मुझते चापि श्रमणा भुलते तथा।" श्रमण शब्दका अर्थ भूषण टीकामें दिगम्बर साघु किया गया है। "श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः"* जैन शास्त्रों में तो राजा दशरथ और महाराज रामचंद्रको जैनधर्मानुयायी लिखा है। अतएव उस प्राचीन समयमें भी जैनधर्मकी विद्यमानता प्रगट होती है। तिसपर शाकटायनके अनादिसूत्रमें " इण सिज् जिदीकुष्यक्यिोनक् " सूत्र २८९ पाद ३ है । इसका अर्थ सिद्धान्त-कौमुदीके कर्ताने “जिनोईन् " किया है। जिसका भाव जैनधर्मके संस्थापकसे है। क्योंकि हिन्दु धर्मके ग्रन्थों में जैनधर्मके संस्थापकका उल्लेख सर्वत्र " जिन" व "अन् " किया गया है.। यह शाकटायन निरुक्तके कत्ता यास्कके पहिले हुए थे। और यास्क पाणिनीसे कितनीक शताब्दियां पहिले हुए, जो महाभाष्यके कर्ता पातञ्जलिके पहिले विद्यमान थे। अब पातञ्जलिको कोई तो ईसासे पूर्व २री शताब्दिका बताने हैं और कोई ईसासे पूर्व ८ वीं या वीसवीं शताब्दीमें हुआ बतलाते है, १ किन्तु हम देखते हैं कि शाकटायनका उल्लेख ऋग्वेद और शुक्ल यजुर्वेदकी प्रतिसाख्योंमें और यास्कसे निरुक्तमें है। इस प्रकार ऋग्वेदादिके समयमें शाकटायन विद्यमान थे, यह प्रमाणित होता है । इसलिए मानना होगा कि जैनधर्मका अस्तित्व शाकटायनके समयमें अथवा उससे पहिले भी था अर्थात् ईसासे २००० वर्ष पहिले भी जैनधर्म प्रचलित था। *See The Jain Itihas Series, Pt I. pp. 10–13. x Ibid. 14. 1. See History & Literature of Jainism. pp. 10 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] संक्षिप्त जैम इतिहास प्रथम माग । बौद्धोंके शास्त्रों में भी जैनियों का उल्लेख “निमंठ" रूपमें हुबा है। ईसासे पूर्व ७ वीं शताब्दिमें प्रचलित बौद्धजातक कथाओंमें "घटकथा" में नम जैनमुनिका उल्लेख है ! इसी तरह मज्झिमनिकाय, संयुत्त निकाय ( २, ३, १०, ७), महावग ( ८, १५), चुल्लवमा (८,२०,३) आदि ग्रन्थों में है। The Dialouges of Buddha नामक पुस्तकमें म० बुद्ध के समयमें प्रचलित विविध मतोंके साधुओंके चारित्र-क्रियाओंका उल्लेख है। उनमें एकमें दिगम्बर जैन मुनिओंकी क्रियायें दी हुई हैं। ऐसी अवस्था में इस तरह भी उस समय अर्थात् म० बुद्धसे पहले जैनधर्मका अस्तित्व प्रमाणित होता है। फिर नहीं बोद्ध ग्रन्थों में उस समयके अन्यमतोका उल्लेख किया है, वहां आजीवकोंके बाद ही निगन्थों (जैनियों) को गिनाया है। यदि उस समय ही जैनधर्मकी उत्पत्ति हुई होती तो उसकी गणना इस प्रकार नहीं की जाती, और नहीं ही बौद्ध शास्त्रोंमें जैनधर्मके संस्थापक ऋषभदेव कहे गये हों। जैसे कि 'न्यायबिन्दु' आदि ग्रन्थों में बताया गया है। अतएव बौद्ध शास्त्रोंसे भी जैनधर्मका अस्तित्व म० बुद्धसं बहुत पहलेका प्रमाणित होता है, जैसा हिन्दू शास्त्रोंसे प्रा.ट है। भारतीय पुरातत्वकी साक्षी भी जैनधर्मको अति प्राचीन ही प्रमाणित करती है। भारतीय पुरातत्वमें हरप्पा और मोहनजोदडोंका पुरातत्व सर्व प्राचीन हैं। इन दोनों स्थानोंसे लगभग पांच हजार वर्ष पुरानी मुद्रायें और मूर्तिये उपलब्ध हुई हैं। उनमेस कई दिगम्बर जैन मेषमें हैं और कई ध्यानमुद्रामय खड़गासन भी है।' विद्वानोंने उन्हें मावान पार्थनाथ' की भूमिका देखो । १-पारशल सा०, मोहन जो-दडो (लंदन) माम १ ३०-३५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | ९ जैन मूर्तियोंके सदृश बताया है ।' कुछ तो बिलकुल जैन मूर्ति ही दिखतीं हैं। एक मुद्रापर प्रो० प्राणनाथने “जिनेश्वर " शब्द पढ़ा है।' इन्हीं प्रो० सा०ने प्रभासपाटणसे प्राप्त ताम्रपत्रके लेखको निम्नप्रकार पढ़ा है: " रेवा नगरके राज्यके स्वामी, सु... जातिके देव, नेबुशदनेजर आये हं । वह वदुराजके स्थान ( द्वारिका ) आये हैं। उन्होंने मंदिर बनवाया हैं । सूर्य ... देव नेमि कि जो स्वर्ग समान रेवतपर्वतके देव हैं (उन्हें ) सदैवके लिये अर्पण किया ।" ( गुजराती 'जैन' भाग ३५ पृष्ठ २ ) बावल (Babylonia) के सम्राटोंमें नेवुशर नेजर नामक दो सम्राट् हुये हैं । पहलेका समय ईस्वी सन्से लगभग दो हजार वर्ष पहले है और दूसरे ईस्वी सन् पूर्व ६ ठीं या ६ वीं शती में हुए हैं। इन दोनोंमेंसे किसी एकने द्वारिका आकर खैत ( गिरिनार ) पर्वतपर भ० नेमिनाथका मंदिर बनवाया था। प्रो० सा० इस उल्लेखसे जैन धर्मकी बहु प्राचीनताका बोध होता बताते हैं । । इसके अतिरिक्त धाराशिव (तेरपुर), खंडगिरि उदयगिरि, मथुरा, रामनगर (बरेली) और दक्षिण भारत में ऐसी मूर्तियां मिली हैं जो १ - रा० प्र० चन्दा, मोडर्न रिव्यू अगस्त १९३२, पृष्ठ १५८-१६०. २ - माग्ाल मा० की पुस्तकमें हरप्पाकी मूर्तिका चित्र नं० १० और प्लेट न० १३ के १५ व १६ नं०के चित्र देखो । ३- इंडियन हि० क्का० भाग ८ परिशिष्ट पृष्ठ १८ - ३२. ४ - क‍कुंडचरिउ ( कारखा सीरीज ) की भूमिका, पृ० ४१-४८ । ५-चक्रवर्ती - Notes on the Rom - ains on Dhauli and in the Caves of Udaygiri Khandagiri, P. 2. ६ - स्मिथ, जेन स्तूप एन्ड अधर एंटीक्वटीज़ आफ मथुरा, पृष्ठ २४-४५. ७ - Laders, JRAS January 1912. <-Studies in South Indian Jainism, P. 34. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग । ईस्वीसन्मे बहुत पहलेकी बनी हुई हैं और जैन तीर्थरोंकी हैं। धाराशिवकी गुफाओंमें महाराजा करकण्डुने ई० पूर्व ७ वीं-८ वी शतीमें जिन मूर्तियां बनवाई थीं। खंडगिरि उदयगिरिक हाथीगुफावाले शिलालेखमें एक जिनमूर्तिका उल्लेख है जिसे नन्द सम्राट् कलि से पटना लेगये थे। मथुरामें एक ऐसा बोधस्तूप मिला है जिसे कुशनकालके लोग देवनिर्मित अर्थात् ईस्वी पूर्व ८ वीं शतीका निर्मित मानते थे। पटना बांकीपुर रेल्वे स्टेशनसे मौर्यकालीन दि० जैन प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। सम्राट अशोकने जैनोंका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ' नामसे अपने एक धर्म लेखमें किया है। इन शिलालेखीय उल्लेखों और साक्षीसे भी जैनधर्मकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। इस प्रकार जैनधमकी ऐतिहासिक प्राचीनता ईसाके पहिले ५००० से ८०० वर्ष तक प्रकट होती है। प्राच्य विद्यामहार्णवोंकी महत्वपूर्ण खोजसे आगामी इस विषय पर और भी प्रकाश पड़नेकी संभावना है। ऐतिहासिक कालके पहिले जैनधर्म। ऐतिहासिक कालके पहिले जैनधर्मके अस्तित्वका जब हम विचार करते हैं तो हमको उसके सिद्धांतकी ओर दृष्टिपात करना पड़ता है। जैन धर्मके सिद्धान्तका दिग्दर्शन करनेसे हमें उसका वैज्ञानिक ढङ्ग प्रगट होजाता है और हमें ज्ञात होजाता है कि उसके .". -- -- १-जनल विहार ओडीसा रिसर्च, सोसाइटी। ..': ::. २-Jain Antiguary..:... . . :.: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ।।... [१५. सिद्धान्त वैज्ञानिक सत्य हैं।* सत्य अनादि निधन है और स्वयं प्रमाणित है। इसलिये जैन धर्म अनादि निधन है और स्वयं प्रमाणभृत सर्वज्ञ वाक्य है । वह अनादिकालसे अपने इसी अखण्ड. एवं पूर्ण रूपमें है। इसलिए जैनियोंकी दृष्टिसे स्वयं भारतवर्षके इतिहासके प्रारम्भ होने का समय इतना प्राचीन है कि उसकी गणना गिनतीके अक्षरोंमें नहीं की जासकती ! तिसपर हिन्दुओंके प्रामाणिक ग्रंथ वेद 'जिनके विषयमें हम पहिले भी किंचित् लिख चुके हैं । ऐतिहासिक कालसे पहिलेके बने हुए कहे जाते हैं। आधुनिक खोजने उनको १५००-४००० वर्ष ईसाके पूर्वका संकलित अनुमान किया है और बतलाया है कि वह ऐतिहासिक कालके पहिलेके वृत्तांतोंको जाननेके लिए अतीव मूल्यवान और आवश्यक हैं । हम पहिले देख चुके हैं कि जैनधर्मके इस युगकालीन संस्थापक श्री ऋषभनाथजी वेदोंके बननेसे बहुत पहले अवतीर्ण हुए थे। इसलिए इस तरह भी जैनधर्मकी प्राचीनता सर्व प्राचीन प्रमाणित होती है और भारतवर्षमें जैनधर्मकी सर्वोपरि प्रधानता प्रगट होजाती है। इस विषयमें जैन दृष्टिसे वर्णन हम आगे करेंगे। इसके अतिरिक्त इस विषयकी पुष्टि इस प्रकार भी होती है। प्रख्यात जैन फिलासोफर मिल चम्पतरायजी जैनने अपने ‘असहमत! संगम' में संसारमें प्रचलित समस्त प्राचीन धर्मोके सैद्धांतिक तत्वों में *इस व्याख्याकी यथार्थताके लिए मि० चम्पसरायजी जैन बारिस्टरकी Key of Knowledge, असहमतसङ्गम आदि एवं जैन आर्ष ग्रंथोंका अवलोकन करना चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । जैन सिद्धांतका प्रमाव प्रमाणित किया है । इसलिये प्रगट है कि संसारकी समस्त जातियोंने जैन तत्वज्ञानसे बहुत कुछ सीखा था। उनके तत्त्वोंका जैनधर्मसे सादृश्य होना उक्त व्याख्यामें अतिशयोकि प्रमाणित नहीं करता। ___साथ ही जैनधर्मके कतिपय सिद्धांत भी उसकी प्राचीनता प्रगट करते हैं, जैसे-(१) जैनधर्ममें वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थों में जीवित शक्तिका होना बतलाया गया है । Enthology विद्याका मत इस सिद्धांतके विषयमें है कि वह सर्व प्राचीन मनुष्योंका सिद्धांत है। (२) जैनसिद्धांतमें तत्त्वों या द्रव्योंका वर्णन करते समय गुणों का पृथक् विवेचन नहीं किया गया अर्थात् गुणोंको स्वयं एक तत्त्व वा द्रव्य नहीं माना है। इससे प्रगट है कि जैनधर्मकी उत्पत्ति वैशेषिक दर्शनसे बहुत प्राचीन है, जिनमें पदार्थों और उनके गुणों में मेद किया है। (३) और जैनधर्ममें आदर्श पूजा स्वीकृत है। जैनी उन महान् पुरुषों की पूजा करते हैं जो सर्वोत्कृष्ट, सर्वज्ञ, सर्वहितैषी थे। इस प्रकारकी पूजा प्राचीन मनुष्यों में ही प्रचलित थी। (See Carlyle in Heroes & Hero worship.) तिसपर मि० ई. टामस साहब अपनी Early Faith of Ashoka नामकी पुस्तकमें लिखते हैं कि-"जो धर्म अत्यन्त सरल होगा वह उससे अधिक जटिल धर्मसे प्राचीन समझा जायगा ।" फिर मेजर जनरल उरलाम साहब जैनधर्मका पूर्ण अध्ययन करके कहते हैं कि “बैन"धर्म" से साल पूजामें, व्यवहारमें और सिद्धांतमें और कौनसा धर्म होसकता है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यही हाल अणुगद सिद्धान्त (Atomic Theory) का है। ब्राह्मणों के प्राचीन ग्रंथों जैसे उपनिषधादिमें अणुसिद्धान्तका उल्लेख नहीं है । वेदान्तसूत्रमें तो इस सिद्धान्तका इसीलिये खंडन भी किया गया है। सांख्य और योगदर्शनोंमें भी इसके दर्शन नहीं होते। वैशेषिक और न्यायदर्शनमें यह सिद्धान्त स्वीकृत मिलता है, परन्तु यह दोनों दर्शन अर्वाचीन और पौरुषेय हैं । जैनों और आजीविकोंको यह सिद्धान्त प्रारम्भसे मान्य रहा है। विद्व न् पुरुष जैनोंको ही इस विषयमें प्रमुख स्थान देते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने सिद्धान्तको पुद्गल संबंधी अतीव प्राचीन मतों (most primitive) के अनुसार निर्दिष्ट किया है। ये सिद्धान्त स्वतः जैनधर्मका महत्व स्थापित करते हैं। इसलिए इसप्रकार भी जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध होती है और हमको कहना होगा कि जैनधर्म और जैन ,जाति सर्व प्राचीन होनेका दावा कर सकते हैं। एवं जैन दृष्टिसे इतिहासका विकाश एक अज्ञात समयसे पारम्भ होता है। क्या जैनी भारतके मूल निवासी हैं ? भाधुनिक विद्वानोंका मत है कि पहले भारतवर्षमें अनार्य लोग बसते थे एवं आर्य भारतवर्षके मूल निवासी नहीं हैं। वे भारतवर्ष में -जैकोबी, ईसाइलोपेडिया ऑव रिलीजन एन्ड इथिक्स भाग २ र १९९-२००. २-जब जैन धर्मका अस्तित्व हिन्दुओंके वेदोंमें भी प्राचीन प्रमाणित है तब उसे बोवधर्मसे निकला हुआ. समझना नितान्त मिथ्या है। इस विषयका विशेष विवरण वर्तमान लेखकको “भगवान् महापौर" मामक पुस्तक में देखना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | MULUUR in उत्तर पश्चिमी दरोंसे ऐतिहासिक कालके बहुत पहिले प्रविष्ट हुए थे । कहा जाता है कि यूरोपकी प्रायः सभी जातियां और एशिया में भार तीय तथा ईरानी ये सब इसी वंशकी हैं। यूरोपीय माता पितासे उत्पन्न अमेरिकन भी इसी जाति से हैं । यद्यपि 'वास्तव में प्राचीन आर्योंकी मूल जन्मभूमि कहां थी, वे लोग कब वहांसे चले और किस किस देशमें कब कब जाकर बसे ' 'इस विषयमें अन्वेषकका विभिन्न मत है, परन्तु विशेष प्रमाणोंके ' होते हुए यह युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि आयका मूल स्थान - भारतवर्ष ही था, जैसा कि हिंदी विश्वकोषके भाग २ पृष्ठ ६८९ पर प्रमाणित किया गया है और कहा गया है कि "ऋक्संहिता के अनुप्रत्नस्योकसो हुवे " ( १।३० | १९ ) प्रमाणपर यूरोपीय पुरातत्वविद् सारस्वत आर्योंके आदि पुरुषोंका पूर्ववास एशिया खण्ड के मध्यभाग - स्थित बेलुर्ता और सुशतागकी पश्चिम पार्श्वगत उपत्यका भूमि बताते हैं । किन्तु वस्तुतः पहिले आर्यावास सप्तसिंधु प्रदेश रहा ।.... गङ्गा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री ( शतद्रु ), परुष्णी ( हरावती ). असिन्की ( चन्द्रभागा ), एवं वितस्ता, इन्होंमें इरावती. चन्द्रभागा और वितस्ता इन तीनोंके संमिलनसे सम्भूत मरुद्धधा, शतद्रुके पश्चिम पार्श्व के संगत प्राचीनतम आर्जीकीया ( उरुजिए वा विपाट् जो इस समय विपाशा नाम से प्रख्यात है) और तक्षशिला नामक प्रदेशसे निम्नगामी सिंन्धु'संगत सुषोभा सात नदी जिस भूभागमें वहती, उसकी संज्ञा सप्तनद या सप्तसिंधु है .... वर्णित सप्तनद प्रदेश सिंधुके पूर्व पार पड़ता है, । सिंधु पश्चिम पार भी अपर सप्तनद्र प्रदेश विद्यमान है । आजकल यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५ आर्यावर्त ( भारत ) से अलग होते भी पहिले उसके अन्तर्गत रहा ।" इसी विषय में मि० नारायण भवनराव पावगीने अपनी "आर्यन क्रेडल इन दी सप्त सिंधूज" नामक पुस्तकमें लिखा है कि “आर्य जातियां विदेशोंसे न आकर यहीं सरस्वती नदी आदिके पास उत्पन्न हुई और इसे लाख पचास हजार वर्षसे कम नहीं हुए।" अतः यह प्रगट है कि आर्योंका मूल निवास भारतवर्ष था, और वे यहींसे जाकर अन्य विदेशोंमें बसे थे। इसलिए जैन दृष्टिसे वर्तमानके यूरोपादि छहों द्वीपोंको आर्यावर्त ( आर्यखण्ड) के अंतर्गत • मानना यथार्थ प्रगट होता है । इस व्याख्याकी पुष्टि विविध देशोंके - मान्य ग्रन्थोंमें "आर्य" शब्द का उल्लेख मिलनेसे भी होती है । जैसे पारसियोंके अवस्था नामक ग्रन्थमें 'ऐर्य' शब्द व्यवहृत हुआ है जिसके अर्थ अर्य और आर्य प्रगट किये गये हैं । यूनानी लोगोंने भी आर्य देशका उल्लेख किया है । एवं यूरोपकी करीब २ सब ही भाषाओं में हल वा कृषि वाचकं शब्द अर् धातुसे निकलते हैं जिस 'अर्' धातु से पाश्चात्य संस्कृतका अर्थ (आर्य ) शब्द बना प्रगट करते हैं । अब जब कि हम आयको भारतवर्षका मूल निवासी पाते हैं तब जैनियों को भी भारतवर्षका आदि निवासी मानना यथार्थ हैं, क्योंकि जैनी जिस दर्शनके उपासक हैं वह आर्य दर्शन है । जैन दर्शन आर्य दर्शन है और जैनी आर्य हैं जैनधर्मको आर्यदर्शन. प्रमाणित करनेमें स्वयं हिन्दू शास्त्र प्रमाणभूत है । उपनिषिधों में एक दृश्य वर्णित है कि ब्राह्मण, बंशज नारद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। क्षत्री नृप सनतकुमारके दरबारमें आत्मविद्या में सिद्धहस्त होनेकी जिज्ञामासे गए थे। वहां नारदने कहा कि “ यद्यपि मैं वैदिक शास्त्रों में पारङ्गत हूं परन्तु मैं अभी अपने ज्ञानको अपरिपूर्ण समझता हूं" क्योंकि कुरुपाञ्चाल आर्योंकी अपर विद्या वा वैदिक ज्ञान विभिन्न पूर्वी आर्योंकी आत्मविद्या वा पविद्यास मैं नितान्त अनभिज्ञ हूं।" अलविद्या में वैदिक यज्ञकाण्डका निषेत्र है जो केवल निरर्थक ही नहीं बल्कि जीवकी आत्मोन्नतिमें बाधक है । ब्र ह्मण शास्त्रोंमें वह विषय मनोरञ्जक है, जहां याज्ञवल्क्य गंगाकी तराई में रहनेवाले मनुष्यों का पूर्वीय आयोको जो बहुतायतसे काशी, कौशल, विदेह और मगधमें रहते थे भ्रष्ट' संज्ञासे विभूषित करता है । भ्रष्टसे मतलब रुष्ट हुए लोग अथवा सुधारक होते हैं । इसलिए अन्ततः वह 'भ्रष्ट' लोग आर्य थे। मला, याज्ञवल्क्यने इन पूर्वी आर्योको भ्रष्ट क्यों कहा ! इसका कारण इंदन में विशेष अनुसंधान करनेकी आवश्यकता नहीं! गङ्ग प्रदेशोंके रहाकू अथवा काशी, मगधादिके निवासी पूर्वी आर्योंने अनोखी सामाजिक रीतियों का प्रचार किया था। उन्होंने केवल वेद वर्णित यज्ञोंका ही निषेध नहीं किया था बल्कि कहा था कि उनका करना पापका कारण है और न करना पुण्यका भाजन है। इस प्रकार उन्होंने एक ही दृष्टिसे लाभ नहीं उठाया बल्कि उनका विरोध करके मतभिन्नताको पूर्ण प्रकट कर दिया। अत: यह विशेषतया स्वीकार किया जा सकता है कि ये पूर्वी बार्य जिन्होंने वैदिक. क्रियाकाण्डका निषेध किया था गोरमात्माकी अमानताका प्रचार किया था नही।समास्याकी पुत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ १७ भाषाओंके इतिहाससे भी होती है, क्योंकि उससे जाना जाता है कि पहिलेके आर्य लोग और मुख्यतः उनमें वह क्षत्री जो काशी, कौशल, are और विदेहके निवासी थे, एक प्रकारकी प्राकृत भाषा बोलते थे; जिसके कारण कुरु पाञ्चालके आर्योंने उनकी आर्य भाषाके कल्पित दूषित उच्चारणके कारण उपेक्षा की थी । और जब कि यह पूर्णतया मानी हुई बात है कि जैनियोंके प्राचीन ग्रन्थ केवल प्राकृतमें ही लिखे जाते थे, तब प्राकृतिक दृष्टिसे भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि काशी, कौशल, विदेह और मगधके निवासी पहिलेके आर्य जैन थे । इस प्रकार जैनी और उनका धर्म आर्य प्रमाणित होते हैं। इसलिए जैनी भारतवर्षके मूल निवासी आर्य हैं। प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० इस ओर विशेष अनुसंधान कर रहे हैं । उन्हींके एक लेखसे यहां यह वर्णन किया गया है । क्या पूर्वी आर्य म्लेच्छ और प्राचीन आर्य्योमेंसे निकले थे ? हिन्दू शास्त्रोंमें पूर्वी आर्यों अर्थात् जैनियोंको भ्रष्ट म्लेच्छ कहा है तो क्या वह वास्तवमें म्लेच्छ थे ? परन्तु इस प्रश्नकी असार्थकता पूर्वोक्त कथनसे ही प्रत्यक्ष है और यह साफ प्रगट है कि वेद विपरीत विचारोंका प्रचार करनेसे उनका ऐसे शब्दद्वारा उल्लेख किया गया है. यद्यपि वास्तव में वह आर्य थे । इसके अतिरिक्त उनमें पूर्वी आयका म्लेच्छ कहना स्वयं हिंदुओंकी 'स्मृति' के निम्न लोकसे बाधित है चार्तुवर्णव्यवस्थानं यस्मिन्देशे न विद्यते । म्लेच्छदेश स विज्ञेयः आर्यावर्तस्ततः परम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] संक्षित जैन इतिझस प्रथम भाग । ____ अर्थात् जिस देशमें चारों वर्णोके वर्णगत आश्रमधर्म की व्यवस्था नहीं, वही स्थान म्लेच्छ देश होता है। आर्यावर्त उससे भिन्न है। जैनियों में वर्णव्यवस्था उनके प्रथम तीर्थंकर (हिन्दुओंके मान हुए नवें अवतार)श्री ऋषभदेवके जीवनकालसे अथवा पूर्णरूपसे भारतवर्षके प्रथम सार्वभौम अधिपति-पौराणिक चक्रवर्ती भरत “जिनके नामपर हिन्दुस्तान भारतवर्ष कहलाता है" के जमानेसे प्रचलित है और पूर्व आर्य जैनी थे, यह हम दख चुके हैं। इसलिये पूर्वी आर्य म्लेच्छ नहीं थे और न वह प्राचीन आर्योंमेंसे रुष्ट होकर निकले थे। कुरुपाश्चालके आयों द्वारा प्रचारित हिंसापूर्ण यज्ञकाण्ड वास्तवमें वेदों में नहीं था। क्योंकि वेदोंमें हिंसावृत्तिका विधान नहीं हो सकता, जो उसके मांसभक्षी एवं राक्षसोंके श्राप सम्बन्धी वाक्यों आदिसे प्रगट है । इसलिए वेदोंकी . वास्तविक शुचितामें यह घृणोत्पादक विषय पश्चात् किसी दुसेमयमें बढ़ा दिया गया था। वेदोंमें यज्ञविषय पहिले नहीं था, वह पीछेसे बढ़ा दियागया था उनका सामान्य दिग्दर्शन । ___ यह यज्ञ विषयक विषय वेदोंमें कब बढ़ा दिया गया, इसके उत्तरके लिए हम वेदोंका सामान्य दिग्दर्शन करेंगे। हिन्दू वेदोंको ईश्वरकृत बतलाते हैं परन्तु मंत्रों का ही संगठन इस व्याख्याको निर्मूल कर देता है । यथार्थ ईश्वरीय वाणीकी उत्पत्ति दो प्रकारसे कही जाती है अर्थात् (१) आत्माके निजगुण केवलज्ञान द्वारा अथवा (२) किसी तीर्थकरके निर्वाण प्राप्तिके पहिले सदुपदेश द्वारा । वेद दूसरे प्रकारके बतलाम जाते हैं क्योंकि उनको श्रुति कहा गया है। इस सम्बन्धमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि वाणी चाहे कुछ और कैसी भी क्यों न हो, एक पौगलिक क्रिया है और उसकी उत्पत्ति मानसिक वृत्तियों द्वारा पौद्गलिक अणुओंसे होती है। तब वह शब्द पौगलिक अणुओंसे वेष्टित आकाशमें होकर श्रोताके कर्णगोचर होता है। मनो. वृत्ति. जिससे उसकी उत्पत्ति है अणुओंसे परिपूर्ण है। और उसके विना उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती ! अतएव जब पुद्गलके अंश नही रहेंगे तब वाणीकी उत्पत्तिका होना असम्भव है। और इससे यह भी प्रमाणित हो गया कि परमात्मावस्थामें जीव मनुष्यों द्वारा बातचीत नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त जब कर्मोंसे पूर्ण छुटकारा पाना 'अर्थात् नुक्ति पाना आत्माको म्वतः ही ध्यान करनेसे मिलता है तब कोई भी आत्मा, परमात्मावस्थामें दूसरोंसे बातचीत करनेकी इच्छुक नहीं होगी। अतः यह पूर्णतया सिद्ध होगया कि शुद्धावस्थाकी आत्मा अश्वा परमात्ना द्वारा वाणी मनुष्यों तक नहीं पहुंचाई जा सकती। इसलिए वेद ईश्वरकृत नहीं है। सुतरां वे विविध ऋषि कवियोंकी रचनाएं हैं। इन ऋषियोंने उनसे उनके मंत्रोंको कवितामें प्रकट करके अपनी आमाको उसके गुण गाकर मोहित कर लेना ही, माशय रक्ला था। वेद मंत्रोंमें प्राकृतिक शक्तियों सूर्य. अनि ' आदिकी उपासना नहीं है, बल्कि आत्माके विविध गुणों का वर्णन है। वैदिक कालकी उच्च सभ्यताका ध्यान रखते हुए यह कभी भी वीकार नहीं किया जा सकता कि वेदोंके रचयिता ऋषिगण इतने • * इस विषयका पूर्ण विवरण स्व० वेरिस्टर चम्पतगय जनकी Practical Path नामक पुस्तकमें देखना चाहिए; जिसके अनुसार . यहाँ पर रचा की जा रही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग। अज्ञानी थे कि वे प्राकृतिक शक्तियोंसे डर जाते और उनकी उपासना करते ! वास्तवमें उन शाकभोजी ऋषियोंने वेद मंत्रों में आत्माके गुणोंका अलंकृतरूपमें गुणगान किया है। उनकी यही अलंत शब्द रचना कुछ कालके पश्चात् दैवीवाणी समझी जाने लगी और एक नए धर्मकी उत्पत्ति हो गई, ज्योंही वेदोंके यथार्थ भावोंको मनुष्योंने भुला दिया। सबसे प्राचीन मंत्र ऋग्वेदके यज्ञ विषयके अतिरिक्त हैं; और उनका यथार्थ भाव उस समय बहुत मनुष्योंको विदित था। एवं वे मन्त्र साहित्यदृष्टिसे ही सुन्दर और मनोरञ्जक नहीं थे किन्तु वे मनुष्यको आत्मज्ञान प्राप्त कगने में भी सहायक थे। इसी कारण उस समयके मनुष्योको यह कण्ठस्थ थे; सुतरां वे ऋषियोंके लिए ध्यानकी एक सामग्री थे। उनकी पवित्रता मान्यता दिनोंदिन बढ़ती ही गई और समयके दीर्घ प्रभावसे उनकी दैवीवाणीके रूपमें मान्यता होने लगी। और कुछ उनके भक्तोंने उन्हें विस्मयपूर्ण कृत्योंसे परिपूर्ण प्रगट कर दिया । इस प्रकार आधुनिक मनुष्योंने उनको विशेष मान्य समझा। यद्यपि वे उनके यथार्थ भावसे अनभिज्ञ थे और वे उन्हें अपने मतका देवी शास्त्र समझने लगे। जब वेद दैवीवाणी माने जाने लगे तब उनमें समय समयपर उनके भक्तों द्वारा न्यूनाधिक परिवर्तन कर दिये गये। उनमें जो एक विशेष उल्लेखनीय परिवर्तन किया गया वह एक दुष्कालके प्रभावसे किया गया था, कारण कि जिनका बलिदान किया नाता उनको तो दुख होता ही है परन्तु वह यज्ञकर्ता और उसके सहायक सबहीको दुःखदायक ही था और अन्तमें हम देखते हैं कि वेदकी यथार्थ पवित्रता में भी बहा लगा था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । . [२१ .. महाभारतके शांति पर्वके ३३७ वें अध्यायमें राजा वसुने एक अश्वमेध यज्ञ भिषजोंका किया था। यह वर्णन है। इससे प्रकट है कि पहिले पशु यज्ञमें नहीं होमे जाते थे। पशु यज्ञकी उत्पत्ति जिसप्रकार जैनपुराणमें राजा वसु द्वारा हुई बतलाई गई है वैसे ही उक्त पर्वके ३३९ वें अध्यायमें राजा वसुको ही उसका प्रतिपादक बतलाया है। यह अधिक परिवर्तन जैन पुराणोंके अनुसार निम्नप्रकार हुआ था। काल विशेष हुआ कि राजा वसुके राज्यमें नारद और उनके शिष्य परवतमें अज शब्दपर विवाद हुआ। अज शब्दका अर्थ (१) तीन वर्ष तक पुराने न उगने योग्य चांवलोंका है और (२) अज नाम बकरेका भी है। परवत, जिसे मांस भोजनका शौक था, अब . शब्दका बकरा अर्थ लगाता था और नारद वह उत्पाद शक्ति रहित धान बतलाता था। परवतकी पराजय सर्व जनताके समक्षमें सर्व सम्मत्यनुसार हुई । तब उसने राजासे प्रार्थना की। गजा परवतके पिताका शिष्य था। राजाको परवतके पक्षमें लानेको उसकी मां गजासे एकांतमें मिली और अपने पतिकी गुरुदक्षिणाके रूपमें एक वचन मांगा । वसु राजी हो गए और अपना वचन दे दिया । पावतकी माने परवतके अर्थकी पुष्टि करनेकी याचना की। तब वमुन बहुत पश्चात्ताप किया, परन्तु उसकी माता अपने विषयपर अटल थी। दूसरे दिन वह विषय राजाके सम्मुख उपस्थित किया गया जिसने रक्तके वचनकी पुष्टि की। इस कारण वसुका सर्व-नाश हुआ च परवत राज्यसे निकाल दिया गया, परन्तु वह अपने मतके प्रचार करनेमें प्रयत्नशील रहा । जब वह अपने मतके प्रचारके मार्गका विचार . कर रहा था तब उसे एक पटलवासी देव ब्राह्मणके रूपमें मिला और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAMANNALLAINTIMALAMINATANAMAMATAMA N NAINIKANNAAMKAIMEANINNARVAANTINATION २२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । यह देव जिसने अपनेको शांडल्य ऋषि बतलाया था, अपने एक पूर्वभवमें मधुपिंगल नामक राजा था; जिसकी भावी स्त्री किसी शत्रुद्वाग न मिलने पाई थी। उस कन्याकी माताने मधुपिंगलको अपनी पुत्री अर्पण करनेका संकल्प किया था, इस कारण मधुपिंगलको उस सुलसा नामक कन्यासे वरमाला प्राप्त करनेमें कोई शंका नहीं थी। इसके शत्रु सागरको यह भेद मालूम हो गया और सुलसाके रूपलावण्य पर आसक्त हो उसने मंत्रीमे इस विषयमें सम्मति ली । इस दुष्ट मंत्रीने एक झूठा सामुद्रिक शास्त्र बनाकर चुपकेस स्वयंवर स्थानमें गाढ़ दिया। और जब सब राजा स्वयंवरके दिन इकटे हुए. तब उसने उस सामुद्रिक शास्त्रको दैवीकृत्यके रूपमें प्रकट किया। फिर वह बाहर निकाला गया और पढ़ा गया। मधुपिंगल विषयक वाक्योंको खूब जोर देकर यह दर्शाते हुए पढ़ा, कि मधुपिंगलकी आंखें उसको और उसके कुटुंबियोंके लिये दुर्भाग्यसूचक हैं । इस प्रकार मधुपिंगलने अपना अपमान जानकर अपने कपड़े उतार कर फेंक दिये और साधु रूपमें रहने लगा। उधर सुलसाने सागरके गलेमें वरमाला डाली । इसके कुछ काल पश्चात् मधुपिंगलको सव सच्चा हाल किसी ज्योतिषी द्वारा ज्ञात होगया। जिसके कारण वह क्रोधको प्राप्त हुआ और उसी अवस्थामें उसकी मृत्यु होगई। और मरकर वह पटलवासी देव हुआ। ___अवधिज्ञान द्वारा सारा हाल मालूम कर वह अपने पूर्वभवके शत्रु सागरसे अपना वैर चुकानेमें प्रयत्नशील हुआ और तत्काल ही • इस मध्यलोकमें आया और परवतको अपने देशसे निकाला हुआ स्वमत प्रचार हेतुमार्गका विचार करते हुए पाया । परवतको अपना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ २३ बदला लेने में सहायक जान वह उसके इस दुष्टतम कार्यमें योग देने लगा । इसी के अनुसार परवत राजा सागरकी पुरी में गया। वहां इस देव - जिसका नाम महाकाल थाने अनेक प्रकारके मरी रोग फैला दिए और एक रोगके शांत होने पर अन्य प्रकारका फैला देता था । इससे वहांके मनुष्योंको विश्वास होगया कि यह देवी प्रकोप है और परवतकी सम्मत्यनुसार पशुयज्ञ करना ही निश्चित किया गया । प्रथम तो वे लोग बहुत भड़के परन्तु रोगके प्रकोप और परवतके अनेकों विम्मयोत्पादक कृत्योंने उन्हें ऐसा करनेको बाध्य किया । प्रथम केवल मांस ही अर्पण किया गया और उससे लाभ भी मालूम हुआ । जिस बात का प्रचार परवत न्यायकी तलवार न कर सका, उसीको एक देवकी सहायता से पूर्णरूपमें प्रचार करने लगा। धीरे २ बहुतसे मनुष्य उसके मतानुयायी हो गए और अंत में एक अनमेघ यज्ञ - परवतके कथनानुसार कि जिस जीवका बलिदान किया जाता है उसको दुःख नहीं होता; किन्तु वह स्वर्गको प्राप्त होता है - कराया गया। यहां भी ज्यों ही बकरे की बलि चढाई गई त्यों ही महाकालकी सहायता से एक मायावी विमानमें एक चकग बैठा हुआ स्वर्गको जाता दिखाई पड़ा. जिससे सागर के समस्त राज्यको उसपर विश्वास हो गया । अजमेधके पश्चात् गोमेध किया गया, फिर अश्वमेध और अन्तमें प्रभावनापूर्ण नग्मेघ किया गया । प्रत्येक अवस्थामें बलिदान किया हुआ पशु वा मनुष्य विमानारोहित स्वर्गकी ओर जाता दिखाई पड़ा । जैसे २ समय बीतता गया वैसे २ इसके प्रतिकारक मनुष्योंका अभाव होगया और अन्तमें पशु यज्ञ स्वर्गका द्वार ही माना जाने लगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] संक्षिप्त जैन इतिहास: प्रथम भाग। +MNNINESEN a renesNRNITIATIVENYEARNIRNAYANEWww.ANARTS . उस समयके निर्मापित यज्ञ विषयक अन्योंमें उक्त प्रकारका वर्णन भी कर दिया गया था और यज्ञमें मनुष्योंको ऐसा विश्वास होगया कि कितने ही अपनी बलि स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे देनेको तत्पर होगये । अन्तमें सुलसा और सागरने भी अपनेको यज्ञमें बलिरूपमें भस्म कर दिया । इसप्रकार देव महाकालकी इच्छा पूर्ण हुई और वह अपने स्थान पाताललोकको चला गया। इसके साथ ही यज्ञ विषयक झूठे दृश्य और रोगादि भी विदा होगए। इसी कारणवश उस समय यज्ञके दृश्यमें कुछ फेरफार नहीं दीख पड़ा। : कुछ काल पश्चात् यज्ञाचार्योंके अर्थ विशेष रीतियां पूर्णरूपमें रची गई। अनुमानतः उसी ऋग्वेदकालके समय कुछ मंत्रोंका भी परिवर्तन परवतकी कार्यसिद्धिके अर्थ कर दिया गया था और सागरके देशसे वह नूतन मत सर्वत्र प्रचलित होगया । महाकालके चले जाने के उपरान्त भी यज्ञाचार्योंके योगबलक प्रभावसे कितने ही मनुष्य परवतके मतमें मिलते रहे थे। वदोंमें गुप्तभाषाका व्यवहार क्यों किया गया ? वेदोंके* विषयमें उक्त विवरणको पढ़ते हुए यह शङ्का उपस्थित होजाती है कि वेदके प्रणेता ऋषियोंने उनको अलंकारिक रूपमें क्यों लिखा जो प्रमोत्पादक है ? इस परदेकी ओटमें होकर अथवा कथानक रूपमें आत्मज्ञान प्रचार करनेसे यही भाव प्रगट होता है कि उसके प्रतिपादक उसको वैज्ञानिक ढङ्गसे प्रतिपादित करनेमें असमर्थ थे। इसलिए यह भी अवश्यम्भावी है कि उन ऋषियोंने यह ज्ञान किसी * अनिकी मान्यता किन वेदों में है ?इसका उत्तर अगाड़ी मिलेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am.NANALANKARINAMANAINSPIRINEWi nner: .....प्रस्तावना | .. [२५ ऐसे धर्मसे लिया होगा जो उसे वैज्ञानिक ढङ्गपर वर्णित करता हो। भारतवर्षमें हिंदूधर्मके अतिरिक्त उसकी समकोटिमें जैनधर्म भी प्राचीन माना गया है। अतएव संभव है कि वैदिक ऋषियोंने अपने ज्ञानका आधार जैनधर्मसे लिया हो। इसी व्याख्याकी पुष्टि कर्मोंद्वारा आवागमनके सिद्धांतको विचारपूर्वक मनन करनेसे होती है । आवागमनका सिद्धांत वेदोंके कर्ताओंको अवश्य विदित था, कारण कि ऋग्वेदमें उन्होंने जीवका जल व वनस्पति आदिमें जन्म लेना लिखा है। (See 'Indian myth and legens' by D. A. Macken. jie P. 116.) इसके अतिरिक्त वेदोंके कथानकके गुप्त सैद्धांतिक विज्ञान ( Philosophy ) से भी इसकी पुष्टि होती है । आर्य और अनार्य । वेदोंके विषयमें प्रसंगवश जो उपर्युक्त वर्णन किया गया है, उसमें आर्य और अनार्योका उल्लेख आया है। जैन धर्ममें मनुष्य जाति मूलतः एक मानी गई है; परन्तु कर्मकी अपेक्षासे उसे दो विभागोंमें विभक्त किया है, अर्थात् आर्य और म्लेच्छ । आर्य उन मनुष्यों को कहते हैं जो उत्कृष्ट कुलीन और धर्ममें स्त रहनेवाले हैं। __म्लेच्छ उन अनार्य मनुष्योंको कहते हैं जो असभ्य और हिंसोपजीवी होते हैं। भारतवर्ष में आर्य और म्लेच्छ दोनों ही प्रकारके मनुष्य सदैवसे हैं। मारतवर्षके मूल रहाकू द्राविड़ जातिके मनुष्य अनार्य और असभ्य कहे जाते हैं, पातु हम एक प्रख्यात विद्वान् मेजर जनरल फरलांग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास: प्रथम माग । : साहब की सम्मति पहिले उद्धृत कर चुके हैं, जिससे प्रकट है कि द्राविड़ जातिकं साथ २ उस समय एक विशेष सभ्य समाज भी विद्यमान थी। इस प्रकार जैनधर्मके उक्त कथनकी पुष्टि होती है। और यह भी विचारणीय बात है कि द्राविड भाषाका जो साहित्य उपलब्ध है, वह आदिरूपमें जैनधर्मका है। अर्थात् जैनियों द्वारा ही द्राविड़ साहित्यकी जड़ जमाई गई थी। इसलिए समग्र द्राविड़ जातिको असभ्य कहना युक्तियुक्त भाषित नहीं होता । सर संमुखम चेट्टीका मत है कि द्राविड़ोंका आदि धर्म जैनधर्म ही था । क्या भारतमें अनार्य और असभ्य वसते थे ? आधुनिक विद्वानों द्वारा जो यह कहा गया है कि पहिले भारत में अनार्य और असभ्य लोग वसते थे. वह संभवतः इस प्रकार होगा | जैन धर्ममें कहा गया है कि बावीसवें तीर्थङ्कर भगवान नेमि - नाथके मोक्ष जानेके पश्चात् भगवान पार्श्वनाथके जन्म होने तक धर्मका मार्ग यद्यपि बिलकुल बन्द तो नहीं हुआ परन्तु उस समयकी प्रजा धर्ममार्ग से इतनी रहित होगई थी कि चारित्रहीनता के कारण ar किन्हीं अंशमं असभ्य कही जासकती है। अतएव जिस समय के अनुमान हमारे इतिहासकार करते हैं वह समय यही होगा । धर्ममार्ग से रहित होनेके कारण उस समयके मनुष्योंको इतिहासकारोंने अनार्य समझा होगा, परन्तु यह तो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता है कि जिन लोगोंको ये भारतके आदि निवासी और अनार्य मानते हैं उनसे पहिले भारतमें आर्यत्व था ही नहीं । इसलिये जैन धर्म इस बातके माननेके लिये तैयार नहीं है कि भारतवर्षकी कार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: प्राना। [२७ प्राय जातिके इतिहासका प्रारम्भ इसी समयसे हुआ है, किंतु यह समय परिवर्तनका था जिसमें धर्ममार्गका लोपसा हो गया था और मनुष्य प्रायः अधर्म-मार्गकी ओर रुजू होगये थे ।* इसके अतिरिक्त कई विद्वानोंने वेदोंको गौग्व दृष्टि म्मरण किया है। इतिहासके प्रारम्भ कालमें ही कोई भी ग्रन्थ वेदोंके समान संगठित नहीं हो सक्ते और ऐसी अवस्थामें जब कि लोग अनपढ़ बताए जाते हैं, इससे भी मालूम होता है कि न तो उस समयके मनुष्य ही अनपढ़ थे और न वह समय ही आर्य जातिके इतिहासके प्रारंभका 'था, किन्तु इस समयसे भी करोड़ों वर्षों पहिलेसे आर्य जातिका इतिहास चला आता होगा। आधुनिक विद्वानोंने काले रंगवाले मनुष्योंको अनार्य बतलाया है परन्तु किसी जातिको रंगमें काले होने ही के कारण अनार्य नहीं कह सकते। अतएव द्राविड़ जाति भी केवल इसीलिए अनार्य नहीं कहला सकती और न इसके लिये कोई काफी प्रमाण ही है कि द्राविड़, कोल, मंगोल आदि जंगली जातियों के सिवाय भारतवर्षमें और कोई सभ्य जाति थी ही नहीं । भारतवर्षकी जातियां । भारतवर्षके प्राचीन समयमें वहांके रहाकू आर्योंमें मूलसे चार वर्ण थे और उन ही के अनुसार केवल चार जातियां थीं, परन्तु पश्चात् विदेशी जातियोंके आक्रमणके समयसे उनमें मिश्रण हो गया प्रतीत * बा. सरजमल जैन कृत "जैन इतिहास" भाग प्रथम पृ० १४ । x पूर्व पूछ १३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षी जैन इतिहास प्रथम भाग | २८ ] होता है । आधुनिक इतिहासकार के अनुसार वर्तमान भारतीय जनता जगतकी सभी बड़ी २ जातियोंका मिश्रण है । उसका बड़ा भाग निःसन्देह आर्यवंशसे है । परन्तु उसमें द्राविड़, तातारी तथा अग्च जाति कुछ अंश उस जाति के भी सम्मिलित हैं जिसको नीग्रो या हब्शी कहा जाता है । और उत्तरीय भारत के - विशेषतया पञ्जाब, संयुक्त प्रान्त, राजपूताना, गुजरात, बंगाल और विहार के अधिवास अधिकतर आर्यवंशके हैं। उत्तर पश्चिममें कुछ अंश अरब और तातारी मूलके हैं । उत्तर पूर्व में कुछ रक्त मंगोलियन जातिका है। दक्षिणमें अधिकतर भाग द्राविड़ जातिका है और मालाबार सागर-तटपर एक विशेष संख्या अरबी वंशके मुसलमानोंकी है। मध्य भारत तथा दक्षिणमें और विन्ध्याचलके भागों में और नीलगिरी पर्वतके प्रदेशमें वे जातियां बसती हैं जिनका भारतकी आदिम निवासी कहा जाता है, जैसे कि भील और गोष्ट आदि * भारतकी भाषायें । प्राचीन समयमें उत्तर भारतकी क्या भाषा थी, इसका सप्रमाणिक उत्तर देना जरा कठिन है, परन्तु जैन धर्मानुसार हम कह सकते हैं कि वहांकी भाषा प्राकृत थी, जिसमें जैनियोंके अत्यन्त प्राचीन शास्त्र पूर्व संकलित थे । आधुनिक इतिहासकार उत्तर भारतकी प्राचीन भाषाको निर्धारित करने में अपनेको असमर्थ समझता है और वह कहता है कि मदरास प्रांतकी भाषायें द्राविड़ श्रोतसे हैं । सम्भव है कि आर्योंके समय उस श्रोतकी भाषायें उत्तरीय भारतमें भी प्रचलित * ला लाजपतराय का "भारतका इतिहास भाग १ पृष्ठ २२. www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रस्तावना । [ २९ हो, परन्तु यदि ऐसा था तो हिन्दू आयन अपनी भाषाको द्राविड़ श्रोतके शब्दों और मुहावरोंसे अमिश्रित रखने में भारी सफलता प्राप्त की। आधुनिक द्राविड़ भाषाओंमें संस्कृतके असंख्य शब्द हैं, परन्तु क्या प्राचीन और क्या नूनन संस्कृतमें द्राविड़ भाषाओंके शब्दों और महावरोंकी सूरततक दिखाई नहीं देती । यदि बे होंगे भी तो ऐसे कम कि उनका होना न होना समान है। उत्तरीय और पश्चिमी भारतकी सभी भाषाएँ अर्थात् बङ्गला, हिन्दी, पञ्जाबी, गुजराती और मराठी अपभ्रंश प्राकृत भाषासे निकली हैं। हां, उर्दूमें अरबी, फारसी और तातारी शब्दों तथा मुहावरोंकी बहुत कुछ मिलावट है. व बोलचालकी उर्दूमें भी सौ पीछे ७५ से भी अधिक शब्द निश्चयपूर्वक संस्कृतके हैं। x हिंदी भाषाके अब तकके इतिहाससे यह प्रमाणित है कि प्राचीन हिंदी भाषा विशेषकर अपभ्रंश प्राकृतसे मिलती जुलती थी । इसलिए यह मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषा से ही संस्कृत और हिन्दी उद्भवित हुई है और उनसे ही अन्य भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। तिसपर इस विषय में मि० बिन्सेन्ट स्मिथ साहब लिखते हैं कि "" The most important family of Indian languages-the Aryans-comprises all the principal languages of Northern and western India, descended from ancient vernaculars or Prakrits. Oxford History of India p. 12.) भावार्थ - उत्तर पश्चिमीय भारतकी समग्र आर्य भाषाएँ प्राचीन प्राकृत भाषाओंसे उद्भावित हुई हैं । << • x पूर्व पुस्तक भाग १ पृष्ठ २३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। Tamann am.NeMINER भारतके धर्मा। वर्तमान भारतवर्षमें अनेक धर्म प्रचलित कहे जाते हैं । समझा जाता है कि वहां असंख्य धर्म हैं । कितनेक लोग तो यह कहते हैं कि जितने भारतवर्ष में मनुष्य हैं उतने धर्म हैं। “ वास्तवमें तो यह अन्तिम कथन संसारके सभी अधिवासियोंपर चरितार्थ होता है; क्योंकि धर्म एक व्यक्तिगत लक्षण है जो प्रत्येक मनुष्यके लिये अलग अलग है। धर्मका संबंध मनुष्यकी आत्मासे है। मनुष्योंकी आत्माएँ भिन्न २ हैं इसीलिये किन्हीं दो मनुष्योंका धर्म वास्तवमें एक नहीं है । परन्तु जिन साधारण अर्थोंमें “ धर्म " शब्दका प्रयोग किया जाता है उनका ध्यान रखकर यह कहा जा सकता है कि भारतमें तीन धर्मोके अनुयायियोंकी संख्या सबसे अधिक है-(१) हिन्दू, : २ ) इसलाम, (३) ईसाई। इनके अतिरिक्त सिक्ख, जैन, बौद्ध और पारसी भी हैं। ये सब आर्य जातिके धर्म हैं । इसलाम और ईसाई दोनोंका मूल यहूदी है। भारतमें यहूदियोंकी भी कुछ संख्या है।"* किंतु इन सबके होते हुए भी प्राचीन भारतमें केवल तीन मुख्य धर्म थे, अर्थात् जैनधर्म, हिन्दूधर्म और बौद्धधर्म। इनमें यद्यपि आफ्समें प्रतिस्पर्धा बराबर चली आती रही है परन्तु पाश्चिमात्य देशोंकी तरह यहां कभी भी धर्मके पवित्र नामपर लहाइयां नहीं लड़ी गई। हां! यह अवश्य है कि कभीर हिंदू राजाओंने जैनों और बौद्धोंपर अत्याचार किए और कभी उन्होंने हिंदुओंपर किए, परन्तु वस्तुत: हिंदू अथवा जैन अथवा बौद्ध सभी राज्यों में सभी संप्रदायोंके पंडितोंका मान और सम्मान होता रहा। * ला• लाजपतराय कृत " भारतवर्षका इतिहास". भाग १ पृ. २३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | ܙܝ [ ३१ इतिहासकी आवश्यक्ता । 66 किसी x बच्चेकी शिक्षा तबतक पूर्ण नहीं समझी जा सकतीजबतक कि उसको उस जाति और उस समाजके इतिहासका ज्ञान न हो - जिसके अन्दर वह उत्पन्न हुआ है और जिसमें रहकर उसे अपने मानुषी कर्तव्योंको पूरा करना है। प्रत्येक व्यक्ति जो संसारमें जन्म लेता है वह बहुतसी प्रवृत्तियां अपने माता पिता और प्राचीन पूर्वजों से दायमें पाता है । जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपने पूर्वजोंका प्रतिनिधि है उसी प्रकार प्रत्येक मानुषी समूह अपने जातीय पूर्वजोंका प्रतिनिधि है। कोई समाज अपनी वर्तमान अवस्थाको पूर्णरूप से नहीं जान सकता जबतक उसे यह ज्ञान न हो कि वह किन किन अवस्थाओंसे होकर यहांतक पहुंचा है । समाजकी उन्नति के लिए यह आवश्यक है कि उसे अपनी सब अवस्थाओं का ज्ञान हो । प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक मानव समुदाय अपने समाजकी वर्तमान अवस्था में प्रभावित होता है । वर्तमान अवस्थाएं भूतकालीन अवस्थाओंका परिणाम हुआ करती हैं। ऐसी अवस्था में प्रत्येक मानव समुदायकी उन्नतिके लिये आवश्यक है कि उसको अपनी जातिके इतिहासको अच्छी जानकारी न हो, वह अपनी जातिकी उन्नति और सुधारक क्षेत्रमें कोई यथोचित पग उठाने के योग्य नहीं हो सकता 1 जैन समाज अपनी वर्तमान अधोदशासे निकलने के प्रयत्न में प्रयासशील है, परन्तु उसके पास अपने पूर्वजोंका एक क्रमबद्ध इतिहास ★ पूर्व मग १ पृ० २७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग ! न होनेके कारण वह अपने इस शुभ प्रयासमें उतनी सफल - मनोरथ नहीं है जितनी कि होनेकी आशा थी। अपने पूर्वजोंकी उन्नत दशा और अपनी वर्तमानकालीन अवनत दशा एवं उनके कारणोंको जब हम ध्यान में लायेंगे तब ही यथार्थ उन्नतिकी ओर पग बढ़ा सकेंगे । हमारे अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने हमको २४६८ वर्ष पहिले इस विषय में पूर्ण सावधान कर दिया था । अर्थात् जिस जिस आत्माको अपना, लोकका और भूत भविष्यत वर्तमानका ध्यान नहीं है वह सत्यमार्गका अनुशीलन नहीं कर सकता - अपने सार्वधर्म की उपयोगिता जगतके निकट प्रगट नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्येक जैनीका कर्तव्य है कि वह अपनी जातिमें वास्तविकरीत्या कर्तव्यपरायण होनेके लिए जैन इतिहासका ज्ञान रक्खे | और जैन समाज में एक वास्तविक इतिहासके अभावकी पूर्ति के लिए इस इतिहासके लिखनेका प्रयत्न है | : जैन इतिहासके कालविभाग और ऐतिहामिक आधार । पूर्वोक्त वर्णनसे हमें ज्ञात होया है कि जैन इतिहास मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है अर्थात् - ( १ ) इतिहासकारोंद्वारा स्वीकृत कालके पहिलेका इतिहास अर्थात् २५०० वर्ष से पहलेका इतिहास । (२) उस समयका इतिहास जिस समय भगवान महावीर स्वामीने अपने तीर्थमार्गका प्रसार करके धर्मका प्रतिपादन किया था और उनके शिष्योंने उनके पश्चात् उसका प्रचार दिग्दिगांतरोंमें फैलाया था अर्थात् ईसाके जन्मसे ६०० या ७०० वर्ष पहिलेसे लेकर ईसाकी तेरहवीं शताब्दि तकका इतिहास, जिस कालमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनाः । [ ३३ जैनधर्मका परम उत्कर्ष रहा था । ३) और वह काल जिसमें भारतवर्षमें यवन लोगोंका अधिकार होगया था और जैनधर्मका वह प्रभाव घट चला था अर्थातृ तेरहवीं शताब्दि से लेकर आजतकका इतिहास | इन विभागोंके प्रथम भागके वर्णन करनेको हमारे पास केवल जैन शास्त्र हैं तथापि कुछ२ सहायता हिंदुओं के शास्त्रोंसे भी मिलती है। दूसरे भाग के इतिहासका आधार हमें जैन और हिंदू साहित्यके अतिरिक्त बौद्धोंक ग्रन्थोंमें, राज्यनीतिके ग्रन्थोंमें, तत्कालीन साधारण साहित्य में, शिलालेख मुद्रादिमें एवं विदेशी पर्यटकोंके भ्रमण वृत्तांतों में मिलता है। तीसरे भागका आधार उपर्युक्त के अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानोंके इतिहास एवं मुसलमान ग्रन्थकारोंके इतिहासों में प्राप्त है । HAL - इस प्रकार जैन इतिहासके इन सर्व कालोंका पूर्ण विवरण उपस्थित करना परमावश्यक है । इस ही आवश्यक्ताको ध्यान करके श्री भा० दि० जैन परिषदने एक ऐसा ही विशद जैन इतिहास निर्माण करनेका कार्य श्रीयुत हीरालालजी एम० ए० की अध्यक्षता में प्रारंभ कराया था । उसकी पूर्ति इस आवश्यक्ताको पूर्ण कर देती किन्तु खेद है कि प्रो० सा० अन्य आवश्यक कार्योंमें व्यस्त रहनेके कारण उसको अभीतक नहीं लिख सके हैं । इसलिये उस प्रस्तावके अनुरूप इस संक्षिप्त इति - हासके लिखने का साहस हमने किया; जिसमें हम भगवान महावीर के सर्व कल्याणकारी दिव्य धर्म-प्रभावसे ही कार्यकारी हुये हैं । अथ च इस संक्षिप्त इतिहासका प्रथम भाग पाठकोंको समर्पित है । द्वितीय एवं अन्य भागमें शेषके जैन कालोका विवरण पाठकों के समक्ष रक्खा ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । गया और रक्खा जावेगा। यह हर्षका विषय है कि इसकी द्वितीयावृत्ति भी प्रकाशित की जा रही है। पहिला परिच्छेद। जैन भूगोलमें भारतवर्षका स्थान । भारतभूमिके विषयमें जाननेके लिये हमें सामान्यतया जैन भूगोलका दिग्दर्शन करना पड़ेगा। जैन दार्शनिकोंने आप्त वचनानुसार जीवित एवं अन्य पदार्थोसे व्यात आकाशको लोकाकाश कहा है और इससे बाह्यको अलोकाकाश संज्ञा दी है । लोकाकाशके स्वरूपके विषयमें कहा है कि उसका आकार वैसा ही है जैसा पांव पसार कर दोनों हाथोंको चौड़ाकर कमर पर रख लेनेसे विना सिरके मनुष्यका आकार होता है। इस लोकके बीचमें मध्यलोक है जिसे मर्त्यलोक भी कहते हैं। इसके ठीक बीचमें एक लाख योजन अर्थात् चालीस करोड़ माइलका लंबा और इतना ही चौड़ा जम्बूद्वीप है। इस जम्बूद्वीपके बीचमें एक मेरु पर्वत है। इस पर्वतकी दक्षिण दिशाकी ओर भग्तक्षेत्र है यह अर्धचंद्राकार है। इस अर्धचंद्राकार भरतक्षेत्रके बीचमें एक पर्वत है जिसका नाम विजयार्द्ध है। इस पर्वतसे भरतक्षेत्र दो भागोंमें बट गया है। इसी भस्तक्षेत्रसे हमारा संबंध है । इसका आकार कुछ२. इस प्रकार है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला परिच्छेद । [३५ महासिन्धु नदी महागंगा नदी हिमवन परवत म्लेच्छ खण्ड । म्लेच्छ खण्ड म्लेच्छ खण्ड ह विजया पर्वत अ१ अ४ : आर्यखण्ड म्लेच्छ ग्लेच्छ महाग /गाज लवण समुद्र भरतक्षेत्रके दो विभागोंमें एक उत्तरीय विभाग, दूसरा दक्षिणी विभाग कहलाता है। उत्तरीय विभागमें म्लेच्छ रहते हैं। दक्षिणी विभाग महासिन्धु और महागंगा नामक दो नदियों द्वारा तीन विभागोंमें विभक्त । है। इन विभागोंके सर्व अन्तिम पूर्वीय और पश्चिमीय विभागोंमें भी म्लेच्छ रहते हैं। हमलोगोंका निवास मध्य विभागके उपसमुद्र में है (अ १, अ२. अ ३. अ ४)। इसकी पूर्व दिशामें महागंगा नदी, उत्तरमें विजया पर्वत. पश्चिममें महासिन्धु और दक्षिणमें लवण समुद्र है। भरतक्षेत्र ५२६६ योजन अर्थात् इक्कीस लाख चार हजार दोसौ. माइल ग्यारह गज और १११ इंच है। महासिंधु और महानंगा नामक नदियां और विजयाध पर्वत इस छै भागों में बांट देता है, जैमा कि हम ऊपर देख चुके हैं। आधुनिक लमम्त संमार अर्थात् ऐशिया, यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया आदि इसी आर्यस्खण्डके मध्यमें स्थित उपShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com " Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथक्क भाग । समुद्रके अन्तर्गत हैं, जिसके मध्य में भूमि ऊपरको उठी हुई है और उसके चहुँओर समुद्र है। संभवतः इस उठी हुई जमीन के कारण आज एक मनुष्य पूर्वकी ओर चलता हुआ अपने से पश्चिम में स्थित स्थानपर पहुंच जाता है और यही कारण है कि अभी उत्तर और दक्षिण ध्रुवका ठीक पता नही लग पाया है। जो हो, आजकी खोज की हुई भूमिके अतिरिक्त भी और भूमि होना जैन भूगोल बतलाता है, जिसका पता हम लोगोंको अभीतक नहीं लगा है । भारतवर्षका संक्षिप्त विवरण । वर्तमान भौगोलिकोंके मतानुसार केवल भारतवर्ष ही आर्यखण्ड है और उसे आर्यावर्त अथवा भारतवर्षकी संज्ञा से अंकित किया है । इस भारतभूमिको विभिन्न मनुष्योंने अपनी २ भाषा में विविध नामोंसे पुकारा है। मुसलमान लेखकोंने इस देशका नाम हिन्द और हिन्दुस्तान स्वखा था । ' हिन्दुस्तान' शब्द एक समास है जो अफघानिस्तान, बलोचिस्तान, तुर्किस्तान और जाबिलिस्तान के ढंगपर दो शब्दोंसे मिलकर बना है । और हिन्द वह पुराना नाम है जो सब बिदेशी जातियोंने बहुत प्राचीन कालसे इसे दे रक्खा है। पुरानी रोमन और यूनानी पुस्तकोंमें इस देशके नाम इण्डो, इण्डीज और इण्ड आदि आदि लिखे हैं । 'हिन्दू' उन्हीं शब्दोंका बिगड़ा हुआ रूप है । बहुत सम्भव है कि इसका यह नाम इण्डस नदीके कारण पढ़ गया हो क्योंकि उसको संस्कृत में सिन्धु नदी कहते हैं । इसी व्युत्पत्तिके कारण यूरोपीय भाषाओं में इस देशको इण्डिया कहा है।' * * ला • लाजपतरायका " भारतवर्षका इतिहास " भाग १ बृ० ३७ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. पहिला परिच्छेद । [३७ वर्तमान भारतवर्षके उत्तरमें हिमालय पर्वत है जो करीब १६०० मील लंबा है, और जिसके पार तिब्बत देश है। यह पर्वत आधुनिक संसारमें सबसे ऊंचा है। भारतके इस उत्तरीय भागमें नेपाल, भूतान और सिक्किम मिले हुए हैं। पूर्व दिशा ब्रह्मा और बंगालकी खाड़ीसे सीमाबद्ध है। पश्चिम दिशामें अफगानिस्तान बलोचिस्तान और अरब सागर हैं। इस देशका समग्र सागर तट अनुमानतः चार हजार मील लंबा है और इसका समग्र क्षेत्रफल १८,०२,६५७ वर्गमील है। ___" भारतवर्ष एक प्रकारसे अपने आपमें एक छोटासा संसार है। इसमें प्रत्येक जातिके मनुष्य, प्रत्येक धम्मैके अनुयायी, प्रत्येक रङ्गके व्यक्ति और सभ्यता तथा श्रेष्ठताकी दृष्टिसे भी सब प्रकारके मनुष्य मिलते हैं। इस देशके पहाड़ ऊँच और लम्बे हैं। उनमें बहुतसी बहुमूल्य खाने हैं। इस देशकी नदियां लम्बी, चौड़ी और पानीसे मुंहामुंह भरी हुई हैं। उनमें नार्वे चल सकती हैं। यहांके वन सैकड़ों वर्गमीलतक फैले हुए हैं। वे प्रत्येक प्रकारकी वनस्पतिसे सज्जित और नानाप्रकारके वृक्षोंसे परिपूर्ण हैं । 'उनमें बहुतसे अब कटचुके हैं और वहांकी भूमिपर अब खेती होती है। इस देशमें रेतीले मैदान भी मीलों तक फैले हुए हैं ।........इस देशके अधिक भागमें खेती होती है। जिस प्रचुरतासे विविध प्रकारके शस्य, बीज, फल और फूल इस देशमें उत्पन्न होते हैं कदाचित् ही संसारके किसी अन्यभागमें उत्पन्न होते हों। यहांके वृक्ष बड़े सुन्दर, छायादायक और फलदार हैं। हमारे देशके वहुतसे प्रदेश ऐसे हैं जो अपनी उपजकी दृष्टिसे उद्यानके नमूने हैं। उनके दृश्य बहुत ही सुंदर और मनोहर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] सांक्षप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | HUI HUS हैं। वहां सब प्रकारकी जड़ी बूटी. फल फूल और अन्य अनेक वस्तुएं उत्पन्न होती हैं I हमारे पर्वतों में बहुतसी घाटियां ऐसी मिलती हैं जो निस्संदेह स्वर्गके नमूने हैं। जैसे कि काश्मीरकी दृश्यावली. कुल्लूकी घाटियां और दार्जिलिंगकी चोटियां । साराशमें यह देश इस योग्य है कि यहांके निवासी न इसपर अभिमान करें वरन् शुद्धभावसे इसकी पूजा करें ।* भारतवर्षकी जन संख्या । इस समस्त भारतकी जनसंख्या सन् १९२१ ई० की सरकारी मनुष्यगणना के विवरण के अनुसार ३१८९४२४८० है । प्रत्येक धर्मके अनुयायियों की संख्या अलग अलग इस प्रकार है: धर्म जनसंख्या २१६७३४५८६ ६६७२५३३० ११७०५९६ हिन्दू मुसलमान ' सिक्ख ईसाई जैन ४७५४०६ ११५७२३८ बौद्ध एवं अन्य ३२६७९३२४ किन्तु सन् १९४१ की गणना में यह संख्या करीब ४१ करोड़ है । भारतवर्षकी प्राचीन और अर्वाचीन आकृति । भूतत्वविद्या के मतानुसार भारतवर्षकी प्राचीन आकृति वर्तमानकी भांति नहीं थी। उनका कहना है कि किसी समय पहिले उस प्रदेश * Ibid : भाग १. पृष्ठ ३५-३६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANNARY SAnil.lam . पहिला परिच्छेद। .. [३९ तक जहां अब हिमालय, पञ्जाब और संयुक्त प्रान्त आदि स्थित हैं, समुद्र फैला हुआ था और इस देशकी दक्षिणी भूमि अफ्रिका महाद्वीपके पूर्वी स्थलसे मिली हुई थी। इसके अतिरिक्त प्रगटरीत्या भी बहुत परिवर्तन हुआ प्रतीत होता है। पहिलेकी बहुतसी नदियां और कितनेक नगर अब नहीं मिलते । बहुतसी नदियोंके प्रवाह मार्ग आदि बदल गए हैं। बहुतसे नगर उजड़ कर फिरसे बस गए हैं। भारतके प्राचीन नगर भूगर्भ में हैं क्योंकि प्राचीन स्थानोंकी खुदाई करनेसे पृथ्वीके भीतरसे प्राचीन नगरोंके भवनों के दो दो मंजिलके खंडहर मिले हैं जैसे—प्राचीन पाटलीपुत्र और तक्षशिलाके स्थान खोदनेसे निकले हैं। पृथ्वीका इस तरह परिवर्तित होना किसी प्रकार भी अतिशयोक्ति नहीं रखता। जैन शाकोंमें भूमिकी प्राकृतिक आकृतिमें परिवर्तन होते रहना माना गया है । अतएव भारतकी प्राचीन प्राकृतिक आकृति और उसपरके प्रसिद्ध स्थानोंका निश्चय करना अति कठिन काम है। भारतवर्षके प्राचीन नगरों आदिके विषयमें गवर्नमेन्टके पुरातत्व विभागने अपने उद्योगसे कुछ अन्वेषण किया है और उसके परिणामरूपमें जो फल प्राप्त हुआ है उसका मूल्य अति अधिक है। उसका वर्णन यहांपर नहीं किया जा सकता। सामान्यतया मि० कनिंगहम साहबके प्राचीन भूगोलसे लेकर वर्णित केवल कुछ बातें ला० लाजपतरायके प्राचीन इतिहाससे यहां उद्धत करते हैं: भारतके प्राचीन प्रदेश और नगर । चीनी पर्यटकोंने भारतको पांच बड़े प्रांतों में विभक्त किया है। वे पांच प्रांत यह थे: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । (१) उत्तरीय भारत—इसमें संपूर्ण पंजाब विशेष, काश्मीर तथा अन्य निकटवर्ती पहाड़ी राज्य सिन्धु नदीके पार सम्पूर्ण पूर्वी अफगानिस्तान और वे सब देशी राज्य हैं जो सरस्वती नदीके पश्चिममें स्थित हैं। (२) पश्चिमी भारत-अर्थात् सिंधुदेश, पश्चिमी राजपूताना, थोड़ासा गुजरात तथा कुछ भाग उस प्रदेशका जो नर्मदा नदीके नीचले भागमें स्थित है। (३) मध्य भास्त ---इसमें वह सम्पूर्ण प्रदेश मिला. हुआ था जो गङ्गा नदीके किनारों पर स्थित है अर्थात् थानेश्वरसे लेकर द्वीप ( डेल्टा ) के मुहाने तक और हिमालय पर्वतसे लेकर नर्मदा तक। (४) पूर्वी भारत—अर्थात् आसाम, बंगाल, गंगाके त्रिकोण द्वीपकी भूमि, सम्भलपुर, उड़ीसा और गंजाम तक । (५) दक्षिणी भारत-अर्थात् सम्पूर्ण दक्षिण, पश्चिममें नासिक तक, पूर्वमें गंजाम तक, दक्षिणमें कुमारी अन्तरीय तक । इसमें वर्तमान बरार, तैलङ्ग; महाराष्ट्र, कोंकण. हैदराबाद, मैसूर और ट्रावणकोर मिले हुए थे, अर्थात् वह सम्पूर्ण प्रदेश जो नर्मदा और महानदीके दक्षिणमें स्थित है। उस प्राचीन समयके कतिपय बड़े बड़े नगरोंके नाम और स्थान इसप्रकार बतलाए जाते हैं: सक्षमिला-सुआन नदीके समीप हसन अबदाल और जेहलमके बीच था। बहुत सम्भव है कि इस नगरकी स्थिति वैसी ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला परिच्छेद । [४१ थी जैसी कि इस समय रावलपिण्डीकी है। ( यहांकी खुदाईमें एक जैन स्तूप मी निकला है।) सिंहापुर या सिंघापुर-जेहलम जिलेके अन्तर्गत कटासके झरनेके निकट था । मतिपुर-पश्चिमी रुहेलखण्ड । ब्रह्मपुर गढ़वाल और कुमाऊं । कौशाम्बी-यमुना नदीके तटपर प्रयागसे ऊपर स्थित हैं। (जैनोंका प्राचीन केन्द्र था) प्रयाग-इलाहाबाद । (,) वारणसी या वाणारस-बनारस। (,) वैशाली-गङ्गानदीके उत्तरमें तिहुत प्रान्त । ( भ. महावीरका जन्मस्थान इसके निकट था। ) सरस्वती-वैदिक कालमें उस नदीका नाम था जो थानेश्वरके चीचमें बहती थी। बोद्धकालमें सरस्वती एक प्रदेशका नाम था जो अयोध्याके उत्तरमें राप्ती नदीके तटपा था । पाटलिपुत्र-पटना। राजगृह-पाटलिपुत्र और गयाके बीच एक नगर था। नालन्द-पाटलिपुत्र और गयाके बीच एक विश्वविद्यालय । यदि जैन दृष्टिसे हम इस विषयमें विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि अति प्राचीन जमानेमें जैनधर्मके इस युगकालीन धर्मप्रवर्तक श्री ऋषभदेव भगवाननं ही भारतवर्षको विविध देशों में विभक्त किया था और उनपर राजाओंकी नियुक्ति की थी। “उस समय जो पुरुष भगवानसे क्योवृद्ध थे और कुटुम्ब (ईश्वानुवंश ) से स्पन्न थे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । उन्हें तो भगवान आदीश्वरने इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्री राना बना पृथ्वीकी रक्षा करनेका भार सोपा । जो कुरु देशके रहनेवाले शासक थे उन्हें कुरुवंशीय कहा। जो उग्र थे और जिनकी आज्ञा उग्र मालूम पड़ती थी उन्हें उग्रवंशीय बनाया। न्यायपूर्वक प्रजाकी रक्षा करनेवालोंको भोजवंशीय नामसे पुकारा और अनेक मनुष्य जो प्रजाको हषायमान रखते थे उन्हें सामान्य राजा बनाया।"* भगवानने सुकोशल, अवंती. पुंडू, उंड्र, अम्मक, रम्यक, कुरु. काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुहम. समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त. वत्स, पञ्चाल, मालव. दशार्ण. कच्छ. मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट. महाराष्ट्र. सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण. बनवास, आंध्य, कर्णाट, कौशल, चोल, केरल, दास, अभिसार. सौबीर, सूरसेन, अपरांत, विदेह, सिंधु, गांधार, पवन, चदि, पल्लव, काम्बोज. आग्द. वाव्हीक, तुरुष्क, शक और केकय इन बाँवन देशोंकी रचना की x इन देशोंको मुख्य प्रदेशोंके अन्तर्गत इस प्रकार बताया गया है:( १ ) मध्यप्रदेश काशी, कौशल. कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, साल्व त्रिगत, पंचाल. भद्रकार, पाटच्चर. मौक. मत्म्य. कनीय. सूरसेन एवं वृकार्थक । ( २ ) समुद्रतट प्रदेश कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय. आत्रेय, कांबोज, ___ वाल्हीक, यवन, श्रुति, सिंधु, गांधार. सौवीर, सुर, भीरु, दशेरुक, बाडवान. भारद्वाज और क्वाथतोया । । ( ३ ) उत्तर प्रदेश तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि । - * श्री जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण सर्ग ८ पृष्ठ १२८ । ....देखो बार सरजमलकृत " जैन इतिहास " भाग १ पृष्ठ ३८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला परिच्छेद । 1. ( 3 ) पूर्व प्रदेश – खड्ग, मानवर्तिक, मलद आदि । (५) दक्षिण प्रदेश = बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापरि. मूलक, अश्मक. दांडिक, आसिक. नवराष्ट्र, महिषक आदि । ( ६ ) विंध्याचल पृष्टभाग - दशार्णव. किष्किंध, त्रिपुरावर्त नैषध, वैदिश, अन्तप आदि । आंगारक. पौंड्र, मलप्रवक, बंग, मगध, [ ४३ जैन इतिहास में उपरोल्लिखित नगरोंके अतिरिक्त प्राचीन नग I रोका वर्णन साधारणतया इस प्रकार समझना चाहिए: w Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अयोध्या, वा विनीता वा साकेता=अयोध्या फैजाबाद के निकट । श्रावस्ती = अयोध्या के निकट है । चन्द्रपुरी । सिंहपुरी बनारस के निकट है । चम्पापुरी - वर्तमान भागलपुर के निकट | भगवान महावीर के समयमें यहां राजा श्रेणिक बिम्बसारके पुत्र कुणिकका राज्य था । यहीं भगवान वासुपूज्यका जन्म हुआ था । कम्पिल्ला = जिला फरुखाबाद में कायमगंजके निकट | रत्नपुरी = फैजाबाद के पास है । सौरीपुर वा द्वारिका - द्वारिका । कुण्डलपुर - वर्तमान में इसका ठीक स्थान ज्ञात नहीं है । हस्तिनापुर - हस्तिनापुर | पावापुरी = बिहार से दक्षिणकी ओर ७ मील पर । • www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। MMONNIwwamwwwINNOUNAIm द्वितीय परिच्छेद। भरतक्षेत्र में समयचक्र और भोगभूमिका काल। यूरोपके वैज्ञानिकोंका मत है कि मनुष्य पशुकी हालतसे उन्नति करते २ मनुष्यकी अवस्थाको प्राप्त हुआ है; परन्तु इस मतका आधार कोरी कल्पना पर है । इसलिए यह नितान्त असंगत और दार्शनिक सिद्धान्तके विपरीत है। फिर मनुष्यकी उन्नतिक्रमको तीन कालमें विभक्त किया गया है अर्थात् ( १ ) प्राचीन “ शिलाकाल " जिसमें मनुष्य मोटे २ पत्थरके यंत्रोंसे काम लेता था, (२) पत्थरोंके अच्छे यंत्रोंके बननेका समय, और (३) वह काल जिसमें मनुष्यने धातुओंका उपयोग प्रारम्भ किया, किन्तु यह विभाजन भी कल्पित है-सैद्धान्तिक दृष्टिसे पोच है। यथार्थमें मनुष्य अनादिकालसे है। संसारका प्रत्येक पदार्थ अनादि निधन है। जब मनुष्य था तब पशु, पक्षी, वृक्ष, जल, आदि सब थे । मनुष्य केवल पौद्गलिक पदार्थ नहीं है जो उसने पशुसे विकास करके मनुष्यकी दशाको पालिया हो। वास्तवमें वह पुद्गल और चेतन पदार्थ जीव ( Conscious Being=Soul ) का संयुक्त है। वह इस संसारमें अपने पौद्गलिक संबंधकी प्रचुरता, हीनता आदिके लिहाजसे पशु, मनुष्य, नरक, देवगतियोंमें भ्रमण करता है। इस विषयका पूर्ण वर्णन जैन ग्रन्थोंसे देखना चाहिए। यहां पर प्रसंगवश इतना लिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः परिच्छेद । [ ४५ गया है । इस प्रकार मनुष्यका अस्तित्व अनादिकाल से है और उसका इतिहास भी उतने ही कालसे है । संसार (सृष्टि) अनादि है । उसका कर्ताहतां कोई नहीं है, परन्तु इसमें जो पलटनें हुआ करतीं हैं उनका आदि और अन्त अर्थात् शुरू और आखिर दोनों होते हैं। भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में भी यही नियम लागू है क्योंकि वह भी इस सृष्टिके अन्तर्गत है । भरत क्षेत्रमें इस पलटनका नियम दो प्रकारसे है अर्थात् ( १ ) उन्नतिरूपसे और (२) अवनतिरूपसे । पहिली पलटनका नाम उत्सर्पिणी और दूसरीका नाम अविसर्पिणी है । * पहिली पलटनका जब प्रारम्भ होता है तब तो प्रत्येक वस्तुकी क्रम कर उन्नति होने लगती है और वह अपनी सीमा पर पहुंच कर अविसर्पिणी पलटनका आरम्भ " कर देती है जिसमें प्रत्येक वस्तुकी धीरे२ अवनति होने लगती है । वह अवनति भी अपनी सीमाको पहुंच कर उत्सर्पिणीके पूर्वक्रमको उत्पन्न कर देती है और इसी तरह इन पलटनों का क्रम चालू रहता है । अर्थात् उन्नतिसे अवनति और अवनतिसे उन्नतिकी पलटन हुआ करती है । " उन्नति और अवनति जो मानी गई है वह समूहरूपसे मानी गई है, व्यक्तिरूपसे नहीं । उन्नतिके समय में व्यक्तिगत अवनति भी हुआ करती है और अवनति के समयमें व्यक्तिगत उन्नति भी होती है । और विशेषकर उन्नति अवनति । जैनधर्म जड़पदार्थोंकी उन्नति - अवनतिसे * इन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीका उल्लेख अल्बेरुनीने अपने विवरणमें किया है, किन्तु उसके भ्रान्तवर्णनसे ऐसा प्रकट होता है कि उसके समयमें जैनियोंका ह्रास बहुत कुछ हो चुका था । (देखो अबेनीका भारतवर्ष ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६) संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। नहीं मानता किन्तु आत्माकी उन्नति और अवनतिसे मानता है। पलटन इस भांति हुआ करती है प्रत्येक पलटनके छह हिस्से होते हैं और वह १० कोडाकोड़ी सागरकी होती है। (१) अवनतिकी पलटनके पहले हिस्सेका नाम 'सुषमासुःषमा' होता है। यह समय चार कोडाकोड़ी सागरका होता है ! इस समयके मनुष्योंकी आयु तीन पत्यकी होती है। शरीरकी ऊँचाई चौवीस हजार हार्थोकी होती है। ये मनुष्य बड़े ही सुन्दर और सरलचित्तके होते हैं । इन्हें भोजनकी इच्छा तीन दिन बाद होती है और इच्छा होते ही कल्पवृक्षोंसे प्राप्त दिव्यभोजन जो कि बेर ( फल ) के बराबर होता है, करते हैं। इनको मल, नूत्रकी बाधा व बीमारी आदि नहीं होती । स्त्री और पुरुष दोनों एक साथ एक ही उदरसे उत्पन्न होते हैं और बड़े होनेपर पति पत्नीके समान व्यवहार भी करते हैं परन्तु उस समय भाई बहिनके भावकी कल्पना न होनेसे दोष नहीं समझा जाता । वस्त्र, आभूषण आदि भोगोपभोगकी सामिग्री इन्हें कल्पवृक्षोंसे प्राप्त होती है। कल्पवृक्ष पृथ्वीके परमाणुओंके होते हैं, वनस्पतिकी जातिके नहीं होते। इनके दश भेद होते हैं। और दशों तरह के वृक्षोंसे मनुष्योंको भोगोपभोगकी सामिग्री जैसे-वस्त्र, आभूषण, भोजन आदि प्राप्त होते रहते हैं। इनके यहां संतान (सिर्फ एक पुत्र और एक पुत्री एकसाथ) उत्पन्न होते ही माता पिता दोनों मर जाते हैं। बालक स्वयं अपने अंगूठों को चूस चूस कर उन पचास दिनोंमें जवान होजाते हैं। स्त्री पुरुष दोनों साथ मरते हैं और मरते समय स्त्रीको छींक और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - द्वितीय परिच्छेद । १७ wwwNXNNENENINONYANENMEXNANumenmuwww ww • पुरुषको जंभाई आती है। शरीरकी ऊंचाई व मनुष्यकी आयु क्रमशः घट जाती है। (२) अवनतिकी पलटनके दूसरे हिस्सेका नाम सुःषमा है। यह तीन कोडाकोड़ी सागरका होता है। इसमें पहिले हिस्सेसे शरीरकी ऊंचाई आदि घट जाती है। इस कालके मनुष्योंकी ऊंचाई सोलह हजार हाथ और आयु दो पल्यकी होती है। यह भी क्रमशः घटती जाती है। इस कालके भी मनुप्य बहुत सुन्दर होते हैं और भोजन आदि भोगोपभोगके पदार्थ कल्पवृक्षोसे पाते हैं। इन दोनों (पहिले व दूसर) हिम्सोंमें कोई राजा महाराजा नहीं होता। सूर्य और चंद्रमाका प्रकाश भी कल्पवृक्षोंके कारण प्रगट नहीं रहता। सिंहादि क्रूर जंतु. ओंका म्वभाव शांत रहता है। (३) तीसरे हिस्सेका नाम दुःषमा सुःषमा है । यह दो कोड़ाकोड़ी सागरका होता है । इस समय मनुष्योंकी आयु एक पल्यकी और ऊंचाई एक कोशकी होती है। इस समय मनुष्य एक दिन बाद भोजन करते हैं और वह भोजन आंबलेके बराबर होता है । अवनतिकी पलटन होनेके कारण सब बातोंकी घटती होती जाती है। यद्यपि इतिहासका प्रारम्भ उन्नति और अवनतिकी पलटनके पहिले हिम्के प्रारम्भस ही होता है, परन्तु प्रकृत इतिहासका प्रारम्भ तीसरे हिस्सेके आखिरी भागस ही होता है। क्योंकि इतने समय तकके मनुष्य विना परिश्रमके कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त पदार्थोंका ही भोग करते रहमे हैं और कोई धर्म, कर्म भी नहीं रहते जिससे कि मनुष्योंकी जोवन घटनाओं में परिवर्तन हो, अतः प्रकृत इतिहास तीसरे भागके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। पिछले हिस्सेसे ही प्रारम्भ होता है। इसी अंतिम समयमें कुलकरोंकी उत्पत्ति होती है। स्त्रियां पुरुषोंको आर्य और पुरुष स्त्रियोंको आर्ये कहा करते हैं और इस समयमें कोई वर्णभेद नहीं होता-सब एकसे होते हैं । (४) चौथा हिस्सा ब्यालीस हजार वर्ष कम एक हजार कोड़ाकोड़ी सागर समयका होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्योंकी आयु ८४ लाख पूर्वकी होती है और शरीरकी ऊंचाई २२०.. हाथकी होती है। अंतमें जाकर मनुष्य शरीरकी ऊंचाई अधिकसे अधिक ७ हाथकी रह जाती है। यह समय कर्मभूमिका कहलाता है, क्योंकि इस समयके मनुष्योंको जीवन चलानेके लिये व्यवहारिक कार्य करने होते हैं । राज्य, व्यापार, धर्म, विवाह आदि कार्य इसी हिस्से के प्रारम्भसे होने लगते हैं। इसी हिस्सेमें जीवन चलानके अन्यान्य साधनोंकी उन्नतिका प्रारम्भ होता है । यह उन्नति जीवन-निर्वाहके जड़ साधनोंकी उन्नति है और बराबर होती जाती है, परन्तु आत्मज्ञान, अध्यात्म विद्या, सरलता आदि उच्च भावोंकी कमी होती जाती है। इसी हिस्सेमें चौवीस महापुरुष उत्पन्न होते हैं जो अपने ज्ञानसे सत्धर्मका प्रकाश करते हैं। इनकी उपाधि तीर्थकर हुआ करती है। इस चौथे हिस्से तक ही मोक्षमार्ग जारी रहता है, अर्थात् इस हिस्सेके अन्त तक ही मनुष्य मोक्ष जा सकता है। आगे मोक्षमार्ग बंद हो जाता है। चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध पुरुष । भी इस हिस्सेमें होते हैं । इन पुरुषोंकी संख्या ६३ होती है और यह त्रेसठशलाका पुरुष कहलाते हैं। (५) इसके बाद अबपतिकी पलटनाक, पांचवा भाग आता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद । [१९ है। इसका नाम दुःषमा काल है। यह इक्कीसहजार वर्षका होता है। इसमें मनुष्य शरीरकी आयु, बल और लंबाई बहुत कम होती जाती है । इसके प्रारम्भमें ७ हाथका शरीर होता है और १२० वर्षकी आयु रहती है। फिर प्रति हजार वर्षमें पांच वर्ष आयु घटती जाती है। अंत समयमें दो हाथका शरीर व बीस वर्षकी आयु रह जाती है । उस समय मनुष्य मांसभक्षी और वृक्षोंपर बंदरोंके समान रहनेवाले होते हैं । धर्मका लोप होजाता है। (६) छठवें भागमें और भी अवनति होजाती है। इस भागका नाम दुःपमा दुःषमा है। इस कालके जब उनञ्चास दिन शेष रह जाते हैं तब धूल, हवा, पानी, अग्नि, पत्थर, मिट्टी विषकी सात सात . दिनों तक वर्षा होती है अर्थात् प्रचलता होती है। और इनकी प्रबलतासे आर्यखंडके सम्पूर्ण पशु, पक्षी, मनुष्य, नगर, देश, मकान आदि नष्ट हो जाते हैं। यह समय प्रलयका कहलाता है। केवल ऐसे प्राणी जो मातापिताके संयोगसे उत्पन्न होते हैं वे देवोंद्वारा तथा म्वतः सुरक्षित स्थानोंमें जा रहते हैं । यही समय अवनतिकी पलटनकी पूर्णताका है। अवनतिकी पलटन पूरी हो जानेपर ( अवसर्पिणी काल पूरा हो जानेपर ) उन्नतिकी पलटन ( उत्सर्पिणी काल ) का प्रारम्भ होता है। इसके पहिले भागका नाम दुःषमा सुषमा, दूसरा दुःखमा. तीसरा मुम्बमा दुःखमा. चौथा दुःखमा सुखमा, पाँचवाँ सुषमा और छठवाँ सुषमासुषमा होता है। इनमें क्रमशः आयु, काय, सुख दुःख उसी तरह बढ़ते जाते हैं जिस तरह अवनतिकी पल्टनमें घटते थे। अवनतिकी Y Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। पलटनके छठवें भागमें जैसा कुछ समय रहता है वही उन्नतिके पहिले भागमें होता है और पहिले भागमें जो होता है वह उन्नतिके छठवें भागमें होता है। इस प्रकार आर्यखण्डमें समयका परिवर्तन होता है। वर्तमान समय अवनतिकी पलटनका पाँचवाँ हिस्सा है-पंचमकाल है । इसके पहिले चार काल और इस पलटनके पूरे हो चुके हैं ।"* ___ उपरोक्त प्रकार समयचक्रसे हमें ज्ञात होता है कि तीसरे काल अर्थात् भोगभूमिके अन्तिम समयसे प्रकृत इतिहास प्रारम्भ होता है। भोगभूमि उस समयको कहते हैं जिसमें विना किसी व्यापार आदि क्रियाके भोगोपभोगकी सामग्री मिलती हो। इसीके अन्तिम समयमें १४ कुलकर व मनु जन्म धारण करते हैं। इनके द्वारा जीवनकी व्यवहारिक व्यवस्थाका नींवारूपण हो जाता है। इनका विवरण इस प्रकार है कर्मभूमिके वह मनुष्य जो म्वभावसे ही मंदकषाई सम्यक्दृष्टि एवं उत्तम आदि पात्र में दान देनेवाले होते हैं, भोगभूमिमें जन्म धारण कर भोगोपभोगका सुख उठाते हैं । यह कुलकर गंगा एवं सिंधु दोनों नदियोंके मध्यभूमिमें उत्पन्न होते हैं । और इनके जन्म समय कल्पवृक्षोंकी प्रभा मंद होजाती है। कुलकरों में सबसे पहिले कुलकर प्रतिश्रुति थे। इनके कालमें मनुष्योंने आषाढ़ सुदी पूर्णमासीके दिन आकाशमें चंद्र और सूर्य देखे । यद्यपि चंद्र सूर्य अनादिकालसे सदैव उदय अस्तको प्राप्त होते रहते थे और विद्यमान थे, परन्तु उस दिन तक ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्षोंके *सुरजमल जैन कृत "जैन इतिहास" भाग १ पृष्ठ १६-२२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद । \\\\\\\\\\\ होने की वजह से उनका प्रकाश प्रकट नहीं होता था । अब इस दिन इन ज्योतिरंग जातिके वृक्षोंका प्रकाश क्षीण हो गया था; इसलिए चंन्द्र और सूर्य दिखाई देने लगे । उसदिन इन चंद्र और सूर्यको देखकर मनुष्य बड़े भयभीत हुए और किसी विनकी आशङ्का करने लगे । तंत्र वे मनुष्य अपने में अतिशय प्रभावी और सृष्टिपरिवर्तन के नियमों को जाननेवाले प्रतिश्रुति नामक प्रथम कुलकरके पास गए और उनसे सब हाल कहा । प्रतिश्रुतिने उन आगत मनुष्योंको चंद्र-सूर्यका स्वरूप समझाया और भविष्यमें जीवन निर्वाहकी विधि बताई । इस बोधसे मनुष्यों को शांति हुई और इस प्रकार इन्हीं के समय से इति - हासका प्रारम्भ हुआ । कालके भेद पदार्थोंके स्वभावमें अन्तर पड़ जाता है । द्रव्य, क्षेत्र और प्रजाका आचरण औरसे और हो जाता है । प्रसेनजितके समय तक लोग निरपराध थे इसलिए दंड भी निश्चित न थे, परन्तु उनके ही समयसे अब आगे लोग अपराधी होने लगे, अनेक उपद्रव करने लगे इसलिए उन्हें उपद्रवोंसे रोकने के लिए हा, मा, और धिक्कार ये तीन दंड निश्चित किये गए। इस दंडनीतिका प्रयोग उस समय इस सुचारुभाव से किया जाता था कि ' जो मनुष्य किसी काल्दोषसे किसी मर्यादा के उल्लंघन करनेकी इच्छा रक्खें चाहे वे आत्मीयजन हों या परजन हों, उन्हें उनके दोषके अनुकूल अवश्य दंडित किया जाना चाहिये। इस प्रकार दंडनीति व्यवहार व्यवस्था आदि करनेकी अपेक्षा प्रतिश्रुत ही प्रथम कुलकर हुए और मनुष्य उनका कहना मानने लगे 1 * श्री हरिवंशपुराण सर्ग ७ श्लोक १४०-४१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ ५१ 1:1 www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | राजा प्रतिश्रुतिके सन्मति नामका पुत्र उत्पन्न हुआ और वे पल्यका दशवां भाग जीकर स्वर्गलोकके अतिथि बने । इसलिये सन्मति दूसरे कुलकर हुए । इनके समयमें ज्योतिरंग नामके कल्पवृक्षों का प्रकाश इतना भी नही रहा था कि तारागणों और नक्षत्रोंका प्रकाश भी लोगों को दृष्टिगोचर होने लगा । इस प्रकार तारादिकोंको प्रकट होते देखकर उस समय के मनुष्य फिर डरने लगे और वे सन्मति के पास आए। इन्होंने उनको समझाया, ज्योतिषचक्रका सत्र हाल बताया, रात्रि, दिन, सूर्यग्रहण होना आदि सब ही उनको समझाया और ज्योतिष विद्याका प्रचार किया । इस प्रकार " सन्मति पिताकी मर्यादाका भले प्रकार रक्षक था, अनेक कलाओंमें निपुण था और प्रजाको अतिशय मान्य था । " तीसरे कुलकर सन्मति के पुत्र क्षेमंकर थे । इनके समय में सिंहादि क्रूर जंतुओंने अपने शांतभावको छोड़कर कुछ क्रूरताको धारण कर लिया था, इसलिये वे मनुष्योंको तकलीफ देने लगे । पहिले मनुष्य इन पशुओंके साथ रहते थे; परन्तु अब क्षेमंकरके कहनेसे वे उनसे अलग रहने लगे और उनपर विश्वास नहीं करने लगे। इस प्रकार इन्होंने उन सिंहादि पशुओंसे बचनेके अनेक कारण बता लोगोंका बड़ा उपकार किया था । पहले कुलकरोंकी भांति असंख्यात करोड़ों वर्ष बाद चौथे क्षेमंधर नामके मनु हुए। इनके समयसे सिंहादि क्रूर पशुओं की क्रूरता और भी बढ़ गई । इसलिये उनसे रक्षा करनेके लिये इन्होंने उन मनुष्योंको लाठी आदि रखनेका उपदेश दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद। [५३ इनके भी असंख्यात करोड़ों वर्ष बाद सीमंकर नामके पांचवें कुलकर हुए । इनके कालमें कल्पवृक्षोंकी संख्या कम होगई थी और वे फल भी थोड़ा देने लगे थे इसलिए मनुष्य आपसमें झगड़ा करते थे। इन्होंने उन झगड़ोंको दूर किया । हरएककी सीमा बांध दी और बटवारा कर दिया, जिससे अपनी २ हद्दके अनुसार लोग उन कल्पवृक्षोंसे लाभ लेने लगे। सीमंकर पल्यका लाखवां भाग जीकर आयुके अन्तमें स्वर्ग गया। इनके स्वर्गवास होनेपर इनका पुत्र सीमंधर छट्ठा कुलकर हुआ। ‘सीमंधर वास्तवमें सीमंकर ( पिताकी मर्यादा रखनेवाला ) था । और वह भी पल्यका दश लाखवांभाग आयु व्यतीत कर स्वर्गलोक गया।'x सीमंधरके पश्चात् सातवां कुलकर विपुलवाहन वा विमलवाहन हुआ। इन्होंने हाथी, घोड़ा, बैल आदि सवारी करनेवाले पशुओंपर सवारी करनेकी विधि बतलाई । __ इनके असंख्यात करोड़ वर्षोंके बाद चक्षुष्मान नामक आठवें कुलकर हुए। इनके समयके पूर्व संतान उत्पन्न होते ही उनके माता पिता मर जाते थे, परन्तु इनके समयसे संतान होनेके क्षणभर बाद मरने लगे। इन्होंने लोगोंको संतान होनेका कारण बतलाया । इनके भी असंख्यात करोड़ वर्षोंके बाद नौवें कुलकर यशस्वान हुए । इन्होंने मनुष्योंको अपनी संतानोंका नाम धरना सिखाया। इनके समयमें मातापिता कुछ काल तक संतानके साथ रहकर मरते थे। इनके उतने ही समय बाद अभिचन्द्र नामके दशवें कुलकर ___ x श्री हरिवंशपुराण सर्ग ७ श्लोक १५-५५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANRAINWwwwwraNNOUNDAUNandaniMunnao ५४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। हुए। इनके समयमें मातापिता अपनी संतानों के साथ क्रीड़ा करने लगे, इसलिये इन्होंने संतानपालन आदिकी विधि बतलाई। ____ ग्यारहवें कुलकर चंद्राभ थे; जिनके समयमें प्रजा संतानके साथ पहिलेसे अधिक दिनोंतक रहकर मरण करती थी। इनके कुछ समय बाद बारहवें कुलकर मरुदेव हुए | इनके पहिले पुत्र पुत्रीका जोड़ा पैदा होता था, परन्तु इसके जोड़ा न पैदा होकर तेरहवां कुलकर एक ही प्रसेनजित नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, सो इससे यह जाना कि अबसे युगलिया पैदा न होकर एक ही पुत्र या पुत्री उत्पन्न हुआ करेंगे । राजा मरुदेवने पुत्र प्रसेनजितका किसी उत्तम कुलकी कन्यासे विवाह कर दिया। राजा मरुदेवके आधीन उस समयकी सब व्यवस्था थी। ' इन्होंने जलमार्गमें गमन करनेके लिये छोटी बड़ी नाव चलानेका उपाय बताया। पहाड़ों पर चढ़नेके लिये सीढ़ियां बनाना बताया । इन्हींके समयमें छोटी, बड़ी कई नदियां और उपसमुद्र उत्पन्न हुए व मेघ भी न्यूनाधिकरूपसे बरसने लगे।' फिर कुछ समय बाद मरुदेवके स्वर्ग प्राप्त करनेपर प्रसेनजित तेरहवें कुलकर हुए । ' इनके समयमें संतान जरायुसे ढकी उत्पन्न होने लगी । इन्होंने उसके फाड़नेका उपाय बतलाया। इन सर्व व १४ वें कुलकर नाभिरायमेंसे किसीको अवधिज्ञान होता था और किसीको जातिस्मरण होता था। प्रजाके जीवनका उपाय जाननेके कारण ये १-परिमित देश, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी तीनों कालका जिससे ज्ञान हो वह अवधिज्ञान है। २-जाति स्मरणसे भूतकालका स्मरण होता है। ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीय परिच्छेद । मनु कहलाते थे । इन्होंने कई वंशोंकी स्थापना की । अतः कुलकर कहलाते थे । ' * 11111111 तेरहवें कुलकरके कुछ ही समय बाद चौदहवें कुलकर महाराजा नाभिराय हुए । इनके समय में कल्पवृक्ष करीब २ नष्ट हो चुके थे, परन्तु इनके महल में वे वैसे ही विद्यमान थे, अतः भोगभूमिका अन्त महाराज नाभिराय के समय में होगया था और कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ था अर्थात् जीविका के लिये व्यापारादि कार्य करनेकी आवश्यक्ता हुई। इस समय के लोग व्यवहारिक कृत्योंसे बिलकुल अपरिचित थे । खेती आदि करना कुछ नहीं जानते थे और कल्पवृक्ष नष्ट हो ही चुके थे 'जिनसे कि भोजन सामग्री आदि प्राप्त हुआ करती थी', अतएव इन्हें अपनी भूख शांत करनेके लिये बड़ी चिंता हुई और व्याकुलचित्त होकर महाराज नाभिरायके पास आये । ● [५५ \\\\\\\\\ यह समय युगके परिवर्तनका था । कल्पवृक्षोंके नष्ट होने के साथ ही जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी आदिके संयोग से धान्य वृक्षोंके अंकुर स्वयं उत्पन्न हुए और बढ़कर फलयुक्त हो गये व फलवाले और अनेक वृक्ष भी उत्पन्न हुए । जल, पृथ्वी, आकाश आदिके परमाणु इस परिमाण में मिले थे कि उनसे स्वयं ही वृक्षोंकी उत्पत्ति होगई परन्तु उस समयके मनुष्य इन वृक्षों का उपयोग करना नहीं जानते थे । इसलिए महाराज नाभिरायके पास जाकर उन लोगोंने अपने क्षुधादि दुःखको कहा और स्वयं उत्पन्न होनेवाले वृक्षोंका * " जैन इतिहास" बाबू सूरजमलकृत पृष्ठ २५-२६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। उपयोग करनेका उपाय पूछा । महाराज नाभिरायने उनका डर दूर कर उपयोगमें आ सकनेवाले धान्य वृक्ष और फल वृक्षोंको बताया व इनको उपयोगमें लानेका ढंग भी बताया तथा जो वृक्ष हानि करनेवाले थे, जिनसे जीवनमें बाधा आती और रोग आदि उत्पन्न हो सकते थे उनसे दूर रहनेका उपदेश दिया । “वह समय कर्मभूमिके उत्पन्न होनेका समय था । उस समय लोगोंके पास वर्तन आदि कुछ भी नहीं थे, अतएव महाराजा नाभिरायने उन्हें हाथीके मस्तक पर मिट्टीके थाली आदि वर्तन स्वयं बनाकर दिये व बनानेकी विधि बताई।" नाभिरायके समयमें बालकके नाभिमें नाल दिखाई दी और उन्होंने इस नालके काटनेकी भी विधि बताई। " हाथीके माथे पर वर्तन बनाने तथा भोजन बनाना न जानने आदिसे उस समयके लोगोंको आजकलके मनुष्य चाहे असभ्य कहें और शायद जंगली भी कह दें और इसी परसं इतिहासकार परिवर्तनके इस कालको दुनियाका बाल्यकाल समझते हैं, पर जैन इतिहासकी * जैनधर्मके इस कालविभाग और खगोल विद्यांक सम्बन्धम विद्वानोंका मत है कि यह सर्व प्राचीन है। डॉ० स्टीवेन्सन माहन "कल्पसूत्र"की भूमिकामें यही लिखते हैं: “For an account of the Jain vranography and geography. I must refer the reader to the Asiatic Researches, Vol. IX. Their systems seem to have been formed before that of Brahmans, as they have but three terrestrial continents and two seas.” -(Kalpasutra and Navatattwa Intro. XXIV.) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद । [५७ mmsONARAINITAMANNAINAMANANDHARMINATIONAM OHA MANNAMAMINS दृष्टिसे उस समयके लोग असभ्य या जंगली नहीं थे क्योंकि वह समय परिवर्तनका था। जिस तरह एक समाजके मनुष्योंको दूसरी समाजके चालचलन अटपटे मालूम होते हैं और उनका अच्छी तरह संपादन नहीं कर सकता, उसी प्रकार भोगभूमिके समयके-ऐसे समयके जिसमें कि भोग उपभोगके पदार्थ स्वयं प्राप्त होते थे-रहनेवालोंको यदि ऐसा समय प्राप्त हो जिसमें कि स्वयं मिलना बंद हो जाय तो उन्हें अपना जीवन निर्वाह करना कठिनसा हो जायगा और वे जो कुछ उपाय करेंगे वह अपूर्ण और अटपटासा होगा। ऐसा ही समय महाराज नाभिरायके सन्मुख था, अतएव यह समयका प्रभाव था। इसलिये जैन इतिहास उस समयके मनुष्योंको असभ्य नहीं कह सकता। न वह जगतका बाल्यकाल था किन्तु कर्मभूमिका बाल्यकाल था। उस समय जीवन-निर्वाहके साधन बहुत ही अपूर्ण थे।"x महाराजा नाभिरायके अतिशय रूपवान, महान पुण्यवान एवं विद्वान् महषी मरुदेवी थीं। इन्हींके पवित्र गर्भसे प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ था, जिन्होंने कर्मभूमिकी प्रवृत्ति की थी और धर्षका मार्ग सबसे पहिले दर्शाया था। अस्तु, प्रकृत इतिहासका वास्तविक वर्णन यहांसे ही प्रारम्भ होता है, जिसका समावेश हमारे इतिहासके प्रथमभागमें होता है। x देखो बाबू सरजमलका “जैन इतिहास" भाग १ पृष्ठ २३-२४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MINWINNI IN ५८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । तृतीय परिच्छेद। भ० ऋषभदेव और कर्मभूमिकी प्रवृत्ति । कर्मभूमि और ६३ शलाका पुरुष। हम पूर्व परिच्छेदमें देख आए हैं कि भगवान ऋषभदेवके समयसे कर्ममूमिकी प्रवृत्ति हुई थी और उसी कर्मभूमिके चौथे पलटनमें क्रमसे ६३ शलाका पुरुषोंका होना जान आए हैं। जैनधर्मानुसार ६३ शलाका पुरुषोंका वर्णन इस प्रकार है अर्थात् (१) २४ तीर्थकर, (२) १२ चक्रवर्ती, (३) ९ नारायण, (४) ९ प्रतिनारायण, (५) ९ बलभद्र । यह ६३ ही महापुरुष क्रमसे इसी पवित्र भारतमही पर हुए थे। इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नप्रकार है:२४ तीर्थकर। जैनधर्ममें प्रत्येक युगमें २४ तीर्थकर माने गए हैं। इस युगके. आदि तीर्थकर श्री ऋषभदेव थे। जैनधर्ममें तीर्थकरसे भाव उस महाव्यक्तिसे है जो इस संसार-समुद्रसे पार उतरनेके लिये और मोक्षस्थानको प्राप्त होनेके लिए एक धर्म-तीर्थकी स्थापना करते हैं । तीर्थकरका पद जीवको अपने पूर्वभवके विविध गुणोंमें अपनेको पूर्ण करनेसे एवं आत्माके गुणोंको घातक दर्शनावर्णीय आदि कमौके आत्मासे हट जाने पर प्राप्त होता है और वे अनन्त चतुष्टयका उप. भोग करते हैं अर्थात् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत सुख एवं अन्य परमात्मगुणोंके अधिकारी होते हैं। अस्तु, बृहत् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । [ ५९. स्वयंभू स्तोत्र में भी समन्तभद्राचार्यजी तीर्थंकर भगवान के विषय में क्या ही उत्तम कहते हैं:-" येन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ, ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखं । ” इन २४ तीर्थंकरोंमेंसे २२ तो इक्ष्वाक् वंशके थे, १ हरिवंशके थे और १ काश्यपीय नाथवंशके थे । * श्री ऋषभदेव । 110 इन २४ तीर्थंकरों में सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव थे। ये १४ वें कुलकर नाभिरायके पुत्र थे और कर्मभूमिके प्रवर्तक और धर्मतीर्थ सर्व प्रथम संस्थापक थे । इनके जन्म से १५ महिने पहिले ही पुण्य प्रभावकी महानता से महाराजा नाभिराय और रानी मरुदेवीके रहनेके लिए देवोंने विशाल अयोध्यापुर नगर बसाया था और उसमें एक सुन्दर राजमहल बनाया एवं तब हीसे वहां इन्द्रोंने रत्नोंकी वर्षा करना प्रारम्भ की थी । भगवानके पिताके राजमहलके विषय में श्री हरिवशपुराण में लिखा है कि " राजा नाभिके मंदिरका नाम सर्वतोभद्र था । यह सर्वतोभद्र अनेक स्वर्णमई स्तंभोंसे व्याप्त, भांति भांति की मणिमयी भित्तियों से शोभित, पुष्पोंकी माला, मूंगोंकी माला एवं मोतियोंकी मालासे रमणीय चौतर्फी विशाल था । इसमें इक्यासी खने थे एवं उत्तमोत्तम प्राकार ( परकोटा ) बावड़ी और उपवनोंसे इसकी शोभा विचित्र ही दिख पड़ती थी ॥ ८ ॥ ३-४ ॥” * इक्ष्वाक् वंशमें प्रारम्भसे ही जिनधर्मका प्रचार रहा है । कवि सम्राट् कालिदास भी इस ही बातकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने लिखा कि रघुगण जो इक्ष्वाक् वंशके ' थे उन्होंने प्रारंभिक जीवनमें राजभोग कर अन्तमें साधु . हो तपस्याके बल मुक्ति प्राप्त की है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] साक्षप्ति जैन इतिहास प्रथम भाग | जिस समय भगवान ऋषभदेव गर्भमें आए उसके पहिले महारानी मरुदेवीने इस भांति शुभके सूचक सोलह स्वप्न देखे - (१) सफेद ऐरावत हाथी (२) गम्भीर आवाज करता हुआ एक बड़ा भारी बैल (३) सिंह (४) लक्ष्मी (५) फूलोंकी दो मालाएं (६) तारों सहित चन्द्रमण्डल (७) उदय होता हुआ सूर्य (८) कमलों से के हुए दो सुवर्ण कलश (९) सरोवरोंमें क्रीड़ा करती हुई मछलियाँ (१०) एक बड़ा भारी तालाव (११) समुद्र (१२) सिंहासन (१३) रत्नों का बना हुआ विमान (१४) पृथ्वीको फाड़कर आता हुआ नागेन्द्रका भवन (१५) रत्नोंकी राशि और (१६) विना धुऐंकी जलती हुई । यह स्व महारानी मरुदेवीने रात्रिके पिछले पहर में देखे थे; और इनके अन्त में एक महान बैलको मुखमें प्रवेश करते हुए देखा था । प्रात:काल उठकर नित्यक्रियादिसे निवृत्त हो महारानी मरुदेवी महाराजा नाभिराय के पास गई थीं। महाराजाने उनको सिंहासन पर - अपने निकट बैठाया था; क्योंकि उस समय परदा नहीं था । और स्त्रियोंका पुरुष बड़ा सम्मान किया करते थे । . महाराजा नाभिरायने महारानीके स्वप्नका फल अवधिज्ञानसे जानकर बतलाया था कि ' तुम्हारे गर्भ में भगवान ऋषभदेव आए हैं।' आषाढ़ सुदी दूज उत्तराषाढ़ नक्षत्रको भगवान, मरुदेवी के गर्भ में आए थे। इस समय देवोंने आकर अयोध्यापुरी में उत्सव मनाया था और देवियोंने माताकी सेवा करना प्रारम्भ करदी थी । नौ मासके व्यतीत होनेपर उत्तरा नक्षत्रमें मरुदेवीने भगवानको · जना था । उनके उत्पन्न होते ही चारोंओर धन वर्षा होने लगी थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INR N INNNNOWINNELAMMANNAINAINMEANCENANINine. तृतीय परिच्छेद। .. [६१ विविध दिकमारियोंने यथाविधि भगवानका समस्त उत्पत्ति समयका 'कर्म किया था। भगवानके जन्म प्रभावसे तीनों लोकके देवोंके आसन कंपायमान हुए थे, जिससे उन्होंने भगवानका जन्म हुआ जानकर महोत्सव मनाया था। इन्द्रने अयोध्यामें आकर इन्द्राणी द्वारा बालक भगवानको मंगाया। उनके रूपराशिको देखनेके लिए उसने एक हजार नेत्र बनाए पश्चात् हाथीपर बैठाकर वह उन्हें मेरुपर्वतपर लेगया । इस समय अन्य देव भगवानपर चमर छत्र लगाए साथ २ चल रहे थे। मेरुपर्वतपर पांडुकवनमें एक रत्नमई पांडुकशिला है उसपर भगवानको बिराजमान किया था और क्षीरसमुद्रके जलसे उनका अभिषेक किया था। पश्चात् इन्द्रने वस्त्राभूषण पहिनाकर भगवानको अयोध्या .वापिस लाकर माता पिताके सुपुर्द किया । उन्होंने भी विशेष उत्सव मनाया था। इन्द्रने उस समय नृत्य गानयुक्त आनंद नाटक भी किया था। भगवान ऋषभदेव धर्मके सबसे पहिले बतलानेवाले थे, इसलिए इन्द्रनं उनका नाम “वृषभनाथ" रक्खा था। इसके अतिरिक्त इनके गर्भ में आनेके पहिले माताने स्वप्नोंमें सबसे अखीर एक बैल देखा था, इसलिए इनके मातापिता भी इन्हें वृषभ कहकर पुकारा करते थे। भगवानकी बाल्य अवस्थामें देव-देवियां उनकी सेवा किया करती थीं । भगवान बालक बड़े ही सुन्दर और सौम्य थे। वे जन्मसे ही मतिज्ञान (मानसिक ज्ञान) श्रुतज्ञान (शास्त्रज्ञान) और अवधिज्ञान (पूर्वजन्म आदिकी बातें जानना) इन तीन ज्ञानोंके धारक थे। बालकपनेमें देवगण इनके साथ बालरूप धारकर खेला करते थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। ___ " भगवान् ऋषभ स्वयंभू थे, स्वयंज्ञानी थे,* उन्होंने विना पढ़े ही सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया था। ये बड़े यत्नसे संसारका निरीक्षण करते थे और योग्यतापूर्वक कार्योका सम्पादन करते थे। भगवानकी * हिन्दुओंके भागवतमें उन्हें नाभिरायका पुत्र बतलाया है और लिखा हैं कि " जन्म लेते ही ऋषभदेवके अनमें सकल भगवत्लक्षण झलकते थे। सर्वत्र समता, उपशम, वैराग्य, ऐश्वर्य और महैश्वर्यके साथ उनका प्रभाव दिन २ बढ़ने लगा। वह स्वयं तेज, प्रभाव, शक्ति उत्साह, कांति और यश प्रभृति गुणसे सर्वधान बन गए।" -विश्वकोष भाग २ । डॉ० स्टीवेन्सन साहब इस ही बातको लक्ष्यकर कहते हैं किः “The Second point in the Jain traditions which I imagine has a historical basis, is the account they give of the religious practice of Rishabha, the first of their Tirthankaras. He, too, like Mahavira, is said to have been a Digambara. In the Brahmanical Puranic records, he is placed second on the list of Kings, in one of the regal families, and said to have been father to that Bharat from whom India took its name. He is also said, in the end of his life to have abandoned the world, going about every where as a naked ascetic. It is so seldom that Jains and Brahmans agree, that I do not see how we can refuse them credit in this instance, where they do so." (Kalpasutra Intro. XVI. ) __डॉ० साहबने यहां ब्राह्मण पुराणोंमें जो उक्त प्रकार जैन पुराण की पुष्टि की है उसको काबिल विश्वास बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " तृतीय परिच्छेद। [६३ युवावस्थाकी चेष्टाएँ परोपकारके लिये होती थीं। और उनसे प्रजाका पालन होता था। वे अनुपम बलशाली और दृढ़तासे कार्योको करनेवाले थे। समयको निरर्थक नहीं जाने देते थे । भगवान् ऋषभ गणितशास्त्र, छन्दशास्त्र, अलंकारशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, चित्रकला, लेखनप्रणालीका अभ्यास करते थे। उन्होंने ही सबसे पहिले इन बातोंको अन्य लोगोंको बताया था। वे मनोरञ्जनके लिये गाना बजाना और नाटक एवं नृत्यकी कलाओंका भी उपयोग करते थे । देव बालकोंके साथ विविध खेल भी खेला करते थे। ये जलक्रीडा-तैरना-आदि भी करते थे।' जब भगवान युवा हो गये तब महाराज नाभिने इनसे विवाह करनेके लिये कहा । भगवानने अपने आदर्शचरित्रसे भविष्यमें विवाहादिक मार्ग चालू करनेके लिए अपनी सम्मति केवल · ऊँ' शब्द कहकर दी। तदनुसार कच्छ महाकच्छ नामक दोनों राजाओंकी परम सुन्दरी नन्दा, सुनन्दा नामक दो कन्याओंसे आपका विवाह हुआ था । “ रानी नन्दाके समस्त भरतक्षेत्रको आनन्द देनेवाला प्रथम चक्रवर्ती भरत नामका पुत्र और महा मनोहर ब्राह्मी नामकी कन्या उत्पन्न हुई। और सुनन्दाके महाबलवान बाहुबलि और परमसुंदरी सुंदरी नामकी कन्या हुई । भरत और ब्राह्मीके अतिरिक्त गनी नंदाके वृषभसेन आदि अंठानवे पुत्र अन्य हुये और ये समस्त पुत्र तद्भव मोक्षगामी थे। भगवानने अपने समस्त पुत्र पुत्रियोंको अक्षर विद्या, चित्र विद्या, गान विद्या और गणित आदि विद्याओंमें अतिशय निपुण x बा० सुरजमलका "जैन इतिहास भाग १ पृष्ठ ३३-३४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। कर दिया था । * और उनके कर्णछेदन, मुण्डन, यज्ञोपवीत संस्कार आदि भी भगवानने किए थे। भगवान ऋषभदेवने सबसे पहिले अपनी दोनों कन्याओंको ज्ञान दान दिया था। एक दिवस उन्होंने ' उन्हें पढ़नेके लिये मौखिक उपदेश देकर विद्याका महत्व बताते हुए अ, आ, इ, ई, आदि स्वरोंसे अक्षरोंका ज्ञान प्रारम्भ कराया और इकाई, दहाई आदि गिन्ती भी पढ़ाना प्रारम्भ किया। भगवान ऋषभदेवके चरित्रमें अपने पुत्रोंको पढ़ानेका वर्णन कन्याओंके पढ़ानेके बाद आया है। इससे मालूम होता है कि भगवानने स्त्रीशिक्षाका महत्व जगतमें प्रगट करनेको ही ऐसा किया। अपने इस आदर्श कार्यमें भगवानने यह गूढ़ रहस्य रक्खा और प्रगट किया है कि पुरुष शिक्षाका मूल कारण स्त्रीशिक्षा ही है। दोनों कन्याओंके लिए भगवानने एक “ स्वायंभुब" नामक व्याकरण बनाया था और छन्दशास्त्र, अलंकारशास्त्र आदि शास्त्र भी बनाए थे।'x नाभिरायके समय जो धान्य एवं फलादि स्वयं प्राकृतिक रूपमें उत्पन्न हुए थे, वह भी नष्ट होने लगे और उनमें रस आदि भी कम होने लगा। तब प्रजा, राजा नाभिके पास आकर अपने इस दुःखको उनसे कहने लगी। राजा नाभिने उसको भगवान ऋषभके पास भेज दिया। समस्त प्रजाको भूखसे व्याकुल देख अतिशय दयालु भगवान ऋषभने उन्हें दिव्य आहार दे क्षुधाजन्य त्राससे बचाया। "जीविकाके लिये अनेक उपाय बतलाए । धर्म, अर्थ, कामके साधनोंका उपदेश * श्रीहरिवंशपुराण सग ९ श्लोक २१-२४ । x सरजमलकृत जै. इ. भाग १, पृ ३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । www [ ६५ दिया । प्रजाके कल्याणार्थ उपायोंके साथ साथ असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प, इन षट्कर्मोंका भी उपदेश दिया गौ भैंस आदि पशुओं का संग्रह कर उनके पालने की विधि बतलाई । सिंह आदि दुष्ट जीवों से बचने का उपाय बतलाया | भगवान के सौ पुत्रोंने और प्रजाने उस समय अनेक कला शास्त्र सीखें और सैकडों को शिल्पो बनाया। शिल्पकला में प्रवीण कारीगरोंने उस समय भरतक्षेत्रकी पृथ्वीपर अनेक पुर, गांव, घर, खेट, खर्वट बनाए । उस समय भगवानने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णोकी स्थापना की। जो वणिकवृत्ति व्यापार करनेवाले थे, उन्हें वैश्य किया और जो शिल्पविद्या में चतुर थे- मकान आदि बनाना जानते थे, उनको वर्ण शुद्ध ठहराया । षट्कर्मोंका उपदेश देकर भगवान ने उस समय प्रजाको सुखी किया, उनकी बुद्धिमें नवीन युगका संचार किया । इसलिए उन्हें लोग कृतयुग कहने लगे ।" भगवान ऋषभनाथके कहने से इन्द्रने जिन मंदिरों, देश, उपप्रदेश, नगर आदिकी रचना की थी। भगवान के समय में ही पूर्वोल्लिखित ५२ देशोंकी रचना की गई थी। इन देशों में कहीं जलकी सिंचाई से 1 इन्हीं कारणवश शायद हिदुओंने आपकी अपने अवतारोंमें गणना की है । आपने लिपि बिद्याका भी सबसे पहिले प्रचार किया था, जैसे कि हिन्दी विश्वकोषके भाग १ में भी कहा है । * श्रीहरिवंशपुराण सर्ग ९ श्लोक ३३-४० हिन्दुओंकी मनुस्मृतिमें आपके विषय में लिखा है: ' दर्शयन् वर्त्मवीराणां सुरासुरनमस्कृतः । नीतित्रयस्य कर्ता यो युगादौ प्रथमो निनः ॥ ' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat د. www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। खेती होती थी, और कहीं जल वृष्टिके आधारपर ! इस समय प्रत्येक देशके राजा भी नियत कर दिए थे। उस समय ऐसे भी देश थे जहां भील, लुटेरे, शिकारी आदि शूद्रोंका राज्य था। इन बातोंके साथ २ निम्नके छोटे बड़े गांवकी रचना आदिके वर्णनसे हम उस प्रारंभिक समयकी सभ्यताका भी अन्दाजा कर सकते हैं जो वैदिक सभ्यतासे प्राचीन एवं उसकी जड़ थी। उस समय ग्राम आदिकी रचनाका क्रम इस प्रकार थाः " राजधानी प्रत्येक देशके मध्यमें बनाई गई थी, जिनमें कांटोंकी बाढसे घिरे हुए मकान बनाये गये थे और किसान व शूद्र रहते थे। ऐसे सौ घरोंका छोटागांव और पांचसौ घरोंका बड़ा गांव कहलाता था। छोटे गांवकी सीमा एक कोशकी और बड़े गांवकी सीमा दो कोशकी, स्मशान, नदियों बंबूल आदि कांटेदार वृक्षों व पर्वत और गुफाओंसे की गई थी। गांवोंको बसाना, उनका उपभोग करना, गांव निवासियों के लिये नियम बनाना, गांवोंकी आवश्यक्ताओंको पूरी करना, आदि कार्य राज्यके आधीन रखे गये । जिन स्थानोंपर मकानात हवेलियां, कई बड़े २ दरवाजे बनाए गए और प्रसिद्ध पुरुष बसाए गए उन स्थानोंका नाम नगर पड़ा। नदियों और पर्वतोंसे घिरे स्थानोंको खेट नाम दिया और चारोंओर पर्वतोंसे घिरे स्थानोंको खर्वट नाम दिया । जिन गांवोंके आसपास पांचसौ घर थे उन्हें मंडव नाम दिया गया। समुद्रके आसपासवाले स्थानोंको पत्तन और नदीके पासवाले गांधोंको द्रोणमुख संज्ञा दी। राजधानियोंके आधीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद। [६७ आठ आठ सौ गांव, द्रोणमुख गावोंके आधीन चार चार सौ और खर्वटोंके आधीन दो दो सौ रक्खे गये। उस समय भगवानने शूद्रोंके दो भेद किये-एक कारु और दूसरा अकारु । धोबी, नाई वगैरह कारु कहलाते थे। इनसे भिन्न अकारु । कारु शूद्रोंके भी दो भेद किये गये, एक स्पृश्य-छूने योग्य, दूसरे अस्पृश्य-न छूने योग्य । स्पृश्योंमें नाई वगैरह थे और जो प्रजासे अलग रहते थे वे अस्पृश्य कहलाते थे। ' इस प्रकार कर्मयुगका प्रारम्भ भगवान ऋषभने आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदाको किया था। इसलिये वे कृतयुग-युगके करनेवाले हैं। और इसी लिये उस समय प्रजा आपसे विधाता. सृष्टा, विश्वकर्मा आदि कहा करती थी।' इस युगके प्रारम्भ करनेके बाद भगवान ऋषभ सम्राट् पदवीसे विभूषित किये गये और उनका राज्याभिषेक किया गया। सब क्षत्रिय राजाओंने भगवानको अपना स्वामी बनाया। महाराजा नाभिरायने भी भगवानको राज्यका स्वामी बनाया था । सम्राटपद पानेके अनंतर भगवानने व्यापारादिके एवं शासनके नियम बनाए । भगवानने क्षत्रियोंको शस्त्र चलानेकी शिक्षा स्वयं दी थी और वैश्योंके लिये परदेश गमनका मार्ग खुला करनेके लिये स्वयं विदेशोंको गये। और स्थल यात्रा व जल यात्रा, समुद्र यात्रा प्रारम्भ की। * भगवामने उस समय विवाह के नियम भी बना दिये थे। प्रगट कर दिया था कि शूद्र शूद्र * सू० म०का जे. इ० भाग १ पृष्ठ ३९-४१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। NAAMONTAINMAMINONNNNAINITMENINMAMALINIONARAINIACINIANTARANAMANIKAMANATANAM कन्यासे, वैश्य वैश्य और शूद्र कन्यासे एवं क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कन्यासे विवाह करे । x इससे प्रकट है कि उस समय केवल वर्णभेद था । जातिभेद नहीं था। और यह भी एक विशेष उल्लेखनीय बात थी कि अपने वों की आजीविका छोड़कर दूसरे वर्णों की आजीविका कोई नहीं कर सकता था। भगवानकी दण्डनीति भी उनके पिताके समान हा, मा और धिक्कार थी, क्योंकि आपके समयकी प्रजा भी बड़ी सरल शांत और भोली थी। भगवानने हरि. अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ, इन चार राजाओंको एक एक हजार राजाओंके ऊपर नियत किया और इनका पद महामण्डलेश्वर स्क्खा । इन्होंने ही क्रमसे हरि, नाथ, उप और कुरुवंशोंकी स्थापना की थी। उस समयका कर भी अति अल्प था। सबसे पहिले भगवानने ईखके रसको संग्रह करनका उपदेश दिया था. इसलिए भगवान और उनका वंश इक्ष्वाकु कहलाया। भगवानने अपने पुत्रोंको भी राज्य बांट दिया था। इस प्रकार भगवानका यह सम्पूर्ण समय परोपकारमें गया था। हमारे उपर्युक्त वर्णनकी पुष्टिमें हिन्दुओंका भागवत विशेष साक्षी रखता है। उसमें भगवान ऋषभनाथका वर्णन करीबर जैनमतानुसार दिया हुआ है। 'भागवतके मतसे ऋषभदेव भगवानका आठवां अवतार है (१-३-१३) वह लोक, वेद ब्राह्मण और गौ सबके परम x श्री जिनसेनाचार्यने ही आदिपुराणमें ऐसा उल्लेख किया है; यद्यपि कथा-अन्योंके अध्ययनसे विदित होता है कि भगवान महावीरजीके समय तक अनुलोम विवाह चारों वर्गों में ही परस्पर चालू थे। ऊंच नीचका कम ख्याल था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । 1111 [ ६९ गुरु थे और उन्होंने सकल धर्मके मूल गुह्य ब्राह्म धर्म (आत्मधर्म) का ब्राह्मण दर्शित मार्गके अनुसार उपदेश दिया था (५-६ - अ०) ब्रह्मावर्तमें ब्रह्मर्षियों की सभा के बीच उन्होंने + ब्राह्मधर्मका प्रचार किया (५-४-१६-१९) राजर्षि भरत उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र थे । उन्हीं के नामपर इस देशका नाम भारतवर्ष रखा गया है । वह ब्रह्माक्षरका प करते थे (५–८–११) । * इस वर्णन से प्रकट है कि ऋषभदेवने ही प्रथम रूपमें लौकिक और धार्मिक विद्याओंकी सृष्टि की थी, जिसका महत्व और उत्तमता उक्त वर्णन से प्रगट है । "कदाचित् भगवान सभामंडप में सिंहासनपर विराजमान थे, इन्द्रकी नृत्यकारिणी नीलांजसा उनके सामने नाच रही थी । नानते नाचते ही वह तत्काल विला गई और उसे विलीयमान देख भगवानको वैराम्य हो गया । " x भगवानको वैराग्य हुआ जानकर लौकांतिक देवोंन आकर भगवानकी स्तुति की और भगवानके वैराग्य चितवनकी सराहना की । तत्क्षण ही उन्होंने युवराज भरतका राज्याभिषेक कर दिया और युवराज पद कुमार बाहुबलिको प्रदान कर दिया । इतने में ही इन्द्रोंने स्वर्ग से आकर भगवानका अभिषेक किया और खूब उत्सव मनाया। तब 'भगवान अपने माता पिता आदि परिवार से पूछकर तपके लिये वनकी ओर चल दिये। वे बत्तीस पैडतक तो पैदल ही चले पश्चात् लोगोंके + ब्राह्म धर्मसे भाव आत्म धर्म है अर्थात् आत्माके ज्ञानको बतलानेवाली विद्या । ब्राह्मण दर्शित से भी आत्मज्ञानसे प्रदर्शित ज्ञान समझना चाहिए । * विश्वकोष भाग १ पृष्ठ ६४ | ★ श्री हरिवंशपुराण सर्ग ९ श्लोक ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] संक्षिप्त जैन इतिहास: प्रथम भाग | कहने पर वे पालकी में सवार हो लिये और उदयाचल पर्वत पर सूर्यकी शोभा धारण करने लगे । ' x 6 जाकर ' चैत्र वदी नौमीके दिन भगवान् ॠषभने सिद्धार्थ नामक वनमें जो अयोध्यासे न तो दूर था और न बहुत पास ही था, सब कुटुम्बियों की आज्ञापूर्वक दिगम्बर दीक्षा धारण की। दीक्षा लेते समय सब परिग्रहों का त्याग किया। भगवानके साथ चार हजार राजा - ओंने दीक्षा धारण की थी । दीक्षा लेनेके बाद इन्द्रोंने भगवानकी पूजा की। भगवानने पहिले छह मासका उपवास धारण करनेकी प्रतिज्ञा कर तप करना प्रारम्भ किया, तप धारण करते समय भगवानको मन:पर्ययज्ञानकी उत्पत्ति हुई । इस ज्ञानसे मनकी गति जानी जाती है । जिन राजाओंने भगवानके साथ दीक्षा ली थी, वे दुःखोंको सहन न कर सके और फलफूल खाने लगे- उनसे भूख न सही गई । महाराजा भरत के डर से ये शहरों में नहीं जाते थे, इन लोगोंने भिन्न २ मेष धारण कर लिये थे। किसीने लंगोटी लगा ली थी, कोई दंड लेकर दंडी बन गया था, किसीने तीन दंडोंको धारण किया था, इसलिये उसे लोग त्रिदण्डी कहते थे । इन लोगोंके देव भगवान् ऋषभ ही थे । ' * इसी समय भगवानके पौत्र मरीचिने तपसे भ्रष्ट हो सांख्यमत के सदृश एक धर्मकी स्थापना की थी और योग शास्त्रोंकी रचना की थी । भगवानने नग्न दिगम्बर दीक्षा ही धारण की थी, यह हम पहिले लिख चुके हैं। हिन्दुओंके भागवतमें भी इसी बात की पुष्टि है । * पूर्व पृष्ठ १३२ । * जैन इतिहास भाग १ पृष्ठ ४४-४५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः परिच्छेदः । [ ७१ 6. उसमें लिखा है कि " ऋषभदेवने अपने ज्येष्ठपुत्र भरतको राज्य सौंप परमहंस धर्म .... के लिये संसार त्याग किया था । उसी समय उन्होंने दिगम्बर वेश में .... ब्रह्मावर्तसे पैर बढ़ाया । ऋषभदेवने मौनव्रत पकड़ा था ।.... ऋषभदेव स्वयं भगवान और कैक्ल्यपति ठहरते हैं। योगचर्या उनका आचरण और आनन्द उनका स्वरूप है । "X 01111111 भगवाननं छह महीने तक बड़ा ही कठिन तप किया । भगवानकी जटाएं बढ़ गई थीं । भगवानकी शांतिका प्रभाव वनके पशुओं पर यहां तक पड़ा कि वे आपसी विरोधभाव भी छोड़ चुके थे । छह मास पूरे होजानेपर भगवान आहारके लिये नगरोंमें गये परन्तु 6 x भागवत ५ - ४, ५, ६ अ० भागवतमें यद्यपि भगवानकी जन्मादि सम्बन्धी ठीक लिखी हैं परन्तु आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण उनके धर्मके विषयमें ऊटपटांग लिखा है । जैनियोंका श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी ऋषभदेवके दिगम्बरत्वको स्वीकार करता है । यद्यपि वह अन्तिम तीर्थंकरको छोडकर शेषको सवत्र बतलाता है, जो यथार्थता के विपरीत है जिसके विषयमें द्वितीय भागमें विचार किया जायगा । भगवान् ऋषभ और महावीरजी के विययमें उसके मान्य ग्रन्थ ' कल्पसूत्र' में स्पष्ट लिखा है कि यह दोनों तीर्थकर अचेलक - नन दिगम्बर थे। डॉ० स्टीवेन्सन उस अंशका अनुवाद इस प्रकार करते हैं: : ' 1. What then, is meant by Achelakya ? He who is without Chela, that is to say, clothing, it is Achelakka and the abstract noun Formed from that is Achailakya ( Unclothedness ). Achailak ya is the attribute of Rishabha and Mahavira alone of all the princisal yatis." (Kalpasutra p. 3.) अतएव यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋत्रभने दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । आहार देनेकी विधि उस समय कोई नही जानता था । भगवानका अभिप्राय न समझ कोई कुछ और कोई कुछ भगवानके सन्मुख रखता था, परन्तु भगवान उनकी ओर देखते तक न थे । अन्तमें जब करीब सात माहसे कुछ दिन ऊपर होगये तब वैशाख सुदी ३ को कुरुजांगल देशके राजा सोमप्रभके छोटे भाई युवराज श्रेयांसने जातिस्मरण - पूर्वभवका ज्ञान होजानेसे विधिपूर्वक इक्षुरसका आहार दिया। इससे उस राजाके यहां इन्द्रों व देवोंन पंचाश्चर्य किये थे। एक दिन भगवान विहार करते२ पुरिमताल नामक नगरके पासवाले शकट नामक वनमें जा पहुंचे और वहांपर ध्यान धारण किया। भगवानके बड़े भारी तपश्चरणसे चार घातिया कर्मों का नाश हुआ और भगवानको केवलज्ञान, सर्वज्ञत्व प्राप्त हुआ। जिस दिन भगवान सर्वज्ञ हुए वह दिन फाल्गुन वदी एकादशीका दिन था | भगवानके केवलज्ञानका समाचार प्राकृतिक रीतिसे स्वयं ही स्वर्गमें पहुंच गया। इतने बडे महागाके सर्वज्ञ होनेपर जगतमें प्राकृतिक रीतिसे विलक्षण परिवर्तन होजाना आश्चर्यजनक नहीं कहला सकता । अतएव भगवानके सर्वज्ञ होते ही स्वर्गों में बाजे म्वयमेव बजने लगे, घण्टोंकी ध्वनि हुई, पृथ्वीपर चारोंओर चार २ कोशतक सुकाल होगया, छहों ऋतुओंके फलफूल एक ही समय में उत्पन्न होगये आदि कई आश्चर्यजनक घटनाएं हुई। स्वर्ग में भगवानके सर्वज्ञ होनेके चिह्न प्रगट होते ही उसी समय इन्द्रोंने अपने आमनसे उठकर भगवानको नमस्कार किया और देवोंकी सेनाके साथ बड़ी सजधजसे भगवानकी पूजा करनेको आए ।* *जै० इति० भाग १ पृष्ठ ४५-४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । [७३ "राजा भरतने उस समय अपने पुत्रकी उत्पत्ति, चक्ररत्नकी प्राप्ति और भगवानको केवलज्ञानकी प्राप्ति, ये तीन शुभ समाचार सुने. परन्तु वे सबसे पहिले कुरुवंशीय, भोजवंशीय आदि अनेक राजाओं और चतुरङ्ग सेनासे वेष्टित हो. भगवान ऋषभदेवकी वंदनाके लिये गये और वहां भगवानकी भक्तिभावसे पूजा की । तालपुरके स्वामी राजा वृषभसेन भी समवशरणमें आये और संयम धारण कर भगवानके प्रथम गणधर होगये। अतिशय धीर भगवान ऋषभदेवकी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरीने अनेक स्त्रियोंको दीक्षा धारण कराई और समस्त आर्यिकाओंकी अग्रेसरी होगई ।....भगवानके समवशरणमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, यह चार प्रकारका संघ मौजूद था। चारों निकायके देव थे। भगवानके समवशरण (मभाग्रह ) की रचना बारह योजनपर्यंत ( इन्द्रद्वारा ) की गई थी । भगवानके समवशरणमें बड़े २ बारह कोठे थे। उनमें भगवानकी दाहिनी ओर पहिले कोठेमें ही तो मुनिराज बिराजमान थे, दूसरे कोठेमें कल्पवासी देवियां, तीसरेमें आर्यिका, श्राविका और अनेक म्रियां । * चौथमें ज्योतिषी देवोंकी देवियां, पांचवीं सभामें व्यन्तर देवोंकी स्त्रियां । छठीमें भवनवासी देवोंकी देवांगना. यातवमें भवनवासी देव, आठवीमें व्यंतरदेव, नवमी सभामें ___*त्रियों को जो देयदृष्टिसे देखते हैं उन्हें ध्यान देना चाहिये कि स्वयं भगवानकी सभाम स्त्रियों का इतना मम्मान था कि उनको माधारण पुरुषोंसे पहिले स्थान दिया गया था। न ही मनुष्योंके कोठेमें ऊँच नीचका कोई भेद नहीं किया है । इससे प्रगट हैं कि चांडाल आदि जीवोंसे भी द्वेष नहीं किया जाता था। उनको भी भगवानके उपदेशको सुननेका हक प्राप्त था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । ज्योतिषी देव, दशवी सभामें कल्पवासी देव, ग्यारहवीमें चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवीं सभा में तिर्यच बैठे।" भगवान् ऋषभदेव इस ही समवशरणके मध्य वेदिकामें सिंहासनके ऊपर अधर विराजमान रहते थे और उनके ऊपर तीन रत्नमयी छत्र लगे थे एवं चौसठ चमर दुलंते थे। भगबानकी इस सभामें किसीके लिए आने जानेकी रोकटोक नहीं थी । हरकोई वहां आकर भगवा नका उपदेश सुन सक्ता था । पशु भी वहांपर धर्मोपदेश सुनते थे। गर्जकि भगवानकी दृष्टिमें साधारण और विशेष सब जीव समान थे। और भगवानका दिव्य प्रभाव इतना था कि पशुओंने अपने आपसी कुदरती वैरको भी छोड़ दिया था। भगवानका उपदेश विना इच्छाके ही प्रतिदिन तीनवार हुआ करता था और उसको समस्त प्राणी अपनी २ भाषामें समझ लेते थे। उसका उच्चारण अक्षररहित; विना दांत और ताल आदिमें क्रिया हुए ही होता था। वह आत्माकी अन्तरध्वनि थी- अहंनाद' था । आत्माकी वह · अपनी बोली ' योगका चमत्कार था। भगवानके उपदेशको सुनकर धारण करनेवाले गणधर होते हैं। भगवानके मुख्य गणधर- वृषभसेन थे। सभामें प्रत्येक मनुष्य प्रश्न कर सकता था। किसीके लिए कोई मनाई नहीं थी। इसी समामें भगवानने आत्माके स्वाभाविक धर्म जैनधर्मका प्रकाश किया था। सार्वभौम चक्रवर्ती नृप भरतने भगवानसे सबसे अधिक प्रश्न किए थे। कुरुदेशके राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी दीक्षित होकर भगवानके गणधर हो गए थे। । हरि० पु० सर्ग ९ श्लोक २१२-१३-१६-२०-२१-२२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः परिच्छेदः । [७५ शकट वनसे उठकर भगवान्ने फिर विहार किया था और कुरुजांगल, कौशल, सुदन, पुंड, चेदि, अंग, बंग, मगध, अंध्र, कलिंग, भद्र, पञ्चाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि अनेक देशोंमें विहार कर अपने उपदेशामृतसे जगतका कल्याण किया था । भगवान् जहां जहां जाते थे वहां वहां ऊपर कहे मुताविक समवशरण बन जाता था। जब भगवान विहार करते थे तब उनके आगे २ धर्म-चक्र, और देवोंकी सेना चलती थी। आकाशसे जय जय शब्द होते जाते थे। भगवानके. चरणोंके नीचे देवगण कमल रचते जाते थे । भगवान् पृथ्वीसे बहुत ऊंचे अधर चलते थे। ___भगवान्के भरत और बाहुबलि पुत्रोंको छोड़कर बाकी सब पुत्रोंने दीक्षा लेली थी। भरतने ब्राह्मण नामक चौथा वर्ण भी स्थापित किया था। उसके विषयमें उन्होंने भगवानसे पूछा था और जाना था कि चतुर्थकालमें इस वर्णसे लाभ होगा परन्तु पंचमकालमें यह वर्ण जैनधर्मका द्रोही बन जायगा। ___“ भगवान ऋषभदेवका शिष्य यों तो विश्व ही था " परन्तु. आपकी सभाका चतुर्विधि संघ इस प्रकार था: ८४ गणधर, ४७५० चौदहपूर्वके पाठी मुनि, ४१५० शिक्षक मुनि, ९००० अवधिज्ञानी मुनि, २०००.० केवलज्ञानी मुनि, २०६०० विक्रियाऋद्धिके धारक साधु, १२७५० मन:पर्यय ज्ञानके धारक मुनि. १२७५० वादी साघु-कुल ८४०८४ मुनि और ३५०००० ब्राह्मी आदि आर्यिकाएं, ३००००० श्रावकके व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक, ५००००० सुवृता आदि श्रावकाएँ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । केवलज्ञान होने पर भगवान अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्यकर युक्त हो गये थे। भगवानने एक हजार चौदह दिन कम एक लाखपूर्व तक समवसरण सभामें उपदेश दिया था । जब आयुके चौदह दिन शेष रह गये तब उपदेश देना बंद हुआ और आप (कैलासपर्वत पर ) पद्मासन लगाकर शेष कर्मोका नाश करने लगे। यह दिन पौष सुदी १५ का था। आनंद नामक पुरुष द्वारा भगवानका कैलासपर आगमन सुन भरत चक्रवर्ती वहां गया । और चौदह दिनों तक भगवानकी सेवा की थी।' * " जिस समय भगवान ऋषभदेव अनेक मणिमयी शिलाओंसे रमणीय कैलासपर्वत पर बिराजे |x उस समय उनके साथ साथ दस हजार योगी और भी गए । भगवानने वहांपर मनोयोग आदि तीनों योगोंका निरोध किया, वेदनीय नाम आदि चार अघातिया कोको जड़से उखाड़ा और कल्पवृक्षोंकी मालाओंको धारण करनेवाले देवोंसे पूजित हो 'जहां सुख ही सुख है ऐसे' मोक्ष स्थानपर जा बिराजे " + यह दिन माघ मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीका था । भगवानके मोक्ष चले जानेपर देवोंने आकर · निर्वाण कल्याणक' नामका पांचवां कल्याणकोत्सव मनाया और भगवानके शरीरका चंदनादि सुगन्धित * जैन इतिहास भाग १ पृष्ठ ५२ । x हिन्दुओं के प्रभासपुराणमें व्यासजीने भगवान ऋषभनाथको, जो उनके यहाँ अवतार माने गए हैं, कैलाशपर्वतसे मुक्त हुआ लिखा है। ययाः-कैलाशे विमले रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावधारं च सर्वशः सर्वगः शिवः ॥ + हरि० पु० सर्ग १२ श्लोक ८१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । [७७ द्रव्यों द्वारा अग्निकुमार जातिके देवोंके मुकुटकी अग्निसे दाह किया। भगवानके शरीरका जहां दाह किया था उसकी दाहिनी ओर गणधरादि साधुओंके शरीरका दाह किया और बांईओर केवलज्ञानियोंके शरीरका दाह किया और उत्सव मनाया। इन तीन प्रकारके महापुरुषों के दाहसे तीन पकारकी अग्निकी स्थापना करनेका देवोंने श्रावकोंको उपदेश दिया और प्रतिदिन पांचवीं प्रतिमा तकके धारक श्रावकोंको अग्निमें होमादि करनेकी * आज्ञा दी। भगवान ऋषभदेवके सबसे बड़े पुत्र भरत थे। ये चक्रवर्ती थे। इनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमीके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें हुआ था । भरत पहिले चक्रवर्ती और छहों खंडके स्वामी थे, इसलिये इन्हींके नामपर आर्य लोगोंका रहनका भी स्थान भारतवर्ष कहलाया ।x चक्रवर्ती भरत सर्व जीवित प्राणियों में विशेष बलवान थे। भरतने स्वयं ऋषभदेवसे शिक्षा प्राप्त की थी और वे मुख्यता नीतिशास्त्रके प्रखर विद्वान थे। भगवानने जब तप धारण किया था तब इनको ही सम्राट बनाया था। महाराज भरतने दिग्विजय करना प्रारम्भ किया था। उन्होंने सर्व देशोंपर अपना आधिपत्य जमा लिया था । उनने पूर्वमें अंग, बंग, कलिंग, आदि; उत्तरमें काश्मीर आदिको; पश्चिममें कच्छ आदिको और दक्षिणमें सिंहलद्वीपको विजय किया था। दिग्वि * जैन इतिहास भाग १ पृ. ५२ । x हिन्दुओंके बराहपुराणमें भी ऐसा ही लिखा है । यथाः-तस्य भरतस्य पिता ऋषभः हेमाद्रेद्दक्षिण वर्ष महद्भारतं नाम शशास। उनके अग्निपुराणमें भी ऐसा ही लिखा हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। नयमें सेनाका विशेष प्रबन्ध था। महाराजका रणवास भी साथ था। साथमें मनुष्योंको ठहरनेके लिये कपड़े के तंबू लगाए गए थे घोड़ोंकी घुड़साल भी कपड़ेकी ही बनाई गई थी। भरतके अजितजय नामक स्थके घोहे जल और थल दोनोंपर चलते थे। महाराज भरतने म्लेच्छ खण्डपर भी अपना आधिपत्य जमा लिया था। उनकी सेनामें १८ कराड घोडे, ८४ लाख हाथी, ७४ करोड़ पैदल सेना और ८४ लाख स्थ थे। उनने छहों खण्डोंपर अपना साम्राज्य फैला लिया था। भरतने अपनी एक प्रशस्ति हिमवन पर्वतकी ओर वृषभाचल पर्वतकी एक शिलापर लिखी थी। इस दिग्विजयमें भरतको साठ हजार वर्ष लगे थे। दिग्विजयसे लौटनेपर भरत अयोध्याको लौटे, परन्तु उनका चक्र रत्न नगरमें प्रवेश नहीं करता था। तब उन्होंने जाना कि मैंने अपने भाई बाहुबलीको अभी बिजय नहीं किया है। बाहुबली प्रथम कामदेव, परम सुन्दर थे और भगवान ऋषभनाथके दूसरे पुत्र थे और इनकी राजधानी दक्षिण दिशामें पोदनापुर थीं। इन्होंने भरतकी आज्ञा शिरोधार्य नहीं की थी और अन्तमें दोनों भाइयोंमें युद्ध हुआ था। मंत्रियों के कहनेसे सेनाओंका युद्ध नहीं कराया था। बाहुबलिने भरतको हगया। इसपर खिजकर भरतन उनपर चक्र चलाया, पर चक्रने भी उनको भरतका आत्मीय जान मारा नहीं । इतने में बाहुबलिको वैगम्य होगया और उन्होंने दीक्षा लेकर दुर्धर तपश्चरण किया था। वे एक वर्षका आसन माढ़ एक स्थानपर ही तप तपते रहे थे, जिससे वन लताऐं उनके शरीरमें लिपट गई थीं व सोने पैरोंके नीचे वामियां बना लीं थीं। जिस दिन बाहुबलीका एक वर्षका उपवास पूर्ण हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद । [७९ उसी दिन भरतने आकर उनकी पूजा की और उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। इस हर्षोपलक्षमें ही भरतने और देवोंने उनकी पूजा की थी। तब बाहुबलिने पृथ्वीपर विहार कर धर्मका उपदेश दिया और अन्तमें कैलासपर्वतसे मोक्षको प्राप्त हुए । ____ बाहुबलीके दीक्षित होजानेपर भरतने अयोध्या में प्रवेश किया था और फिर वहां देवों एवं राजा महाराजाओं द्वारा भरतका राज्याभिषेक किया गया । इस समय भरतने बड़ा भारी दान किया था। भरतकी आज्ञामें ३२००० मुकुटबद्ध राजा और ३२००० ही देश थे और १८००० आर्यखण्डके म्लेच्छ राजा आज्ञामें थे। भरतकी ९६००० रानियां थीं। उनमें मुख्य सुभद्रा थी। भरतके मेनापत्तिका नाम अयोध्य, पुरोहितका नाम बुद्धिसागर, गृहपतिरत्नका नाम कामवृषि और सिलावट रत्नका नाम चन्द्रमुख, हाथीका नाम विजयपर्वत, घोडेका नाम पवनंजय था। भरतने अपनी लक्ष्मीका दान करनेके लिए ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की थी। इनकी विभूति एवं संपदा अपूर्व थी। भरतको सोलह दुषस्वप्न हुए थे जिनका भाव भगवान ऋषभदेवने भविष्यमें जैनधर्मकी हीनता बताया था। भरत बड़े धर्मात्मा, भव्य और तपस्वी थे। उन्होंने कैलाशपर्वतपर रत्नमय बहत्तर जिनमंदिर बनवाये थे। उन्होंने दंडविधानमें भी परिवर्तन कर दिया था—भरतने प्राणदंड. देशनिकाला, कैद आदिकी सजाएं रक्खी थीं; वे बड़े न्यायी थे। उस समय समम्त प्रजा बड़ा आनन्द भोगती थी। __ एक दिन सम्राट भरत दर्पणमें अपना मुख देख रहे थे कि उनको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। एक सफेद बाल नगर पड़ा जिससे उनको अपना बुढ़ापा आया जान पड़ा और उनको वैराग्य हो गया। अपने पुत्र अर्ककीर्तिको उन्होंने राज्य देकर दीक्षा धारण की। भरतका वैराग्य गृहस्थावस्थासे ही इतना प्रबल था कि उन्हें दीक्षा लेते ही केवलज्ञान हो गया। हजारों वर्षोंतक सर्वज्ञरूपमें उपदेश देकर भी मोक्षको गए। __इस समयके एक महामण्डलेश्वर राजा जयकुमार थे। यह हस्ति नापुरके नरेश सोमप्रभके पुत्र थे। यह भरतके साथ दिविज्यमें रहे थे। इनकी रानी काशी नरेश महाराज अकंपनकी पुत्री सुलोचना थीं. जिन्होंने इनको स्वयंवरमें वरा था। कई वर्षों राज्य और भोग भोगकर दोनों राजा रानी साधुधर्मको स्वीकार कर गए । यह भगवान ऋषभदेवके गणधर हुए । महागनी सुलोचना मरकर स्वर्गको गई। इनके अतिरिक्त हरिवंशके म्थापक महामंडलेश्वर राजा हरि, उग्रवंशका संस्थापक राजा काश्या आदि प्रस्यात् पुरुष उससमय हुए थे। ___भगवान ऋषभदेवके जमानेके उक्त वर्णनसे हमें उस अत्यन्त प्राचीन जमानका हवाला मिल जाता है और हमको मालूम हो जाता है कि किस तरह प्रारम्भ २ में जैनधर्मके आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभने जगतको सभ्यताका प्रथम पाठ पढ़ाया था। अब हम आगे अन्य अवशेष २३ तीर्थकरों एवं महापुरुषों का वर्णन करेंगे। 9.3 SIA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद ।.. चतुर्थ परिच्छेद । अवशेष तीर्थंकर और अन्य महापुरुष । पूर्व परिच्छेद में हम कर्मभूमि की प्रवृत्तिका वर्णन देख आए हैं । उस समय जीवनकी सुगमता और सादेपनका दिग्दर्शन भी कर आए हैं । अब यहां उसके आगेका वर्णन करनेके लिये अवशेष तीर्थङ्करोंके समयका विवरण लिख रहे हैं, जिससे हमको तत्कालीन अवस्थाका ज्ञान प्राप्त हो जाय । [ ८१. भगवान ऋषभदेव से पचास करोड़ सागरके बाद दूसरे तीर्थकर अजितनाथ हुए थे । इनके समय तक भगवान ऋषभनाथके बतलाए हुए मार्गपर प्रजा चल रही थी । यह इक्ष्वाकु वंश और काश्यप गोत्रके नृपति जितशत्रुके यहां जन्मे थे। इनकी माताका नाम विजयसेना था। यह ज्येष्ठ वदी अमावस के दिन अपनी माताके गर्भमें आकर माघ सुदी दशमीको रोहिणी नक्षत्र में अयोध्या में जन्मे थे । युवा होनेपर इनका विवाह हुआ था। भोग भोगते हुए कदाचित् आपको आकाशमें उल्कापात देखने से वैराग्य होगया । तदनुसार आपने दिगम्बर दीक्षा माघ सुदी नवमीको धारण की। उस समय आपको मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ था | छह मासके उपवासके बाद आपने ब्रह्मभूत राजाके घर आहार लिया था । पश्चात् १२ वर्ष तप तपकर आप पौष सुदी ११ के दिन केवलज्ञानी ( सर्वज्ञ ) हुए थे । सर्वज्ञ होनेपर आपने समवशरणके साथ विहारकर धर्मोपदेश दिया । और चैत्र सुदी पञ्चमीके दिन सम्मेद शिखर से मोक्षलाभ किया था । प्रत्येक तीर्थकर की भांति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] संधिश जैन इतिहास प्रथम भाग। . . . आपके भी पंचकल्याणक उत्सव आदि सर्व अतिशययुक्त बातें थीं। भगवान ऋषभके तीर्थकालमें जो राजा धर्मभ्रष्ट होगए थे, संभव है, उनका प्राबल्य इस अन्तरमें हो गया था, उसीके निवारणके. लिये ही श्री अजितनाथजीके तीर्थकी प्रवृत्ति हुई प्रतीत होती है। ऐसे ही अन्य तीर्थकरोंकी भी समझना चाहिए। यथार्थ कारण उस अज्ञात जमानेके जानना अत्यन्त कठिन कार्य है। भगवान अजितनाथके समयमें सार्वभौम राजा सगर, द्वितीय चक्रवर्ती थे। वह भी मोक्षको गए थे। इनके पुत्र भागीरथ इनके उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने भी अपने पुत्र वरदत्तको राज्य देकर शिवगुप्त मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की थी। कैलासपर्वत पर इनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। उस समय देवोंने इनके चरणोंका प्रक्षाल किया था। यह प्रक्षाल-अभिषेक जल गंगा नदीमें मिल गया था। इसलिये गंगा नदी भागीरथीके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह भी मोक्ष गए। . भगवान अजितनाथके मोक्ष जानेके कई सागर बाद तीसरे तीर्थकर संभवनाथ हुए थे। यह फागुन सुदी ८ को गर्भ में आए थे, और कार्तिक सुदी पूर्णिमाको अयोध्यामें जन्मे थे। आपके पिताका नाम राजा दृढ़रथराय और माताका नाम सुषेणा था। इनका भी वंश इक्ष्वाक और गोत्र काश्यप था। यह भी तीन ज्ञानके धारक सर्व तीर्थकरोंकी भांति थे। इनका भी विवाह हुआ था। इन्होंने एक दीर्घकालतक राज्य भोगकर संसारका त्याग किया था। दो दिनके उपवासके बाद आपने. श्रावस्तीके राजा सुरेन्द्रदासके यहां आहार किया था। चौद्रह वर्ष फिर तप करनेके बाद आपको कार्तिक वदी चतुर्थीके दिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद । [८३ केवलबान शाम हुआ था। तत्पश्चात् विहार करके आपने धर्मोपदेश दिया था और चैत्र सुदी षष्ठीको सम्मेदशिखर पर्वतसे आप मोक्ष गए थे। आपके भी वह सब विशेष बातें हुई थीं जो पहिलेके तीर्थकरोंके हुई थीं। इसके दस करोड़ सागरके बाद चौथे तीर्थकर अभिनन्दनका जन्म हुआ था। भगवान अभिनन्दन वैशाख सुदी छठको सिद्धार्था मांताके गर्भमें आकर माघ सुदी १२ के दिन जन्मे थे। आपके पिता संवर इक्ष्वाक वंशके काश्यपगोत्री अयोध्याके राजा थे। युवा होनेपर आपने राज्य प्राप्त किया था और नीतिपूर्वक राज्य करके आपने माघ सुदी वारसको दीक्षा धारण की थी। दो दिन उपवासके बाद अयोध्यामें इन्द्रदत्त राजाके यहां आहार लिया था। पौष सुदी चौदसके दिन अठारह वर्ष तप तपकर आप केवलज्ञानी हुए थे। फिर विहार और धर्मोपदेश देकर वैशाख सुदी छठको आप सम्मेदशिस्वरसे मोक्ष पधारे थे। आपके भी तीन ज्ञान जन्मसे होना, देवोंका पंचकल्याणक मनाना आदि विशेष बातें सब तीर्थकरोंकी तरह हुई थीं। पांचवें तीर्थकर सुमतिनाथ श्रावण सुदीदोजको अयोध्याके राजा मेरथकी रानी मंगलादेवीके गर्भ में आकर चैत्र सुदी ११ को उत्पन्न हुए थे। आपने राज्य पाकर अपनी पत्नीके साथ भोग भोगकर वैशाख सुदी नौमीको दीक्षा धारण की थी। दो दिनका उपवास करके आपने सौमनसपुरके पद्मभूपके यहां आहार लिया था। वीस वर्ष तपश्चरण कानेके पश्चात् आपको चैत्र 'सुदी म्यारसके दिन केवलज्ञान प्राप्त हुमा था। आपने विहार करके चैत्र सुदी ग्यारसको सम्मेदशिखासे मोक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । Miilo लाभ किया था। आपके भी वह सर्व दिव्य बातें और घटनायें हुई थीं. जो सर्व तीर्थकरों के होती हैं । छठवें तीर्थकर पद्मप्रभु थे । यह कोशांबी नगरी के राजा मुकुटवरी रानी सुसीमा गर्भमें माघ वदी छठको आए थे और कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीको तीनों ज्ञान सहित आपका जन्म हुआ था । आप पट्टन्त्र राजा थे और विवाहित थे। आपने कार्तिक वदी तेरसको एक हजार राजाओं सहित दीक्षा धारण की थी । वर्द्धमान नगर के राजा सोमदत्तने आहार दिया था । छः मास घोर तपश्चरण किया । पश्चात् चार घातिया कर्मोंका नाश कर आप केवलज्ञानी हुए थे। समस्त आर्यखण्ड में विहार कर दिव्यध्वनि द्वारा उपदेशामृत पिला फागुन वदी चतुर्थी के दिन आपने सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया था । पद्म भूके हजार क्रोड़ सागर बाद भगवान सुपार्श्वनाथका जन्म हुआ । राजा सुपतिष्ठकी रानी पृथ्वीषेणा के गर्भ में भादों वदी छठको आकर जेठ सुदी बारसको बनारस में जन्मे थे । आपने दीर्घकाल तक राज्यभोग किया। पश्चत् दीक्षा ग्रहण कर ( जेठ सुदी १२ को आपने दो दिनका उपवास किया था । सोमखेट नगर के राजा महेन्द्रदत्तके यहां आपने प्रथम आहार किया था । पश्चात् नौ वर्ष तप तपा तब आपको फागुन वदी छठको केवलज्ञान प्राप्त हुआ । धर्मोपदेशसे - संसारका हित करके आपने फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर से निर्वाण स्थानको प्राप्त किया । आपका उल्लेख हिन्दुओंके यजुर्वेद में है। यथाः- ॐ सुपार्श्व मिन्द्रहवे'। सब तीर्थंकरोंकी भांति आपके सम्बंध में मी सब बातें हुई थीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद । [ ८५ आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभू चन्द्रपुरी ( बनारस के निकट ) के राजा महासेनके पुत्र थे । यह रानी लक्ष्मणाके गर्भ में चैत्र वदी पंचमीको आए थे। तब सब तीर्थंकरोंकी माताओंकी तरह रानी लक्ष्मणाने १६ शुभ स्वप्न देखे थे और सब तीर्थंकरोंके शुभागमन समय १५ मास पहिले जैसे इन्द्र रत्नवर्षा आदि करने लगते हैं वह सब शुभ कृत्य इनके सम्बन्धमें भी हुए थे । आपने विवाह करके एक दीर्घकाल तक राज्य भोग किया था । पश्चात् अपने पुत्र वरचंद्रको राज्य देकर सब तीर्थकरों की तरह इन्द्रों द्वारा लाई गई विमला पालकीपर चढ़, वनमें पहुंचकर पौष सुदी एकादशीको दीक्षा धारण की थी। दो दिनका उपवास करने के बाद आपने नलिन नामक नगर में सोमदत्त राजाके यहां आहार लिया था । फिर तीन मास आपने तप किया जिसके कारण मिती फाल्गुन वदी सप्तमीको चार कर्मोंका नाश हुआ और भगवान केवलज्ञानी बने । पश्चात् आर्यखण्डमें विहार करके फाल्गुन सुदी ७ को सब कर्मोंका नाश करके सम्मेद शिखर से मोक्ष पधारे। इसके बाद बहुत काल व्यतीत होनेपर नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत हुए । फाल्गुन वदी नौमीके दिन आप गर्भमें आकर मार्गशीर्ष सुदी प्रतिपदाको काकंदीपुर में जन्मे थे। वहांके राजा आपके पिता सुग्रीव थे। माता जयरामा थीं । पूर्वके तीर्थकरों की भांति आप भी इक्ष्वाकु वंशके काश्यप गोत्री क्षत्री थे। राज्य भोग करके अपने पुत्र सुमतिको राज्य देकर आपने मिती मगसिर सुदी पड़िवाके दिन दीक्षा धारण की और दो दिनका उपवास करके आपने सबलपुर में पुष्पमित्र नामक राजाके यहां बाहार लिया था । चार वर्ष तप करनेपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग । मिती कार्तिक सुदी दूजके दिन भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। देवोंने सब तीर्थंकरोंकी भांति इनका भी अन्य चार कल्याणकोंके अतिरिक्त ज्ञान कल्याणक मनाया । आप सब तीर्थकरोंकी तरह तीन ज्ञानके धारक जन्महीसे थे। आपके विषयमें भी सब विशेष बातें हुई थीं। फिर सब देशोंमें विहार करके जब कुछ ही दिन आयुके बाकी रह गए तब आपकी दिव्यध्वनि बंद हुई। तब सम्मेदशिखरपर शेष कर्मों का नाश करके भादों सुदी अष्टमीको मोक्ष पधारे। दशवें तीर्थकर भगवान शीतलनाथ राजा हदरथ और रानी सुनंदाके पुत्र थे। चैत्र कृष्ण अष्टमीके दिन आप गर्भमें आकर माष वदी बारसको भद्दलपुरमें जन्मे थे । वर्तमानमें यह नगर मेलसा नामसे ग्वालियर राज्यमें है । आपका विवाह हुआ था। राज्य करके आपने माघ वदी द्वादशीको गृह त्याग दिगंबर भेषमें तपश्चरण किया था। पश्चात् अरिष्ट नगरके राजा पुनर्वसुके यहां आहारं लिया था। फिर तीन वर्ष तप तपकर मिती पौषवदी चतुर्दशीके दिन आप केवलज्ञानी हुए थे । समवशरणके साथ बिहारकर धर्मोपदेश देते हुए आप सम्मेदशिखर पर आन बिराजे थे और वहांसे आसोज सुदी अष्टमीको आपने मुक्ति लाभ किया था । आपके भी जीवनमें वह सब बातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थङ्करके होती हैं। आपके जन्मके कुछ पहिलेसे धर्मका मार्ग बंद हो चुका था। भगवान शीतलनाथके मोक्ष चले जानेके बाद म्यारहवें तीर्थकरके होनेके पहिले भद्दलपुरके मेघरथ राजाने दान करनेका विचार मंत्री से प्रकट किया। मंत्रीने शास्त्र, अभय, आहार, औषधि इन चार दानोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद । करने की सम्मति दी. परन्तु राजाने नहीं मानी और उनके पुरोहित भूतिशर्मा ब्राह्मणके पुत्र मुण्डशालायनने हाथी घोड़ा, कन्या, सुवर्ण आदि दश प्रकारका दान ब्राह्मणादिको देनेकी सम्मति दी और यश व पुण्य आदिका लोभ बताया । गृहस्थों द्वारा रचित ग्रन्थोंमें इन दानोंकी विधि बतलाई तब राजाने दश प्रकारके दान दिये। इसी समय से ब्राह्मण वर्ण जैन धर्मका द्रोही होने लगा और इसी समय से चार दानोंके बजाय हाथी, घोडे आदिका दान शुरू हुआ था । * ८ * जैन इतिहास भाग १ पृ० ११९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 111 ग्यारहवें तीर्थङ्कर भगवान श्रेयांसनाथ जेठ वदी छठको माता नंदादेवी के गर्भ में आकर फागुन वदी म्यारसको जन्मे थे । आपके पिता विष्णु सिंहपुर के राजा थे। आपके जन्मके पहिले और भगवान शीतलनाथके मोक्ष जानेके बहुत दिनोंबाद धर्मका मार्ग बंद हो गया था । उसको इन्होंने पुनः प्रगट किया। आप भी इक्ष्वाकु वंशके थे । राज्यभार अपने पुत्र श्रेयसकरको देकर आप मिती फागुन वदी म्यारस के दिन दिगम्बर मुनि हो गए । चतुर्थ मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त होगया, जैसे तीर्थंकरोंको प्राप्त होजाता है । दो दिनके उपवास के बाद सिद्धार्थपुरके राजा नंदके यहां आहार लिया था । दो वर्ष तप तपकर माघ वदी अमावसके दिन मनोहर नामक वनमें आपको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर समस्त आर्यखंडमें समवशरण समेत बिहार कर जब आयुमें एक माह शेष रहा तब आप सम्मेदशिखिरसे बाकी चार कमौका नाश करके मिती श्रावण सुदी पूर्णमासीके दिन www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] संक्षिप्त जैन इविकास प्रथम भाग। मोक्ष पधारे । आपके जीवनमें भी प्रत्येक तीर्थकरकी भांति विशेष घटनाएं घटित हुई थीं। भगवान् श्रेयांसनाथके समयमें प्रथम प्रतिनारायण ( चक्रवर्तीसे आधे राज्यके अधिकारी) अश्वग्रीव प्रथम नारायण तृपृष्ठ और प्रथम बलदेव विजय थे । अश्वग्रीव बादमें तृपृष्टके आधीन हो गए थे। तृपृष्ट और बलदेव भाई भाई पोदनपुरके राजा प्रजापतिके पुत्र थे। तृपृष्ठका राज्य उनके पुत्र श्री विजयको मिला। श्री विजयकी स्त्री ताराको विद्याधर हरकर ले गया था, जिसे युद्ध द्वारा श्रोविजय वापस लाया। बलदेव मुनि हो मोक्ष गए । ___ भगवान् श्रेयांसके चउवन सागर बाद वासुपूज्य तीर्थकर हुए। इनके जमके (भगवान् श्रेयांसके जन्मके पहिलेके समयसे कुछ अधिक) पहिलेसे धर्मका मार्ग बंद हो गया था। आषाद वदी छटको भगवान अपनी माता जयावतीके गर्भ में आए और फाल्गुन वदी चतुर्दशीको अपने पिता राजा वसुपूज्यकी राजधानीमें आपका जन्म हुआ। आप इक्ष्वाकु वंशी काश्यप गोत्री थे। आप बालब्रह्मचारी थे। कुमार अवस्थाके बाद आपको वैराग्य हुआ और फाल्गुन वदी चतुर्दशीके दिन छहसौछियत्तर राजाओं सहित तप धारण किया । एक दिन उपवास कर दूसरे दिन महापुरके राजा सुन्दरनाथके वहां आपने आहार लिया और माघ सुदी द्वादशीके दिन केवलज्ञान प्राप्त किया था। समस्त आर्यखंडमें धर्मोपदेश देकर मंदारगिरिसे भाप भादों सुदी चतुदेशीको मोक्ष गए । अापके जीवन में भी सब विशेष बातें प्रत्येक तीर्थकरकी मांति हुई थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... चतुर्थ पल्लेिख ः .. [८९ भगवान वासुपूज्यके ही समयमें भोगवर्द्धनपुरके राजा श्रीधरके पुत्र तारक इस युगके द्वितीय प्रतिनारायण थे। यह बड़े अन्यायी थे। इनका युद्ध द्वितीयनारायण द्विपृष्ठसे हुआ था, जिसमें इनकी मृत्यु हुई थी। इसी समय द्वितीय बलदेव अचल हुए थे। द्विपृष्ठ और अचल द्वारिकाके राजा ब्रह्मके पुत्र थे। भगवान वासुपूज्यके मोक्ष चले जानेके बाद बहुत समय पश्चात् मावान विमलनाथ हुए। आपके पिता सुक्रतवर्मा कंपिलानगरीके अधिपति थे। भगवान विमलनाथका जन्म रानी श्यामाके गर्भसे माष मुदी चौदसके दिन हुआ था। आपका विवाह हुआ था और आपने राज्यसुख भोगकर माघ सुदी चौथको दिगंबर दीक्षा धारण की थी। आपका प्रथम पारणा दीक्षा लेनेके तीसरे दिन बाद धान्यबटपुरमें राजा विशाखके यहां हुआ था। तीन मास तक आप संयमी रहे। पश्चात् मिती पूष वदी दशमीके दिन आप केवलज्ञानी हुए थे । देवनिर्मित समवशरणके साथ आपने आर्यखंडमें विहार किया था। पश्चात् सम्मेदशिखरसे आषाढ़ वदी अष्टमीको आप मुक्तिधामको प्राप्त हुए थे। ममवान विमलनाथके समयमें तीसरे नारायण स्वयंभू और सुधर्म नामक बलभद्र हुए थे। इनके बहुत समय बाद १४ वें तीर्थकर अनंतनाथने अयोध्यापुरीके इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री राजा सिंहसेनके यहां माता रेवतीके गर्भसे मिती बेठ वदी द्वादशीको जन्म लिया था। आपने अमागवाके बाद राज्यविभूतिका भोग दीर्घकाल तक किया था । .wa मीति नेठ वदी बादशीके दिन मापन दीक्षा धारण की थी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । एवं आप दो मास तक संयमी रहे थे। दीक्षाके तीसरे दिन आपने वर्धमानपुरके राजा धर्मसिंहके यहां प्रथम आहार लिया था । मिती चैत्र वदी अमावस्याके दिन आपको केवलज्ञानका लाभ हुआ था। तत्पश्चात् आपने अपने विहार और धर्मोपदेशसे अज्ञान अन्धकारको मेटा था। चैत्रकी अमावस्याके दिन आप सम्मेदशिखरसे मोक्ष पधार थे। आपके विषयमें भी वह सब विशेष बातें समझना चाहिये, जो प्रत्येक तीर्थकरके समय होती हैं। इनके समयमें चौथे नारायण पुरुषोत्तम और बलदेव सुप्रभ हुए थे। ____ पश्चात् भगवान धर्मनाथ १५ वें तीर्थकर हुए । इनके पिता रत्नपुरके गजा भानु थे। इनकी रानी सुव्रता आपकी माता थी। इन्हीके गर्भसे आपका जन्म माघ सुदी तेरसके दिन हुआ था। आपने विशेष समय तक राज्य भोग करके मिती माघ सुदी त्रयोदशीको दिगम्बर दीक्षा धारण की थी। आपका प्रथम पारणा सौमनसपुरमें राजा सुमित्रके यहां हुआ था । आप एक मास तक संयभी रहे थे. पश्चात् मिती पौष सुदी पूर्णमासीको आपको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था और आपने पृथ्वीपर विहार कर धर्मोपदेश दे, मिती जेठ सुदी चौथके दिन श्री सम्मेदशिखरसे मोक्ष प्राप्त किया था। सर्व तीर्थकरोंकी तरह इनके भी विशेष बातें हुई थीं। इन्हींके समय पांचवें नारायण पुरुषसिंह और बलभद्र सुदर्शन हुए थे। ____ भगवान धर्मनाथके मोक्ष जानेके बाद बहुत समय पश्चात् सोलहवें तीर्थकर शांतिनाथ हुए। यह हस्तिनापुरके राजा विश्वसेनकी रानी ऐंगदेवीके गर्भसे मिती जेठ वदी चौदसको जन्मे थे। युवावस्थाको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद । [१ प्राप्तकर पचास वर्षतक राज्य करके मिती जेठ वदी त्रयोदशीके दिन इन्होंने दीक्षा धारण की थी। आपका प्रथम पारणा मंदरपुरमें राजा धरममित्रके यहां हुआ था। आप सोलह वर्षतक संयमी रहे थे पश्चात् मिती पौष सुदी एकादशीको आप केवलज्ञानी हुए थे। दीर्घकाल तक आर्यखण्डमें विहार और धर्मोपदेश देकर आपने सम्मेदशिखरसे जेठ वदी चौदशके दिन मोक्ष लाभ किया। आपके जीवनमें भी वह सब वातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थकरके हुआ करती हैं। आप चक्रवर्ती राजा थे। भगवान धर्मनाथ और शांतिनाथके अन्तरालमें मधवा और सनत्कुमार नामक दो चक्रवर्ती राजा हुए थे। ___ सत्रहवें तीर्थकर भगवान कुन्थुनाथका जन्म वैशाख सुदी १ के. दिन राजा सूर्यकी रानी श्रीमतीके गर्भसे हस्तिनापुरमें हुआ था। कुमारकालको व्यतीत करके आपने राज्यभोग किया था। पश्चात् मिती वैशाख सुदी प्रतिपदाको दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षाके तीसरे दिन आपने हस्तिनापुरमें राजा अपराजितके यहां पारणा किया था। आप सोलह वर्ष तक संयमी रहे थे। पश्चात् मिती चैत्र सुदी तीजके दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। आपने समस्त आर्यस्खण्डमें विहार और धर्मप्रचार किया था। पश्चात् सम्मेदशिखरसे सर्व कर्मनाश कर आपने वशाख सुदी पडिवाके दिन मोक्ष लाभ किया था। आप भी चक्रवर्ती राजा हुए थे। . ___ अठारहवें तीर्थकर श्री अरहनाथजी हस्तिनापुरमें कुरुवंशीय राजा सुदर्शनके यहाँ सनी सुमित्रादेवीके गर्भ फागुन सुंदी ३.को आकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | मिती अगहन सुदी १४ को जन्मे थे । आपने पाणिग्रहण किया था एवं ४२००० वर्ष तक राज्य भोग करके आपने मिती अगहन सुदी - दशमको दीक्षा धारण की थी । सोलह वर्ष संयममें चीते थे। दीक्षा के पश्चात् बेला करके आपने हस्तिनापुरमें राजा मन्दसेनके यहां प्रथम पारणा किया था । पश्चात् मिती कार्तिक शुक्ल केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। फिर विहार और धर्मोपदेश देकर चैत्र कृष्ण अमावस के दिन आपने सम्मेद शिखरसे मोक्ष लाभ किया था । आप भी चक्रवर्ती राजा थे । आपके विषय में वह सब बातें हुई थीं जो 'प्रत्येक तीर्थकरके होती हैं । आपके समकालीन राजा गोविंदराज थे । द्वादशीको आपको भगवान अरहनाथके मुक्त गए पश्चात् एवं भगवान मल्लिनाथके होनेके पहिले सुभ्रम नामके चक्रवर्ती हुए थे। एवं नारायण पुण्डरीक और बलदेव नंदी भी हुए थे। पश्चात् भगवान मल्लिनाथ अपराजित विमान से चयकर मिथिलापुरी में अपनी माता रानी रक्षितादेवीके गर्भ में मिती चैत्र शुक्ला पडिवाको आए थे। आपके पिता कुरुवंशीय राजा श्री कुम्भराय थे। मिती मगसिर शुक्ला एकादशीको आपका जन्म हुआ था । जन्म समय इन्द्रोंने सर्व तीर्थङ्करोंके जन्म समयकी भांति उत्सव मनाया था । आप बालब्रह्मचारी रहे थे। राज्य करके आपने मिती अगहन सुदी ११ को दीक्षा ली थी । बेला करके चक्रपुर के राजा ऋषभदत्तके यहां पारणा किया था। आपने छे दिन संयम में विताये थे । मिती पौष कृष्ण २ को आप केवली हुए थे । केवली होकर ने पृथ्वीपर विहार किया था एवं धर्मका स्वरूप दर्शाया था । पश्चात् फाल्गुन शुक्ल पंचमीको चाप सम्मेदशिरिसे मुक्त www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए थे। आपके विषयमें भी वह सब बातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थकरके होती हैं। आपके समकालीन राजा सुलमाराय थे । आपके पश्चात् मुनिसुव्रतनाथके पहिले महापद्म नामका सार्वभौम चक्रवर्ती राजा हुआ था । एवं नारायणदत्त और बलिदेव नंदिमित्र हुए थे ! भगवान मुनिसुव्रतनाथ राजगृहीमें हुए थे। इनके पिता हरिवंशीय नृप सुमित्रनाथ थे। आप अपनी माता रानी पद्मावतीदेवीके गर्भमें सावन वदी दोजको आकर उन्हींके कोखसे मिती वैशाख कृष्ण १० को जन्मे थे। आपने विवाह कर राज्य भोग किया था। पश्चात् मिती वैशाख कृष्ण १० को दीक्षित हुए थे । वेला करके मिथिलापुरमें राजा दत्तके यहां आहार लिया था। फिर मिती वैशाख वदी नौमीको आपको केवलज्ञानका लाभ हुआ। आपने भी विहार और धर्मप्रचार किया था। फागुन वदी द्वादशीको सम्मेदशिखरसे मोक्षलाम किया। आपके भी वह सब बातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थकरकी होती हैं। इक्कीसवें तीर्थङ्कर भगवान नमिनाथ आश्विन कृष्ण दोजको अपनी माता बप्रादेवीके गर्भमें आए थे। और आषाढ़ कृष्णा दशमीको आपका जन्म हुआ था । आपके पिता इक्ष्वाकु वंशीय नृपति विजयस्थ थे। आपने विवाह और राज्य किया था। आपके समकालीन राजा विजयराज थे। पश्चात् आषाढ़ कृष्ण १० को आपने दीक्षा ग्रहण की थी और बेला करके प्रथम पारणा आपने राजगृही नगरमें सुनयदत्तके यहां किया था। पश्चात् नौवर्ष संयमकालमें व्यतीत करके आपने मिती माघ शुक्ल एकादशीको केवलज्ञान प्राप्त किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .९४] संचिन जैन इतिहास प्रथम भाग। फिर विहार और धर्मोपदेश देकर आपने वैशाख बदी चौदसको मम्मेदशिखरसे मुक्तिलाम किया था। आपके विषयमें भी वह सब बातें थीं जो प्रत्येक तीर्थङ्करके होती हैं। भगवान नमिनाथके पहिले हरिषेण नामक चक्रवर्ती सार्वभौमिक अधिपति होचुके थे और आपके बाद जयसेन नामक चक्रवती हुए थे। लक्ष्मण नामक नारायण भगवान नमिनाथसे पहिले हो चुके थे। .. बावीसवें तीर्थङ्कर भगवान नेमिनाथ यदुवंशमें हुए थे। आप अर्जुन और कृष्णके समकालीन थे। आपके पिता नृप समुद्रविजय द्वारिकापुरीके अधिपति थे। आप रानी शिवदेवीके गर्भ में मिती कार्तिक सुदी ६ को अपराजित स्वर्गसे आए थे । एवं श्रावण सुदि ६ को आपका जन्म हुआ था। आपने न राज्य · किया और न विवाह ही किया था । कुमारावस्थामें वासुदेव श्रीकृष्णचंद्रसे आपके प्रतिम्पर्धक क्रीड़ाएं होती थीं। उन क्रीड़ाओंमें भगवानके अतुल पराक्रम एवं बलका अनुभव करके श्रीकृष्णने एक विधि रची थी। उन्होंने भगवानका विवाह रचवाया था परन्तु मार्ग में ही हिरण आदि निरापराध जंतुओंको बंधवा रक्खा था। भावानने उधरसे निकलते हुए उन पशुओंके विलविलाहटके आर्तनाद दृश्य देखें जिनसे तत्क्षण उनको पशुओंपर दया आगई और वैराग्य रसका श्रोत उनके हृदयमें प्रस्फुटित हो निकला । पशुओंको बन्धनमुक्त करके आपने अपने वस्त्राभूषण उतार डाले एवं गिरनार पर्वतपर जाकर मिती श्रावण शुक्ल ६.को दिगंबर दीक्षाको अंगीकृत कर गए। उधर इनकी भावी पत्नी राजा उग्रसेनकी पुत्री राजमतीने इनके विरहको सहन न किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ ,पारछेद : , [९५ और वह भी इनके निकट आर्यिका हो गई एवं दुर्धर तप तपकर स्वर्गको गई । श्री गिरनारजी पर जिस गुफामें इन्होंने तपश्चरण किया था, उसमें इनकी एक प्राचीन प्रतिमूर्ति मौजूद है। . भगवानने दो रोजका उपवास करके प्रथम आहार द्वारावतीमें राजा वरदत्तके यहां लिया था। पश्चात् छप्पन दिन तक संयमी रह कर आपको कुवांर वदी पड़वाके दिन केवलज्ञानका लाभ हुआ। तीनों कालकी और तीनों भवकी चराचर वस्तुका हस्तामलिकवत् ज्ञान आपको भी प्रत्येक तीर्थङ्करकी भांति था। आपने समम्त आर्य खंडमें विहारकर धर्मामृतका पान करा मिती आषाढ़ सुदी सप्तमीको गिरनार पर्वतसे ही निर्वाणपदको प्राप्त किया था। आपके विषयमें भी वह सब बातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थङ्करके होती हैं। आपका स्मरण हिन्दुओंके यजुर्वेदमें भी है ।* तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथका जन्म ईस्वी सन्म अनु. मानतः ९४९ (वा ८७७ ?) वर्ष पहिले हुआ था। और भगवान नेमिनाथके मोक्ष जानेके बाद ८३७५० वर्ष बाद हुए थे। आपके पिता बनारसके अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय श्री अश्वसेन थे। आप अपनी माता वामादेवीके गर्भ में मीति वैशाख वदी दोजको आए थे और वान * वाजस्यनु प्रसव आवभूवना च विश्चमुवनानि सर्वतः । म नेमिराजा परियाति विद्वान् प्रजा पुष्ठि वर्धयनमानो। अस्मे स्वाहा। -अध्याय ९ मंत्र २५ । .. एवं प्रभासपुराणमें व्यासजीने लिखा है:. रैवताद्रो जिनो नेमियुगादिविमलानले । ..... ऋषीणा या श्रमादेव मुक्तिमार्पस्य कारणम् ।।.. . .... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग । पौष वदि ११ को जन्मे थे। आपकी आयु १०० वर्षकी थी। आप बाल ब्रह्मचारी थे। आपने राज्य भोग भी नहीं किया था। कुमारावस्था में ही दिगम्बर मुनि होगए थे। आपके समकालीन राजा अजितगय थे। आपके समयमें धर्मका हास बिलकुल होचुका था। किसीको भी यथार्थ धर्मका ज्ञान न था। आपने फिरसे धर्मका यथार्थरूप समझाया और लोगोंको यथार्थ सभ्यताका पाठ पढ़ाया था। मनुष्योंको हिंसावृत्तिसे बचाया था। आपकी ऐतिहासिकताको आजकलके इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं । * आपके समयमें भी वानप्रस्थ, आजीवक आदि संप्रदायोंका विशेष प्रचार था। एक समय आप विहार करते जा रहे थे कि एक वानप्रस्थ सन्यासीको आपने लकड़ सुलगाए पंचाग्नि तपते देखा था। उस लकड़के भीतर खुशालमें एक सपे युगल था, जिसका ज्ञान उस कमठ नामक सन्यासीको न था। भगवानने सन्यासीको उनका अस्तित्व बतलाया। पाखण्डी कमठने भगवानकी बातपर विश्वास न लाकर उस लकड़को चीरा, तो देखा कि भगवानका कहना सत्य था। सपेयुगल मृत्युके निकट थे इसलिये भगवानने उनको णमोकार मंत्र सुनाया और वे मरकर धरणेन्द्र और पद्मावतीदेवी हुए। मिथ्यात्वी कमठको इससे भी अपने कृत्यपर पश्चात्ताप न हुआ और वह ऐसे ही कुतप तपकर व्यंतर देव हुआ। भगवान पार्श्वनाथ जिस समय अहिक्षेत्र ( वर्तमान * देखो दी इन्साइक्लोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स भाम ७ पत्र ४६५ । अथवा 'शाट स्टडीज इन दी साइन्स ऑफ कम्परेटिव रिलीजन्स' पत्र २४३-४। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAMEAnwanna daweWANMONNNNNNAMANAND चतुर्थ परिच्छेदं । - [९७ रामनगर जिला बरेलीमें ) दुर्घर तपश्चरण कर रहे थे, उस समय इस दुष्टने अपने पूर्व वैरके कारण घोर कष्ट देना प्रारम्भ किये थे, परन्तु सपैयुगलके जीव धरणेन्द्र और पद्मावतीने भगवानका यह कष्ट निवारण किया था। इससे प्रगट है कि भगवान पार्श्वनाथके समयसे ही कुतापसी वानप्रस्थों आदिका बाहुल्य था और उनका मिथ्या हट भी बड़ा जबरदस्त था। इस उपसर्गके दूर होनेपर भगवान पार्श्वनाथने चार घातिया कोपर विजय प्राप्त करली थी और आप सर्वज्ञ होगए थे। यह चैत्र कृष्ण चतुर्थीका दिन था । पश्चात् भगवानने समस्त आर्यखण्डमें विहार किया था और जैनधर्मका प्रचार किया था। दीक्षा ग्रहण करनेके बाद आपने दो • दिनका उपवास करके काश्यकृतपुरमें धनदत्तके यहां प्रथम आहार लिया था। फिर चार मास संयमी रहे थे तब केवलज्ञानी अथवा सर्वज्ञ हुए थे। सर्वज्ञताकी अवस्थामें आपने भव्यजीवोंको प्रतिबुद्ध किया था और धर्ममार्गपर लगाया था। पश्चात् श्रावण सुदी सप्तमीको सम्मेदशिखरसे मोक्षको प्राप्त किया था। इस ही कारण सम्मेदशिखरको आजकल लोग “ पारसनाथ हिल" कहते हैं। आपके भी वह सर्व विशेष बातें हुई थीं जो प्रत्येक तीर्थकरके होती हैं । आपके समयमें ही अंतिम सार्वभौम राजा चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुए थे, जिनका उल्लेख बौद्ध ग्रंथोंमें भी मिलता है। भगवान पार्श्वनाथके मोक्ष जानके बाद आपकी शिष्य परम्परा द्वारा धर्मका मार्ग प्रवर्तता रहा था। इनके मुख्य गणधर स्वयंभू थे। परन्तु भगवान महावीरके जन्मके कुछ पहिलेसे वानप्रस्थादि मतोंकी फिरसे प्रधानता होगई थी। भाजीविक, अचेलक आदि नये नये ७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | सम्प्रदाय निकल खड़े हुए थे, जिनकी बहुतसी बातें जैनधर्मके आचार नियमोंसे मिलती थी। इस प्रकार भगवान ऋषभनाथ के बादके तीर्थकरों और प्रख्यात महापुरुषों का वर्णन है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरके वर्णन से हमारा दूसरा भाग प्रारम्भ होता है । इस उक्त वर्णन से हमको यह भी ज्ञात हो जाता है कि भगवान ऋषभनाथ के समय से ही उनके साथ दीक्षित राजा अज्ञानता के कारण घर्मभ्रष्ट हो गए थे. एवं कुलिंग ( अपने मनोनुकूल ) मतका आश्रय ले गए थे। और सम्राट् भरतने जो विशेष उत्तम व्रती श्रावकका एक अलग ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया था, वह अगाड़ी चलकर भगवान ऋषभनाथके कहे मुताबिक दशवें तीर्थंकर भगवान शीतलनाथके तीर्थकालमें शिथिलाचारी होकर आर्ष प्रणीत चार दानोंके वितरिक्ति में घोड़ा, हाथी आदि आदि दश कुदानोंको लेने लग गया था और अपने इस विधानकी पुष्टि के लिए वह ग्रन्थ भी रचने लगा था । पीछे इसी ब्राह्मण वर्ण द्वारा भगवान मुनिसुव्रतनाथके मोक्ष चले जानेके बाद उन अनार्ष ग्रन्थोंमें हिंसावृत्तिका विधान करके यज्ञकाण्डका प्रचार किया गया था, जैसे कि पहिले प्रस्तावना में दिखाया गया है । इस प्रकार क्रम कर ब्राह्मण वर्णने अपने ग्रन्थोंका संकलन किया और अपने मतका प्रचार किया । इस व्याख्याकी पुष्टिमें आजकल के प्रख्यात् विद्वानोंकी मानी हुई बात पर्याप्त है कि हिन्दू धर्म सदैव समयानुसार अपना रंगढंग बदलता रहा है । (देखो Practical Path) अस्तु, दूसरे भाग में प्रवेश करने के पहिले हम आर्ष वेदों और आर्षवैदिक धर्मका मी दिग्दर्शन कर लेंगे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्थ परिच्छेद।..:: [९१ तीर्थकरोंके उक्त वर्णनको पूर्ण करनेके लिए निम्न बातें और ध्यान रखनेके लिए लिखी जाती हैं। अर्थात् “भगवान ऋषभदेवके कुल यति चौरासी हजार थे, अजितके एक लाख, सम्भवनाथके दो लाख, अभिनन्दनके तीन लाख, सुमतिके तीन लाख वीस हजार, पद्मप्रभके तीन लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभके ढाई लाख, पुष्पदन्तके दो लाख, शीतलनाथके एक लाख, श्रेयांसनाथके चौरासी हजार, चासुपूज्यके बहत्तर हजार, विमलनाथके अड़सठ हजार, अनन्तनाथके च्यासठ हजार. धर्मनाथके चौसठ हजार, शान्तिनाथके बासठ हजार, कुन्थुनाथके साठ हजार, अरहनाथके पचास हजार, मल्लिनाथके चालीस हजार, मुनिसुव्रतके तीस हजार, नमिनाथके बीस हजार. नेमिनाथके अठारह हजार, पार्श्वनाथके सोलह हजार और महावीरके चौदह हजार थे।"* ऋषभदेवके समवशरणमें तीन लाख पचास हजार आर्यिकाएं थीं। अजितनाथके समवशरणमें तीन लाख वीस हजार, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ इन तीन तीर्थंकरों में हरएक समवशरणमें तीन २ लाख तीस २ हजार, पद्मप्रभके समवशरणमें चार लाख वीस हजार, मुपाश्वनाथके समवशरणमें तीन लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त और शीतलनाथमें प्रत्येकके समवशरणमें तीन२ लाख अस्सी२ हजार, श्रेयांसनाथके समवशरणमें एक लाख वीस हजार. वासुपूज्यके समवशरणमें एक लाख छै हजार, विमलनाथके समवशरणमें एक लाख तीन हजार, अनन्तनाथके समवशरणमें एक लाख आठ हजार, धर्मनाथके समवशरणमें बासट हजार चारसौ, शांतिनाथके समवशरणमें साठ हजार * हरि० पु० सर्ग ६.० श्लोक ३५३-५६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १..] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। ANTARVAN.indanvideovasanawwwwindin तीनसौ, कुंथुनाथके समवशरणमें साठ हजार साडेतीनसौ। अरनाथके समवशरणमें साठ हजार, मल्लिनाथके समवशरणमें पचपन हजार, मुनिसुव्रतनाथके समवशरणमें पचासहजार और नमिनाथके समवशरणमें पैतालीस हजार थी। तथा नेमिनाथके समवशरणमें चालीस हजार और पार्श्वनाथके समवशरणमें अड़तालीस हजार और भगवान महावीरके समवशरणमें चौवीस हजार थी।' * भगवान ऋषभदेवके प्रधान गणधर वृषभसेन थे, अजितनाथके सिंहसेन, संभवनाथके चारुदत्त, अभिनन्दनके वज्र, सुमतिनाथके चमर, पद्मप्रभके वज्रचमर, सुपार्श्वनाथके बलि, चंद्रप्रभके दत्तक, “पुष्पदन्तके वैदर्भ, शीतलके अनगार, श्रेयांसके कुन्थु, वासुपूज्यके सुधर्म, विमलके मंदरार्य, अनन्तके जय, धर्मके अरिष्टसेन, शांतिके चक्रायुद्ध, कुन्थुके स्वयंभु, अरके कुंथु, मलिके विशाखाचार्य, मुनिसुवृतके मल्लि, नमिके सोमक, नेमिके वरदत्त, पार्श्वनाथके स्वयंभू और महावीरके इन्द्रभूति (गौतम) नामक गणधर थे। ये समस्त गणधर सातों प्रकारकी ऋद्धियोंके धारक और श्रुतज्ञानके पारगामी थे। जिस समय भ० महावीर दीक्षित हुए थे उस समय उनके साथमें तीनसौ राजा दीक्षित हुए थे। पार्श्वनाथके साथमें छैसौ छै. मल्लिके साथ भी छैसौ छै, वासुपूज्यके साथ छैसौ, ऋषभके साथ चार हजार और शेष तीर्थंकरों के साथ हजार हजार राजा दीक्षित हुए थे। इस प्रकार हमारा तीर्थकरोंका वर्णन पूर्ण होता है, केवल अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरका वर्णन करना अवशेष रह जाता है। * हरिवंशपुराण सर्ग ६० श्लोक ४३२-४१। x हरिवंशपुराण मग ६० श्लोक ३४५-५१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ पंचमः परिच्छेद । WWW BAS पञ्चम परिच्छेद । आर्षवेद अर्थात् द्वादशांग वाणी । इस युगमें आर्य जातिकी सबसे प्राचीन पुस्तकें वेद हैं । वे महान पवित्र और सर्वज्ञ वाक्य हैं। परन्तु वे आज हमको पूर्णरूपमें प्राप्त नहीं हैं। जो पुस्तकें आज वेदोंके नामसे विख्यात हैं वह यथार्थमें आर्ष वेद नहीं हैं, बल्कि ब्राह्मण वर्णके विविध समयके विशेष ऋषियों द्वारा संकलित विविध अनुष्ठान मंत्र एवं आत्मगान हैं। उनकी उत्पत्ति एकदम एक समय नहीं हुई थी, बल्कि समयानुसार जिस जिस बातमें बढ़ ब्राह्मणधर्म, आर्पप्रणीत सनातन आर्यधर्म ( जैनधर्म ) से अलग होता गया उस उस ही प्रकार वह अपनी आवश्यकतानुसार अपने वेदों आदि की उत्पत्ति अपने मतकी पुष्टिके लिए करता गया । इस विषयका उल्लेख प्रस्तावनामें किया जा चुका है । वस्तु - स्वरूपकी यथार्थ दृष्टिसे कहें तो आर्षवेद ( जैनियोंकी द्वादशांग वाणी ) अनादिकालसे है, क्योंकि सत्य अनादिनिधन है और उसका कभी लोग नहीं होता । कहीं न कहीं वह अवश्य विद्यमान रहता है, चाहे प्रगटरूपमें हो अथवा अप्रगटरूपमें। वैसे इन आर्षवेदोका निरूपण इस युगमें सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेवने किया था, जो सकल ( सशरीर ) परमात्मा थे । अर्थात् सर्वज्ञ थे । इसलिये + हिन्दुओंके वेद ईश्वरप्रणीत नहीं हैं यह बात बौद्धोंके करीब दो हजार को प्राचीन ग्रन्थ 'तेविज्यत्त' से प्रमाणित है। वहां उन्हें ऋषिप्रणीत प्रगट किया है । ( See The Dialogues of Buddha P. 304) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | आर्षवेद ही यथार्थ में भगवद्वाणी हैं, और वह किन्हीं अंशोंमें आज भी हमको प्राप्त हैं । इन आवेदोंकी गिनती मुख्यतयां चारसे ही की जायगी अर्थात् वह चार ही हैं । (१) द्रव्यानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानुयोग और ( ४ ) प्रथमानुयोग | यह सब श्रुति कहलाते हैं, क्योंकि यह सर्वज्ञ भगवानकी दिव्यध्वनि द्वारा कर्णगोचर होकर उन भगवान के मुख्य गणधर ( जो अवधिज्ञानी होते हैं ) द्वारा प्रतिपादित किये जाते हैं । ' श्रुति अथवा दैवी वाणीका यथार्थरूप सामान्यतया इसप्रकार समझना चाहिये 9 (१) उसकी उत्पत्ति सर्वज्ञ तीर्थंकर द्वारा होनी चाहिये । ( २ ) वह किसीके द्वारा खण्डन न की जा सके। (३) पूर्वापर विरोध रहित हो । ( ४ ) सर्व हितकारी हो । ( ५ ) यथार्थ तत्वोंके स्वरूपको वास्तविकरूपमें प्रकाशित करनेवाली हों। (६) और उसके द्वारा आत्मा सम्बन्धी समस्त शंकाएं निर्मूल हो जाती हों । उक्त आर्षवेद इसी प्रकारके हैं, और उनकी भाषा 'अर्धमागधी' समझनी चाहिये । भगवान ऋषभनाथके निर्वाण होनेपर पचास लाख कोटिसागर वर्ष तक संपूर्ण श्रुतज्ञान अविछिन्न रूपसे प्रकाशित रहा । अनंतर दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवान हुये। उनके पश्चात् भी श्रुतज्ञान अस्ख। लित गति से चलता रहा । एवं पीछे भगवान पुष्पदन्तके समय तक समस्त श्रुत अव्यवहित रूपेण प्रकाशित रहा । इनके पश्चात् भगवान शांतिनाथ तक श्रुतविच्छेद होता रहा था । परन्तु श्री शांतिनाथ से वर्द्धमान तीर्थंकर पर्यन्त श्रुतका विच्छेद नहीं हुआ । कुशाग्रबुद्धि यतिवरों द्वारा ज्योंका त्यों प्रकाशित रहा । 18 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com : Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद । [ १०३ " ! भगवान वर्द्धमानके गणधर श्री इन्द्रभूति ( गौतमने) भगवानकी वाणीको तत्वपूर्वक जानकर उस श्रुतिकी अंग और पूर्वो में युगपत् रचना की, जो अपने रूपमें भगवान वर्द्धमान ( महावीर के मोक्ष जानेके बाद ६८३ वर्ष तक रही। ( श्री इन्द्रनंद्याचार्यकृत श्रुतावतार कथासे) और वह गुरुपरम्परासे कण्ठस्थ ही चली आयी थी । * परन्तु पश्चात् कालदोष से मुनिवरोंकी स्मरणशक्तिका अभाव होता गया, तत्र आगम * बे० चम्पतरायजी जैन ने अपनी पुस्तक Practical Path" में इस विषय में लिखा है कि " जैन सिद्धान्त अर्थात् श्रुति ( आर्षवेद ) भी (ब्राह्मण) वेदोंके समान मनुष्योंकी स्मृतिमें रहे थे और बे लिपिवर्द्ध अंतिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के निर्वाण होनेसे कई शताब्दियों के पश्चात् किए गए थे। मेक्षमूलर साहब भी इससे सहमत हैं। उनका कहना है कि प्राचीन कालमें भारतवर्ष में साहित्य जबानी ही याद रक्खा जाता था । टैल (Tiele ) साहबके मतानुसार 'भारतवर्ष में लिपि कलाकी जानकारी तीसरी शताब्दीके पहिलेसे विद्यमान थी, परन्तु उसका व्यवहार साहित्य में पहिले तो होता ही नहीं था और होता भी था तो कभी कभी । ' मि० जे० एम० रॉबर्टसन साहब लिखते हैं कि ' यह सब (साहित्य) प्राचीनकालसे जवानी ही एक दूसरेको बतला दिए जाते थे । और अक्षरोंकी अनावश्यकता से कोई हानि भी नहीं हुई। अधिकतर प्राचीन अलिखित शास्त्र ऐसी शुद्धता से दूसरों को बतला दिए जाते थे, जैसे शुद्ध लिखित शास्त्र | यह इस कारण था कि पहिली अवस्थामें याद करानेका एक प्रधान नियम था, फिर दूसरोंमें लिपिकर्ता द्वारा विशेष त्रुटियां तथा घटाव बढ़ाव किए जाने लगे और कंठस्थ करनेकी रीति भी जीवित रही। वर्तमान समय तक ब्राह्मणोंके बालकों का वेद कंठस्थ उसी प्रथानुसार कराये जाते हैं । जैनियोंमें भी सन्तानकी प्रथम शिक्षा भगवत् स्तोत्रोंके कंठस्थ करानेसे प्रारम्भ होती है । पहिले ही पहिले जैन बालकोंको " पंचकल्याणक मंगलपाठ कंठस्थ कराया जाता है । कहीं कहीं तो जैन बाइबिल – तत्वार्थसूत्र और M Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 66 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ commameeMANARTHAKHNAAONTENNIORAMANNINEMIENNIAMONIANRAINIOANMOHAMMARIES १०४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । ज्ञानका बिलकुल लोप होजानेके भयसे ज्येष्ठ सुदी ५ को श्रीभूतबलि मुनिने उनके अवशेष भागको षखंडागम नामसे लिपिबद्ध किया था। ____ यह आर्षवेद अथवा श्रुतज्ञान जैनियोंकी द्वादशांग वाणीमें प्रविष्ट है। और वह अंगप्रविष्ट (१२ अंगोंमें ) और अंगबाह्य (१२ अंगोंके अतिरिक्त) के भेदसे दो प्रकारका है। इसकी भाषाके ६४ अक्षर हैं जिनमें ३३ व्यंजन और २७ स्वर हैं एवं २ मिश्रितरूप, १ अनुस्वार और १ विसर्ग है। ( Mixed sounds, anusvara, Visarga: hk, hkh, bp, hph. See S. B. J. Vol. II. P. 20 ). इन अक्षरोंका २, ३, ४ से ६४ पर्यन्त संयुक्ताक्षर परिणाम (२६४-१) है अर्थात् १, ८४, ४६,७४, ४०, प्राकृत पूजाऐं कंठस्थ कराई जाती हैं। सेजर साहिबके द्राविड़ ज्ञानप्राप्तिके वर्णनमें इस विषयका उल्लेख है कि बहुतसे लोग द्राविड़ (Dravid) रीत्यानुसार कितनी ही कविताएं कंठस्थ रखते थे। उनमेंसे कितनेक विद्यार्थी अवन्यामें २० वर्ष तक रहते थे । तो भी गार्हस्थ कार्योंमें लिपिका आश्रय लिया जाता था। तब यह मनुष्य समाजमें एक साधारण कार्य था, और जैनी भी उससे पृथक् नहीं थे, जैसा कि अब प्रत्येक विद्वान मानता है। मि० बाथके अनुसार जैन सिद्धान्त लिपि करनेके पहिले अनुमानतः १००० वर्ष पूर्वसे विद्यमान थे। इस विषयमें जैनियोंकी भी व्याख्या प्राप्त है और वह अपने आगमज्ञानके लिपिबद्ध होनेका समय भी बतलाते हैं। यद्यपि वह लेखनकलाका प्रचार भगवान ऋषभदेवके समयसे हुआ बतलाते हैं, परन्तु समग्र श्रुत पूर्णरूपमें कभी लिपिबद्ध नहीं हुआ। वह यतिवरोंकी स्मृतिमें ही रहा। यह बात "बृहत् जैन शब्दार्णव" भाग १ पृष्ठ ४१ पर अङ्कित है। तथा श्वेताम्बर विद्वान प्रो० बनारसीदास भी इससे सहमत हैं।" ( देखो माधुरी वर्ष ३). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम परिच्छेद । [१०५ ७३, ७०, ९५,५१, ६१५ । यही श्रुतके सम्पूर्ण अक्षर समझना चाहिए। परमागमके मध्यम पदको १६, ३४, ८३, ०७, ८८८ से इन कुल अक्षरोंको विभक्त करनेसे हमें इन अंगोंके पदोंकी संख्या मालूम हो जाती है जो ११, २८, ३५, ८०, ००५ है। अवशेष ८०१०८१७५ अंग बाह्यके अक्षरोंकी संख्या है । यह अङ्ग बाह्य १५ प्रकीर्णकोंमें विभक्त हैं जो वैकालिक, उत्तराध्ययन आदि हैं। द्वादशाङ्ग निम्नप्रकार हैं (१) आचारङ्गमें मुनिधर्मके चारित्र सम्बन्धी नियमोंका पूर्ण विवरण है। इसमें १८००० मध्यमपद हैं। (२) सूत्रकृतांगमें धार्मिक क्रियायोंका और अन्य धर्मोकी क्रियायोंके अन्तरका वर्णन है । इसमें ३६००० मध्यमपद हैं। (३) स्थानांगमें एक या अधिक स्थानोंका वर्णन है अथवा जीव पुद्गल आदि द्रव्योंका संख्यापेक्षया वर्णन है। जैसे जीव द्रव्य एक है और वही चेतना-शक्तिकी अपेक्षा सर्व जगह है और उसकी सिद्धावस्था वा संसारावस्थाकी अपेक्षा वह दो प्रकारका है। इसमें ४२००० मध्यम पद हैं। ___(४) समवायाङ्गमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा जो समानताएं उत्पन्न होती हैं उनका वर्णन है। जैसे द्रव्यकी अपेक्षा धर्म और अधर्म एक हैं (दोनों द्रव्य हैं) ऐसे ही समझना चाहिये । इसमें १६४००० मध्यम पद हैं। (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति शिष्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नोंका तीर्थकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । भगवान द्वारा प्रतिपादित उत्तरोंका वर्णन है । इसमें २,२८,००० मध्यमपद हैं। (६) ज्ञातृकथाङ्ग वा धर्मकथाङ्गमें ९ पदार्थ जीव आदिके स्वभावका वर्णन और भगवानसे पूछे गए गणघरों के प्रश्नों के उत्तर हैं। इसके ५.५६,००० मध्यपद हैं । (७) उपासकाध्ययनाङ्गमें गृहस्थ श्रावककी ११ प्रतिमाओंका वर्णन है अर्थात् गृहस्थोंके चारित्र सम्बन्धी नियमों आदिका वर्णन है । इसमें ११,७०,००० मध्यमपद हैं। (८) अन्तःकृतदशाङ्गमें उन १० मुनियों का वर्णन है जो २४ तीर्थङ्करों के प्रत्येकके समयमें होते हैं और दुर्धर तपश्चरण कर अपनेको सम्पूर्ण कम्मोसे मुक्त कर लेते हैं। इसमें २३,२८.००० मध्यमपद हैं। (९) अनुत्तरोत्पादकदशाङ्गमें उन १०-१० मुनियों का वर्णन है जो प्रत्येक तीर्थङ्करके समयमें होते हैं, और कठिन तपश्चरणका • अभ्यास कर म्वर्गलोकके पांच अनुत्तर विमानोंमें जन्म लेते हैं। इस अंगमें ९२,४४,००० मध्यमपद होते हैं। , (१०) प्रश्नव्याकरणाङ्गमें कथनी, आक्षेपिणी ( सत्यको प्रगट करनेवाली ), विक्षेपिणी (भ्रमकी बिध्वंशक ), संवेदिनी ( सत्यकी ओर प्रेमोत्पादक ) और निर्वेदिनी ( मोहसे पीछा छुड़ानेवाली) विद्याओंका वर्णन है । इसमें ९३,१६,००० मध्यमपद हैं। __ (११) विपाकसूत्राङ्गमें कर्मके बन्ध, उदय और सत्ताका वर्णन है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा उनकी कठोरता और कोम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___... पंचम परिच्छेदः । [१०७. EM.IN ww .N.. MNMAN.www लताका वर्णन है। अर्थात् इसमें कर्म-सिद्धान्तका वर्णन किया है। इसमें १८४,००,००० मध्यम पद हैं। (१२) दृष्टिप्रवादाङ्गमें १०८,६८,५६,००५ मध्यम पद हैं और यह पांच भागोंमें विभक्त है। अर्थात् ५ परिक्रमा, सूत्र, प्रथमानुयोग, १४ पूर्वगत और ५ चूलिका । इन पांच भागोंका वर्णन इस प्रकार हैपांच परिक्रमाः (१) चन्द्रप्रज्ञप्ति परिक्रमामें चन्द्रमाकी चाल गति आदिका वर्णन है। इसके ३६,०५,००० मध्यम पद हैं। (२) सूर्यप्रज्ञप्तिमें सूर्य सम्बन्धी सर्व बातोंका समावेश है। इसके ५०३००० पद हैं। . ( ३ ) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिमें जम्बूद्वीपका संपूर्ण भौगोलिक वर्णन है। मध्यम पद ३२५००० हैं । (४) द्वीपप्रज्ञप्तिमें समस्त द्वीप क्षेत्रों. समुद्रों, भवन, व्यंतर, ज्योतिष देवोंके स्थानों एवं जैन मंदिरोंके स्थानोंका विवरण है। इसमें ५२,३६,००० मध्यम पद हैं। (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति परिक्रमाके मध्य जीव, अजीव आदि नव पदार्थोंका संख्यात्मक वर्णन है। इसमें ५२,३६,००० मध्यमपद हैं। सूत्र-इसमें ३६३ मिथ्या मतों (दर्शनों) का वर्णन है। उन मतोंके आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्तों पर विवेचन किया गया है और आत्माका यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप दर्शाया गया है। इसमें ८८,००, .००० मध्यम पद हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | \\\\\LITO प्रथमानुयोग - इसमें ६३ शलाका पुरुषों ( महात्माओं ) का - वर्णन होता है । इसके ५०००, मध्यम पद होते हैं | १४ पूर्वगतः - ( १ ) उत्पाद पूर्व में जीव, पुद्गल, काल आदिके स्वभावका वर्णन उनके विविध स्थानों और समय में उत्पाद, धौव्य, व्ययकी अपेक्षा कहा जाता है । इसके मध्यमपद १,००,००० होते हैं । (२) अग्रायणी पूर्व में ७ तत्व, ९ पदार्थ, ६ द्रव्यों और निश्चय एवं व्यवहारनयोंका वर्णन कथित होता है। इसमें ९६,००,००० - मध्यमपद होते हैं । (३) वीर्यानुवाद पूर्व में जीव, अजीव, दोनों, स्थान, समय, एवं भाव वीर्यकी शक्तियोंका और तपोवीर्यका स्वरूप तथा नरेन्द्र, चक्रवर, बलदेवके चलका वर्णन होता है। इसके पद होते हैं। ० मध्यम (४) अस्ति नास्तिप्रवाद पूर्वमें जीव एवं अन्य द्रव्योंके क्षेत्र, काल, भावादिकी अपेक्षा अस्तित्व और नास्तित्वका वर्णन होता है । एवं सप्तभंगीका कथन होता है। इसमें ६०,००,००० मध्यमपद होते हैं । (५) ज्ञानप्रवाद पूर्व में मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान एवं कुमति, कुश्रुति और विभंगज्ञान इनका पूर्ण विवेचन होता है। इसके ९९ ९९, ९९९ मध्यमपद होते हैं । 1 (६) सत्यप्रवाद पूर्व मौन और वचनालापका विवरण कहता है । विविधं व्याख्यानको आदिका एवं १० यथार्थ बचनाळापको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ܕܘܘܕܘ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NANATANAMANANMANANAMAMATARANRAM MNANRAINAMAdarwwLaneKINARENENING " पंचम परिच्छेद । [१०६ प्रगट करता है। इसके १,००,००,००६ मध्यमपद होते हैं। (७) आत्मप्रवाद पूर्वमें निश्चय और व्यवहारनयोंकी अपेक्षा आत्माके कर्मों के कर्ता और भोक्तापनेका विवरण होता है। एवं आत्मासम्बंधी अन्य विशद बातोंका उल्लेख होता है। इसमें २६,००,००० मध्यमपद होते हैं। (८) कर्मप्रवाद पूर्वमें कर्मकी विविध दशाओंका वर्णन है जैसे बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा, अपकर्षण आदि। इसके १,८०,००,००० मध्यमपद हैं। (९) प्रत्याख्यान पूर्वमें उन वस्तुओंका वर्णन है जिनको मनुष्यको सदैवके लिये अथवा किसी खास समयके लिये अपने शरीर बल (संहनन) आदिकी अपेक्षा त्याग करना चाहिये। एवं ५ समिति, ३ गुप्ति आदिका भी वर्णन है। इसके ८४,००,००० मध्यमपद होते हैं। (१०) विद्यानुवाद पूर्वमें ७०० सामान्य विद्याओंका कथन है जैसे शकुन विद्या आदि और ५०० मुख्य विद्याओंका, जिनका प्रारम्भ ज्योतिष विद्यासे होता है। इसमें १,१०,००,००० मध्यम पद होते हैं। (११) कल्याणवाद पूर्वमें तीर्थङ्करों, चक्रधरों, वासुदेवों आदिके जीवनमें घटित विशेष महोत्सवों (कल्याणकों) का एवं १६ प्रकारकी भावनाओंका, जिनसे आत्मा तीर्थकरपदको प्राप्त होता है, और नक्षत्र एवं सूर्य, चक्रादिके प्रभावका वर्णन है। इसमें २६,००,००० मध्यमपद होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | (१२) प्राणवाद पूर्व में ८ प्रकारकी औषधिविद्या, भूत प्रेतों- कृत पीड़ाओंके निवारणकी विद्या आदिका वर्णन है । इसमें १३,००,००,००० मध्यमपद होते हैं। (१३) क्रियाविशाल पूर्व में गानविद्या, काव्य, अलंकार, ७२ कला, आदि एवं स्त्रियोंकी ६४ कला और उनकी ६४ क्रियाओं तथैव भगवदुपासना आदि विविध क्रियाओंका वर्णन है । इसके ९,००,००,०० मध्यमपद होते हैं। (१४) त्रिलोकबिन्दुसार पूर्व है । इसमें तीनों लोक, २६ परिक्रमाओं, ८, व्यवहार आदिका एवं मोक्ष प्राप्तिके मार्गका और उसके प्राप्त होने पर सुख और शान्तिकी अवस्थाका वर्णन है । इसमें १२,५०,००,०० मध्यम पद हैं। ५ चूलिका: (१) जलगता चूलिका में मंत्रों, आहुति आदिसे पानीको रोकने, पानी में चलने, अग्निको रोकने और अग्निमें घुसने आदिका वर्णन है इसमें २,०९,८९,२०० मध्यम पद हैं । 1 (२) स्थलगता चूलिका में उन मंत्रों और आहुतियों का वर्णन है जिनके द्वारा मेरुपर्वत एवं अन्य देशोंमें जानेका एवं जल्दी चलने आदिका वर्णन है । इसके २,०९,८९,९०० मध्यम पद हैं । (३) मायागता चूलिका में हाथसे करिश्मे आदि दिखाने की क्रियाओं एवं मंत्रों का विवरण है। इसमें भी २,०९,८९.२००. - मध्यम पद V हैं I (४) रूपगता चूलिका में उन क्रियाओंका वर्णन है जिनके www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::.. पंचम परिच्छेद। [११९ द्वारा शेर, हाथी, घोड़ा, आदिका रूप धारण करना आता हो। इसमें भी २,०९,८९,२ . ० मध्यम पद हैं। (५) आकाशगता चूलिकामें उन मंत्रों, आहुतियों और तपोंका वर्णन है जिनके द्वारा मनुष्य आकाश आदिमें चल सकता है। इसके भी २,०९,८९,२०० मध्यम पद हैं। ___अंगबाह्य श्रुतके ८, १,०८१७५ अक्षर हैं और वह १४ प्रकीर्णकोंमें विभाजित हैं। • (१) मामायिक प्रकीर्णकमें ६ प्रकारके सामयिक ( आत्मचितवन, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नाम, स्थापनाकी अपेक्षा ) का विवरण है। (२) मस्तक प्रकीर्णकमें तीर्थकरोंके जीवनकी पांच मुख्य ' ' बातों, उनके ३४ विशदवल, ८ प्रातिहार्य आदिका वर्णन है। (३) बन्दना प्रकीर्णकमें मंदिरों एवं अन्य उपासनाके स्थानों का वर्णन होता है। (४) प्रतिक्रमण प्रकीर्णकमें उन क्रियाओंका वर्णन है जो दिन रात पक्ष आदिके दोष दूर करनेके लिए आवश्यक हैं । एवं ईयांपथ आदिके दोष दूर करनेका कथन है। (५) विनय प्रकीर्णकमें ५ प्रकारकी विनय आदिका विव. रण कहा है। (६) कृतिकर्म प्रकीर्णकमें जिनभगवान, तीर्थकर भगवानकी पूजा उपासना आदिकी, और अहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, सर्व. साधु, जैन धर्म, जैन तीर्थकोंकी मूर्तियों, जिनवाणी, एवं जिन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथमं भाग । मंदिरों को तीन शिरोनति, तीन प्रदक्षिणा, १२ दफे नमस्कार आदिकी क्रियाओंका पूर्ण विवरण है । ( ७ ) दशकालिक प्रकीर्णकमें चारित्रके नियमोंका एवं मुनियोंके भोजनोंकी शुद्धताका वर्णन है । ( ८ ) उत्तराध्ययन प्रकीर्णक में साधुके चार प्रकारके उपसर्ग और २२ परीषहका एवं उनके फलका विवरण कहा है। ( ९ ) कल्पव्यवहार प्रकीर्णक में मुनियोंकी यथार्थ क्रियाओंका और अयथार्थ क्रियाओं के पालनकी निर्वृत्तिके उपायका वर्णन होता है। (१०) कल्पाकल्प प्रकीर्णकमें उन पदार्थों, स्थानों वा विचारोंका वर्णन है जिनको एक साधु द्रव्य, क्षेत्र काल, भावकी अपेक्षा काम में ला सकता है | ་ (११) महाकल्प संज्ञक प्रकीर्णकमें उन तीनों कालकी योग क्रियाओंका वर्णन है जिनको एक जिनकल्पी ( अर्थात् इतना उन्नत चारित्र साधु जो अपनेको संघसे प्रथक् कर लेता है ) साधु शरीर आदिकी अपेक्षा उसके चहुंओरके द्रव्य, क्षेत्र, भाव, कालके अनुसार उपयोग में लाता है । और स्थविरकल्पी ( साधुसंघका एक सदस्य ) साधुके चारित्र नियमोंका भी वर्णन है, अर्थात् शिक्षाक्रम, साधुओंकी संभाल, आत्म-शुद्धि आदिका वर्णन है । (१२) पुण्डरीक प्रकीर्णकमें दान, पूजा तप, संयम आदिका वर्णन है, जिनसे आत्माको चतुर्निकायकदेवस्थानों में जन्म मिलता है । (१३) महापुण्डरीक प्रकीर्णकमें उन कारणों और व्रत उपवास आदिका वर्णन है, जिनके फलस्वरूप आत्मा इन्द्र, प्रतीन्द्र आदि होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A NNAINIKName.......Nikiwan. ........ पंचम परिच्छेद । [११३ (१४) निशिद्धिका प्रकीर्णकमें प्रमादसे जो विविध दोष उत्पन्न होते हैं उनसे शुद्ध होनेके उपाय कहे हुये हैं। इस प्रकार आर्ष वेदों का पूर्ण विवरण जो 'श्रुत' कहलाते हैं इनका पूर्णरूपमें अथबा एकदेशमै उपदेश - करनेवालों की संख्या तीन प्रकार हैं । अर्थात्: १-तीर्थंकर और केवली-सर्वज्ञ भगवान । २-गणधर और श्रुतकेवली, जो श्रुतको पूर्ण रूपसे जानते हैं । वे अंग पूर्वोकी व्यवस्था करते हैं। इनके केवलज्ञानको छोड़कर चारों प्रकारका ज्ञान होता है । (३. आरातीय अर्थात् वह साधु जो श्रुतकेवलीकी तरह उपदेश और शिक्षा देते हैं । यह १० वैकालिक आदिके कर्ता भी होते हैं। इनको आचार्य भी कहते हैं ।* हम पहिले ही कह चुके हैं कि यह आर्षवेद-श्रुति कुशाग्रबुद्धि मुनिवरोंद्वारा स्मृतिमें रक्खे जाते थे। परन्तु बड़े खेदका विषय है कि ज्यों ज्यों कालदोष बढ़ता गया त्यों त्यों स्मरणशक्तिका लोप होता गया और इस तरह पूर्ण रूपमें श्रुतकी प्राप्तिका अभाव होगया। भगवान महावीरके मोक्ष जानेके बाद ६८३ वर्ष पश्चात् अवशेष श्रुत लिपिबद्ध कर लिये गये और उसीके अनुसार विविध मुनिवर आचार्योंने ग्रंथोंकी रचना की, जो आज हमको प्राप्त हैं, जिनका विशद वर्णन हम अगाड़ी करेंगे। सामान्यतया उनमेंके मुख्य २ ग्रन्थ इस प्रकार हैं: * देखो “तत्वार्थवत्रजी " S. B. I. Vol. II P. 28-38. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। द्रव्यानुयोग-धवल, जयधवल, महाधवल, (ताड़पत्र पर हस्तलिखित केवल मूडबिद्रीमें थे, जो अब हिन्दी टीका सहित क्रमशः छप रहे हैं। ) और गोम्मटसारजी, तत्वार्थसूत्रजी। तत्वार्थसूत्रजी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायोंको मान्य हैं। इसलिये वास्तवमें यह 'जैन बाइबल' कहा जा सकता है। चरणानुयोग-नियमसार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि । कर्णानुयोग-त्रिलोकप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप्रज्ञति, त्रिलोकसार आदि । प्रथमानुयोग-महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि । इस प्रकार यह आर्षवेद ( जैनवाणी) का विवरण है। षष्ठम परिच्छेद । आर्ष वैदिक धर्म अर्थात् जैनधर्म और उसकी सभ्यता । अति प्राचीनकालमें आर्य लोगों का धर्म वही था जिसका उपदेश आर्षवेद-श्रुत जैनवाणीमें मौजूद था और जो अब जैनियोंके आर्ष ग्रन्थों में मिलता है । जैनियोंके वर्तमानमें उपलब्ध आर्ष आचार्य ग्रंथोंका विषय लुप्तप्रायः श्रुनका एक सत्यांश है। इसलिए उनकी यथार्थतामें कुछ संशय नहीं रहता। उसपर, उनमें वर्णित विषय बुद्धिग्राह्य, वैज्ञानिक सत्य हैं। यद्यपि हम देख चुके हैं कि यथार्थ ईश्व * इस विषयमें जर्मनीक प्रसिद्ध विद्वान मि० जॉन हर्टल कहते है कि " भारतीय सभ्यताका इतिहास लिखनेके लिए जैन कथाएं -हुत ही अमूल्य सामग्री है। " प्रसिद्ध भारतीय विद्वान स्वर्गीय डॉ. सतीश्चन्द्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MarweenENNEWryamirememewwvmwwwwwww षष्ठम परिच्छेद । [११५ रीय आर्षवेद तो यतियोंकी स्मरणशक्तिके अभाव हो जानेसे लुप्त होगए थे, और उनका पूर्ण ज्ञान उपलब्ध नहीं रहा था परन्तु पश्चात्के मुख्य ग्रन्थोंका आज उपलब्ध न होना भी कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि भारतवर्षमें धार्मिक प्रभावके कारण समय समयपर कैसे कैसे अत्याचारी राज्यनैतिक परिवर्तन होते रहे थे, जिनसे विपक्षी धर्मके ग्रन्थों और इमारतों पर वेदरद हो आक्रमण किया गया था। पारम्परिक विरोधने राष्ट्रीयताका भाव भी काफूर कर दिया था। आर्ष वैदिक धर्म अर्थात् जैनधर्मकी सरलता, सुगमता और उत्तमता सर्व प्रकट है; क्योंकि वह एक यथार्थ वैज्ञानिक धर्म है। उसको नीव कार्य कारण के सिद्धान्त पर निर्भर है। उसमें सात तत्व मान गए हैं जो निम्न प्रकार हैं: (१) जीव वा आत्मा (२) अजीव वा प्रकृति (३) आश्रव अर्थात् पुदलका जीवमें आना ( ४ ) बन्ध अत् कैद (५) संवर अर्थत् पुद्गलके आश्रवको रोकना (६) निर्जश अर्थात् बंधनको तोड़ना (७) और मोक्ष अथ त् छुटकारा वा निवाण । विद्याभूषण पी एच. डो आदिने भी यही कहा था कि जनशास्त्र भारतीय इतिहामपर अपूर्व प्रकाश डलते हैं । बर्लिन ( जमनो) विश्वविद्यालय संस्कृत के प्रो. डॉ हेल्मथ बॉन ग्लेमेने माहब भी लिखते हैं कि:जनधर्म मव प्राचीन मैद्धान्तिक मत है जो आजतक अपने जन्मस्थानमें अविकृत रूपमें रहा है । ( Jainism is the oldest philosophical systew that has remaineil quite unchantged in forn in the land of its originalnost upto this day. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । इनको ही पुण्य और पापके मिलानेसे (७+२=९) नौ पदार्थ कहे जाते हैं । जगत अनादि निधन है। इसको कभी किसीने उत्पन्न नहीं किया है । इसमें दो प्रकारके पदार्थ पाए जाते हैं-जीव और अजीव । अजीवमें कई पदार्थ सम्मिलित हैं, जैसे-आकाश, काल, पुद्गल आदि । परन्तु उन सबमें जीव और पुद्गल ही मुख्य हैं। जीव अनन्त. हैं और पुद्गल परमाणुओंका समुदाय है । जगतके विविध चक्र परिभ्रमण इन जीव और पुद्गलके आपसी मिलावके फलस्वरूप हैं, जो खास २ प्राकृतिक नियमोंपर आधारित हैं । संसारी आत्मायें पुद्गलसे सम्बंधित हैं जिसके कारण उनके स्वाभाविक गुण परिमाणमें ढक गये हैं एवं निस्तेज हो गए हैं। ___ स्वाभाविक गुणोंका इस प्रकार दब जाना और मन्द पड़ जाना उस पुद्गलकी तौल और परिमाणपर निर्भर है जो प्रत्येक जीवके साथ लगा हुआ है। पुद्गलसे पूर्ण छुटकारा पा लेनेका नाम मोक्ष है, जिसके प्राप्त होनेपर जीवके स्वाभाविक गुण जो मन्द और निस्तेज होगये थे फिर नये सिरेसे पूर्ण रूपेण प्रकाशमान (उदित) हो जाते हैं । शुद्ध जीवके स्वाभाविक गुणोंमें-(१) सर्वज्ञता, (२) आनन्द, (३) और अमरत्व शामिल हैं; इसी कारण प्रत्येक मुक्त जीव सर्वज्ञ, आनन्दसे भरपूर और अमर होजाता है। कारण कि उस समय उसके साथ पुद्गल नहीं होता है। इस कारणसे ही प्रत्येक मुक्त जीव परमात्मा कहलाता है। परमात्मा जगतके सबसे ऊँचे भागपर जिसको सिद्ध-शिला कहते हैं, रहते हैं, जहांसे गिरकर ( च्युत होकर ) या निकलकर फिर कभी वह सांसारिक परिभ्रमण और दुःखोंमें नहीं पड़ते हैं। शेषके, अनन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टम परिच्छेद । [ ११७ जीव आवागमन के चक्र में पड़े चकराया करते हैं। वारम्वार जन्मते और मरते हैं । आवागमन में चार गतियां हैं। जिनके नाम . 1 (१) देवगति, (२) नरकगति, (३) मनुष्यगति, (४) और तियेचगति हैं । देवगति स्वर्गवासी देवादिसे सम्बंध रखती है | नरक गतिका भाव मनुष्य जीवन से है । शेष के सब प्रकार के जीव तिर्यंचगतिमें दाखिल हैं, जैसे नभनर, जलचर, कीड़े मकोड़े, वनस्पति, पृथ्वी आदि । इन गतियों में से प्रत्येक में विभिन्न अवस्थाएं जीवनकी है, परन्तु गति चार ही हैं । स्वर्गवासी देवगण विशेष सुख और आनंदका उपभोग करते हैं; किन्तु दुःखका बिलकुल वहां भी अभाव नहीं है । नारकी जीव अत्यन्त दुःख उठाते हैं । मनुष्य सुख और दुःख दोनों भोगता है, किन्तु उसके भागमें दुःखका परिमाण विशेष है और तिर्यचगतिमें भी दुःख और तकलीफ विशेष है । बारबार जन्मना और मरना इन चारों गतियों में है । ( केनल वे ही जीव, जो आवागमनकी सीमा के बाहर होजाते हैं, सदैवका जीवन उपभोग करते हैं। ) परन्तु इस बातका भय यहां भी नहीं है कि एक जीवनका पुण्य आगामी जीवनमें न मिले। पुण्य और पापका फल जीवके साथ एक जन्मसे दूसरे जन्मको जाता है और उसीके अनुसार आगामी जन्म (जीवन) का गतिबंध होता है। आवागमनसे छुटकारा, व्रतोंके पालने, आचार विषयक नियमोंको मानने जैसे अहिंसा, दूसरोंके प्रति क्षमा धारण करना आदिसे और शारीरिक एवं आन्तरिक तपस्या, जैसे स्वाध्याय, ध्यान, उपवास आदि करनेसे होता है । व्रत पांच हैं-अहिंसा ( किसीको पीड़ा न पहुंचाना ), सच बोलना, चोरी न करना, कुशील ( व्यभिचार ) न पालना और सांसारिक वस्तुओंकी लालसा न करना । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | खुलासा यह है कि निर्वाण सच्ची श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन ( तत्वों के विश्वास ), सच्चे ज्ञान ( तत्वोंका ज्ञान ) और सच्चे चारित्र ( शास्त्रों में बताए हुए व्रतों आदिको पालने ) से प्राप्त होता है । इस सम्यक् रत्नत्रय मोक्षमार्गका निर्माण परमात्मपद पानेके लिये हुआ है; जो जीवका निजी स्वभाव है। अनन्त जीवोंने इस रत्नत्रय भार्गका अनुसरण कर मोक्ष लाभ किया है, जो कि एक मात्र निर्वाण प्राप्तिका मार्ग है। यह मार्ग दो विभागों में विभक्त है । प्रथम सहल गृहस्थ के लिये और द्वितीय कठिन साधुओंके वास्ते । 1 गृहस्थधर्मका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे होता है। जिसके पश्चात् गृहस्थ व्रत का पालन प्रारम्भ करता है और धीरे धीरे ग्यारह प्रतिमाओं को पालते हुए ऊपर चढ़ता हुआ सन्यास पदवीको पा लेता है । इस समय से उसे साधुमार्गके कठिन व्रतोंका पालना अवश्यम्भावी हो जाता है । ये ग्यारह प्रतिमाएं गृहस्थ के लिए हैं। जिनमें से हर पिछली प्रतिमा पहिली प्रतिमाकी निस्वत विशेष बढ़ी हुई और उसको अपने में सम्मिलित किए हुए है । साधुका जीवन अति कठिनसाध्य जीवन है । वह अपनेको संसारसे नितान्त विलग करके और अपनी इच्छाओं एवं विषयवासनाओंको निरोधित करके शुद्ध आत्मध्यान में लीन हो जानेका प्रयत्न करता है। इस प्रकार तप और उपवास करते हुए वह अपनी आत्माको पुद्गलसे अलग कर लेता है और कर्म और अवागमनकी जड़ उखाड़ डालता है । कर्मोंके नाश होते ही जीव सर्वज्ञ और अमर होजाता है एवं अपने स्वाभाविक आनंदसे भरपूर होजाता है, जिसमें भविष्य में कभी भी कमताई नहीं होती है। जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद । [११९ धर्मके अनुसार जीवके साथ आवागमन लगा रहता है जबतक कि वह निर्वाणपद प्राप्त न करले । कुछ जीव ऐसे हैं जो कभी भी मुक्त न होंगे, यद्यपि परमात्मपद उनका भी स्वाभाविक स्थान है। इसका कारण यह है कि उनके कर्म ऐसी बुरी तरह के हैं कि उनको कभी भी रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होसक्ती है, अर्थात् उन्हें कभी भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका भान नहीं हो सक्ता है ! जिनके विदून मोक्ष नहीं मिल सक्ती है । (ज्ञानकी कुंजी Key of Knowledge असहमत संगम आदिको और आर्ष जैन ग्रन्थों को पढ़नेसे) जैनधमकी सिद्धान्तशैली वैज्ञानिक ढंगकी है, यह प्रगट होजाता है, और इसी कारणसे उसमें किसी देवी देवताओं के लिए स्थान नहीं है । यद्यपि वह प्रत्येक कालमें जो अनंत समयका है, चौवीस सच्च गुरुओं अथवा तीर्थङ्करोंकी उत्पत्तिको मानता है। तीर्थङ्कर आवागमनके समुद्र के पार पहुंचनेके लिए जीवोंको योग्य मार्ग बताते हैं । ये महात्मा या महापुरुा किसी बड़े या छोटे देवताके अवतार नहीं है बल्कि मनुष्य हैं जो स्वत: भी मार्गपर चलकर परमात्मपद प्राप्त करते हैं जिसको बादमें वे दूमरोंको बताते हैं ।"* जैनधर्मकी उक्त सैद्धांतिक शैली अनादि कालसे इसी रूपमें है। वह स्वयं वैज्ञानिक सत्य है। इसलिए उसमें हिन्दू धर्मको भांति समयानुसार रूपांतर नहीं किए गए हैं, उसके सिद्धान्त संपूर्ण रूपमें पूर्ण हैं । जो सैद्धांतिक बातें उसमें वर्णित हैं, उनमेंसे बहुतसीको आधुनिक विज्ञान ( Science ) की-खोज भी प्रमाणित करती जाती __* देखो असहमत संगम पत्र ८-१३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAINIONwudwaawOMINATIONAWANwas १२० ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । है; जैसे जल और वनस्पतिमें जीवका होना सायन्सने अब प्रगट किया है, परन्तु जैन सिद्धान्तमें उनसे पहिले ही जीवका होना बतला दिया था । आधुनिक विज्ञान जिस प्रकार सत्यांशको प्रगट कर रहा है उसके दूसरी प्रकार जैनधर्ममें पूर्ण सत्य सिद्धान्त विद्यमान हैं । इसके समान सरल वैज्ञानिक ढंगका वर्णन अन्य कहीं नहीं मिलता है। गृहस्थ लोगोंके लिए हम इसमें एक अतीत मूल्यवान आत्मोन्नतिका क्रम पाते हैं। हम पहिले ही देखते हैं कि वही यथार्थ गृहस्थश्रावक कहलानेका अधिकारी हो सकता है जो ऊपर बताए हुए पांच व्रतोंका पालन करता है और मधु, मांस, मदिराका त्यागी होता है। इस प्रकार उसका चारित्र निर्मल होता है और वह आधुनिक सभ्यताके लिहाजसे एक उत्कृष्ट शीलवान स्वावलम्बी नागरिक होता है इसलिये ही वर्तमान जैनियोंका चारित्र भी भारतमें सर्वोच्च शुद्ध है। जैन सभ्यता इसी हेतुसे परमोच्च है। गृहस्थोंकी आत्मोन्नति दिनोंदिन उदित होनेके लिये जैनधर्म में उनके लिये छह आवश्यक कार्य बतलाए गए हैं जो उनको नित्यप्रति करना चाहिये, अर्थात् देव-पूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान । संसारमें ऐसा कोई भी मनुप्य नहीं है जिसका कोई न कोई आराध्य देव न हो। और सर्वोत्तम पूज्यनीय परमहितैषी रागद्वेष रहित सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान ही हैं। उनका ही आराधन करना आवश्यक है। इस यज्ञ-पूजा विधानका वर्णन जैन शास्त्रों में विशेष रूपसे दिया है। ब्राह्मण वेदों में वर्णित हिंसावर्धक यज्ञ यथार्थमें नहीं है। आषवेदों में कहे हुए निम्न यज्ञ ही वास्तविक यज्ञ हैं। जैन शास्त्रों में सबसे पहिले नित्यमह यज्ञ कहा गया है। इसमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद। [१२१ प्रतिदिन उपासक अपने घरसे गंध, पुष्प, अक्षत आदि पूजा सामग्री ले जाकर जिनदेवकी पूजा करता है, अथवा जिनमंदिर आदि बनवाता है। जिनमंदिर तथा पाठशाला आदिमें पूजा स्वाध्याय तथा अध्ययन आदिके लिये भक्तिपूर्वक राजनीतिके अनुसार सनद आदि लिखकर देता है। दूसरा आष्टाह्निक और ऐंद्रध्वज कहा गया है। नंदीश्वरपर्वके दिनोंमें अर्थात् प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन महीनेमें शुक्ल पक्षकी अष्टमीसे पौर्णिमा तक अन्तके आठ दिनोंमें जो अनेक भव्यजन मिलकर अरहन्तदेवकी पूजा करते हैं उसे आष्टाहिक यज्ञ कहते हैं तथा जो इन्द्र प्रतीन्द्र और सामानिक आदि देवों के द्वारा एक विशेष जिन पूजा की जाती है उसे ऐंद्रध्वजमह कहते हैं । ___अनेक शूरवीर आदि लोगोंने जिनपर मुकुट बांधा हो उन्हें मुकुटबद्ध राजा कहते हैं। ऐसे मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा भक्तिपूर्वक जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख, सर्वतोभद्र अथवा महामह कहते हैं । यह यज्ञ प्राणिमात्रका कल्याण करनेवाला है इसलिये इसका नाम सर्वतोभद्र है। चतुर्मुख अर्थात् चार दरवाजेवाले मण्डपमें किया जाता है इसलिये चतुर्मुख कहलाता है। और अष्टाहिकाकी अपेक्षा बड़ा है इसलिये इसे महामह कहते हैं । इस प्रकार इसके तीनों ही नाम सार्थक हैं । मुकुटबद्ध राजा लोग भक्तिपूर्वक ही इसे करते हैं, चक्रवर्तीकी आज्ञा अथवा भयसे नहीं करते हैं। यह यज्ञ भी कल्पवृक्षके समान है। अन्तर केवल इतना है कि कल्पवृक्षमें संसारभरको इच्छानुसार दान आदि दिया जाता है। याचकोंकी इच्छानुसार संसारभरके लोगोंके मनोरथोंको पूर्ण कर चक्रवर्ती राजाओंके द्वारा जो अरहन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । 'देवकी पूजा की जाती है उसे कल्पवृक्ष मह कहते हैं । बलि अर्थात् नैवेद्य आदि भेट, स्नपन आदि विशेष पूजाएं सब नित्य महादिकोंमें ही अन्तर्भूत हैं । * इस प्रकार गृहस्थों के प्रथम कर्तव्य यज्ञ पूजाका विशेष वर्णन है, जिसका भाव शुभ भावोंको उपार्जन करना मात्र है जो स्वयं प्राप्त होते हैं । यह सर्व विधान किसी इच्छा-वाञ्झाके विना शुद्ध परिणामोंद्वारा केवल भक्ति भाववश किये जाते हैं । दूसरे कर्तव्यमें गुरुकी सेवा करनेका उद्देश्य है । संसारमें प्रत्येक मनुष्यके कोई न कोई गुरु अवश्य होते हैं परन्तु यथार्थमें निर्ग्रन्थ गुरु सर्वश्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे ही गुरु महाराज जीवको संसारसे उवारनेवाले मार्गमें लगाते हैं। इसलिये उन्हींकी उपासना करना योग्य है। स्वाध्याय पठन-पाठन अध्ययन मनन श्रवण करना तीसरा कर्तव्य है। प्रत्येक प्राणी कुछ न कुछ अवश्य पढ़ा करता है अथवा कोई न कोई पुस्तक या काव्य सुना करता है। इसलिए आत्मकल्याणके निमित्त हमको यथार्थ जिनोक्त शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए जिससे ज्ञान प्राप्त हो और कर्म कलंक नष्ट हों। चौथा कर्तव्य संयम एक तोप्राणिरक्षा रूपमें हैं और दूसरे इन्द्रिय वृत्ति निवृत्ति रूपमें है। संयम पालनका उद्देश्य लौकिक निःसार सुख नहीं है किन्तु आत्मकल्याण करनेसे है । पांचवां कर्तव्य तप है जो इष्ट प्रयोजनका लक्ष्य न रखकर कषायोंके घटानेके लिए और आत्म-कैवल्य प्राप्त करनेके लिए आवश्यक है। सामायिक आदि करना ही गृहस्थोंके लिए तप है। अन्तिम कर्तव्य दान है। जिस पुरुषके पास जो कुछ भी संपदा * देखो सागारधर्मामृत पूर्वार्द्ध ९७-९९। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद। [१२३ .बल, ऐश्वर्य है वह अन्तमें छोड़ना पड़ता है इसलिए उचित है कि उनको अनुचित रीत्या नष्ट न करके आहार, औषध, अभय और विद्या दानमें खर्च किया जाय, जिससे कि यशोलाभके साथ साथ आत्मउन्नति हो । इस प्रकार गृहस्थों के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन है जिससे वास्तविक रूपमें भाव यही है कि कषायोंको कम करते हुए आत्मा उन्नतिपथपर जावे। ___ इस प्रकार जैनधर्म एक स्वतंत्र वैज्ञानिक सैद्धांतिक धर्म है। इसके तत्व और सभ्यता पूर्णरूपमें बास्तविक हैं। इसके विषयमें यह कहना कि यह धर्म केवल साधुके लिये है, बिलकुल मिथ्या प्रगट होता है। जबसे जैनधर्म है तबहीसे उसके अनुयायी साधारण गृहस्थ श्रावक और श्राविका एवं साधुजन मुनि और आर्यिका एवं उदासीन गृहत्यागी रहे हैं और उनके चारित्र सम्बंधी नियम भी पृथक् २ हैं जैसे हम पहिले देख आये हैं। एक मजदूर और सिपाहीसे लेकर राजा महाराजा तक इस धर्मके माननेवाले हुए हैं। अपनी शक्तिके अनुसार व्रत पालनकी शिक्षा जैनधर्म देता है । इसलिये उसके चारित्र विधान देखकर घबड़ानेकी कोई जरूरत नहीं है। जैनधर्मके विषयमें यह कहना कि वह एक मिशनरी' धर्म नहीं है अर्थात् उसका प्रचार दिग्दिगान्तरोंमें नहीं किया जा सकता है, उसके सिद्धान्तोंके प्रति अनभिज्ञताको प्रगट करना है। जैन शास्त्रों में जैन साधुओंके लिए केवल वर्षाऋतु में चार महीने एक जगह रहनेका विधान है अन्यथा उनको सदैव विहार करते रहने और यथार्थ धर्मोपदेश देनेका उल्लेख है। पाठक ! आगे चलकर देखेंगे कि इसी कारण जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] संक्षिप्त जैन इतिहांस प्रथम भाग | धर्मने समय समयपर स्वेडेन- नार्वे जैसे दूरस्थ देशोंतक अपना प्रकाश फैलाया था । \\\\\\\\\\\\\\\\\\\ इस प्रकार जैनधर्मकी शिक्षा बहुत ही गहन और गंभीर और उच्चकोटिकी है। उसमें आत्मा सम्बन्धी संपूर्ण प्रश्नोंको अतीव दार्शनिक रीतिमें वैज्ञानिक ढंगपर प्रतिपादन किया गया है। इसलिये संसार में वह अद्वितीय वैज्ञानिक ढंगका निराला मत है 1 आर्वेदिक मत जैनधर्म जब कि अपने ढंगका एक उत्कृष्ट मत है तब उसकी सभ्यता भी एक अतीव उच्चकोटिकी होगी। जैनधर्मके इस युगकालीन आदि प्रचारक श्री ऋषभदेवने ही इसलिये भारतीय आर्य सभ्यताकी जड़ जमाई थी। और उसका चित्र अधिकतर जैन साहित्य में ही मिल सकता है, क्योंकि उस अज्ञात समयकी कोई भी - सामग्री अब प्राप्त होना असंभव है । परन्तु उसी सभ्यता से संस्कारित हो जो पश्चात् में भगवान महावीर के समय के वा उनके पश्चात् के जो जैन स्तूप - भवन - मंदिर आदि मिलते हैं, उनसे उसकी उत्कृष्टताका भान हो जाता है। आय्यके आर्ष वैदिक मत जैनधर्मका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अब उनके सामाजिक राजनैतिक जीवनका चित्र इस प्रकारका होगा - कर्मभूमिके प्रारम्भमें जो आर्य्य बसते थे उन्हें अपने सांसारिक जीवनोपयोगी कर्तव्यों का भान नहीं था, क्योंकि उससे पहिले भोगभूमि मौजूद थी, जिसमें पुण्य प्रभाव कर सर्व भोगोपभोगकी सामग्री स्वतः ही एक प्रकार के उदार वृक्षोंसे मिल जाती थी। इसलिए भगवान ऋषभनाथने उनको असि, मसि कृषि, आदि दैनिक कृत्य बतलाए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद । [ १२५. थे। इससे प्रकट होता है कि उस समय कृषि आदि कर्म मनुष्योंको मालूम थे । उनके पास कृषिशास्त्र, वास्तु-विद्या, शस्त्र निर्माण -विद्या आदिका पूर्ण परिज्ञान था और उसी समय ग्राम, खेट, पुर आदि भी बनाए गए थे। इससे यह भी विदित होता है कि वह लोग इधर उधर उठाऊ चूल्होंकी तरह मारे २ नहीं फिरते थे, बल्कि सुन्दर गृहादि बनाकर रहते थे और राज्यकी व्यवस्था करते थे। गेहूं, चावल आदिकी खेती करते थे, परन्तु कर्मभूमिके प्रारम्भ में चावलकी खेती स्वतः उग आई थी, उसीपर लोग बसर करते थे । पश्चात् भगवान ऋषभदेवके बतलानेपर वह सर्व प्रकारकी खेती करने लगे थे। भोगभूमि के अंत में पहिले लोग वनोपवनसे प्राप्त फलादिक पर निर्वाह करते थे, फिर भगवान ऋषभदेवके कृषि आदि कर्म बताने पर उन्होंने रोटी आदि बनाकर खाना प्रारम्भ किया था और वे पशुओं को भी पालने लगे थे। उस समयका एक प्रधान धन पशु ही थे, क्योंकि जहां पर भगवान ऋषभके पुत्र सम्राट् भरतकी राज्यसम्पदाका वर्णन है उसमें " एक करोड़ हल, तीन करोड़ कामधेनु गायें, अठारह हजार घोडे, चौरासी लाख हाथी ་་ * भी बताए हैं । इससे प्रकट है कि उस प्राचीन समयसे ही भारतमें पशुओंकी कदर चली आ रही है | भगवानने उस समय प्रजाको भक्ष्य अभक्ष्य पदाथका भी ज्ञान करा दिया था, इसलिए उस समय आर्यलोग शाकाझरी थे । शिल्पकी सब बातें भी उनको बतला दी गई थीं, जिससे वह कपड़ा बुनना, धातुको काममें लाना आदि बातें भी जानते थे । *हरि० पु० सर्ग ११ श्लोक १२८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ । संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । उनके शस्त्रोंमें धनुषवाणकी मुख्यता है, पर तलवार, गदा, मुम्दर, बर्जा आदि भी उस समय प्रचलित थे । उनका रणका मुख्य वाहन रथ ही था। वे मल्लयुद्ध और मुक्कोंके युद्ध (Boxing) से भी परिचित थे । प्रायः इन अहिंसक युद्धों द्वारा ही जय पराजयका निर्णय किया जाता था। उस समयका जातिभेद भी अक्से बिल्कुल विभिन्न था। प्रारम्भमें केवल तीन वर्ण ही थे और उनमें परम्पर वर्णान्तर्गत विवाह सम्बन्ध होता था !x स्वयंवरकी रीति भी प्रारम्भ हो गई थी और बहु विवाह भी प्रचलित था। पश्चात् संसारसे उदासीन आत्म-मुमुक्ष मनुष्योंका एक अन्य वर्ण ब्राह्मण नामसे स्थापित हुआ था, परन्तु जातिका नेतृत्व क्षत्री वर्ण ही करता था। उस समयके मनुष्य बड़े, 'धर्मनिष्ठ होते थे। अपने षडावश्यक कर्म नित्यप्रनि किया करते थे । गोत्रके बड़े लोग ही मुखिया होते थे। और वही अपनी गोत्रज संतानको धर्मकर्म - कुशल बनाते थे। जैसे कि भगवान ऋषभनाथने अपनी पुत्री व पुत्रोंको म्वयं लौकिक एवं पारलौकिक विद्यामें पारंगत किया था। जाति पांतिका यह उदार क्रम भगवान महावीरके कुछ पश्चात् तक ऐसा ही रहा, परन्तु उपातिमें वह जटिल होता गया। उस समय के धर्मालु आयोंको शारीरिक पशुबलपर घमण्ड नहीं था। वे अपने आत्मबलपर ही विश्वास रखते थे और अपने स्त्रओंको माते और अपमानित नहीं करते थे बल्कि उनको प्राणदान देकर अपना हितेषी बना लेते थे। उस समय अभव्य-अनार्य भी अवश्य थे और वह धर्नन्त xदेखा विवाहक्षेत्र प्रकाश । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद । [१२७ नहीं थे। अपने मनोनुकूल व्यवहार आचरण करते थे। भ० ऋषभने ही उस समयसे लिपि कलाका प्रचार किया था ।* उनने अपनी सार्वज्ञावस्थामें जो शास्त्र बताए थे वह अपने आध्यात्मिक आदि विषयों में अपूर्व थे उस समय स्त्रियोंको बड़ी उच्च दृष्टिसे देखा जाता था; अर्थात् स्त्री ही वर पसंद करती थी। और चह अपने श्वसुर गृह जाकर अलग महलमें रहती थी, क्योंकि विविध रानियोंके अला! २ रणवास होनेका उल्लेख मिलता है। जैन नीति गृह विभागकी शिक्षा इसलिये देती है कि गोत्रका प्रत्येक पुरुष उद्योगी और धर्मकर्मका पालक बनेगा, प्रथक् गृहमें स्त्री भी अपनी स्वाधीनता और कर्तव्यका अनुभव ठीककर सकेगी। परदेका रिवाज उस समय नहीं था। राजसभामें राजा महाराजा उनको अर्ध आसन दिया करते थे। उस समय संगीत शास्त्र और वीणावादनका विशेष प्रचार था। उस समयकी राज्य नैतिक पद्धति भी बड़ी उदार थी और प्रजाको यहांतक अधिकार प्राप्त था कि वह अन्यायी राजाको राज्यपदसे अलग कर देते थे। इस तरह एक प्रकारकी प्रजातंत्रक राज्य प्रणाली थी, परन्तु राजा अवश्य होते थे और शूरवीर आदि लोगोंसे उनके मुकुट बांधे जानेके कारण वे मुकुटबद्ध गजा कहलाते थे और सनस्त पृथ्वीको वश करनेवाले चक्रवर्ती कालात थे। इन लोगों की युद्ध नीति भी उत्कृष्ट थी । शरण आए हुए अथवा निहत्थं व घायल शत्रुपर वह प्रहार नहीं करते थे, बहिक जहां संभव होता था, जहां स्वयं दोनों ओरके सम्राट् आपसमें अहिंसक युद्ध कर लेने थे और ____ * देखो हि० वि० को भाग १ पृषु ६४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। जो जिसको परास्त कर देता था वह अपने विजयी विपक्षीकी शरण आ जाता था। इस तरहसे दोनों ओरके लाखों योद्धाओंके प्राण बच जाते थे। ____ भगवान ऋषभदेवनं ग्राम, पुर आदि बसाकर उनमें बसनेवाले नागरिकोंको उन्होंने उनकी आवश्यकताके अनुसार भूमि बांट दी थी और प्रत्येक अपनी उसी भृमिसे कृषि आदि कर गुजारा करते थे। उसे वेचते नहीं थे; क्योंकि राजाकी ओरसे ही प्रत्येक नागरिकके लिये भूमिकी सीमा नियत थी। कृषकका बड़ा सम्मान था। उसे कोई सताता नहीं था और न उसकी खेती बरबाद की जाती थी, यद्यपि युद्ध उसके खेतके पास ही कदाचित् क्यों न होता हो? कृषि विषयक अन्वेषण भी राजा लोग कराते थे और कृषकोंको बताते थे । ग्रामके अन्य नागरिक व्यवसाय आदि किया करते थे और संभवतः जिस कुटुंबका वह सदस्य होता था, उसके द्वारा उसे उस व्यवसायके उपलक्षमें कृषिके उपार्जनमेंसे कुछ दिया जाता था । भगवानने जिस अपूर्व श्रुतको बताया था, वह अर्धमागधी भाषामें " सूत्ररूप" था । उस समयके व्याकरण, गद्य पथके शास्त्र विशिष्ट थे। बहुधा लोग अपनी उत्कृष्ट स्मरणशक्तिसे उन्हें कण्ठस्थ रखते थे और इस प्रकार उनको लिपिबद्ध करनेकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। लेखन कलाका व्यवहार वह लोग अपने जीवनके साधारण कृत्य, व्यापार आदिके लिए करते थे। उपर्युक्त वर्णनकी पुष्टि जैन शास्त्रों के वर्णनोंसे होती है, जिनका कथन भारतीय इतिहासके लिए एक आवश्यक सामग्री है । तिसपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद। [१२९ भी आजकल के विद्वान जिस ऋग्वैदिक समयकी सभ्यताका वर्णन करते हैं; उससे पूर्व भगवान ऋषभदेव हुए थे, इसलिए इस युगकालीन प्रारम्भिक जैन सभ्यताके उक्त दिग्दर्शनमें कुछ भी अन्योक्ति नहीं भसती; क्योंकि ऐसी ही वास्तविक विस्तृत सभ्यतासे ही अगाड़ी चलकर वैदिक सभ्यता अपना प्रथक् रूप धारण कर सकती थी।* उसपर यह मानी हुई बात है कि जो जाति सभ्यतामें चढ़ी बढ़ी होगी, वह साहित्य संसारमें भी अग्रसर होगी। हम आज भी जैन धर्मके अगाध साहित्यसे परिचित हैं। प्राकृत भाषामें मुख्यता जैन साहित्यकी है। संस्कृतमें भी अपरिमित उत्कृष्ट ग्रन्थ जैनियों के ही हैं। उसके मुख्य वैय्याकरणों में सर्व अग्रेसर एवं सर्व अधिक जैन ही हैं । तामिल और कनड़ी साहित्य भी जैन कवियोंकी सुललित मूल्यवान वाणीका ही फल है । साहित्य संसारमें उत्कृष्टता पाना तब ही संभव है, जब मनुष्य यथार्थ सम्यताकी उत्कृष्टताको पहुंच चुका हो । जैन सभ्यतामें सब बातें सुनियमित थीं, इसीसे उसमें आर्थिक चिन्ताकी विशेष आकुलत मनुष्यको नहीं सताती थी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वाधीनताका ध्यान जैन सम्यतामें एक गोचरणीय विषय है, इसी लिए उसमें प्रत्येक वर्णके लिए अपनी स्थिति के अनुसार धर्माचरण करनेका द्वार खुला हुआ है। उसकी सम्यताकी पराकाष्ठा इससे भी विदित है कि उस समयके मनुष्योंने _____ *मोहनजोदडो व हरप्पाके पुरातत्वसे वैदिक सभ्यतासे निराली प्राचीन द्राविड सभ्यताका अस्तित्व प्रमाणित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । कितनी उन्नति उसमें प्राप्त कर ली थी। जो स्त्रियां भी अपने संसा. रमें फंसी हुई बहिनों को धर्मका मार्ग बतलाती थीं, उनकी सम्भाल रखती थीं । त्रियोंको दायभागमें भी हिस्सा मिला करता था ।* उस समयके आर्योके यथार्थ महाकाव्य म्यारहवें कल्याणवाद पूर्वमें कथित थे और वे उन लोगोंको कंठस्थ याद थे। यह काव्य महाभारत और रामायणसे कहीं विस्तृत और महत्वपूर्ण थे। ज्यों ज्यों समय बढ़ता गया, त्यों त्यों मतमतान्तरोंके बढ़नेसे प्राकृत आर्ष, आर्य सभ्यता (जैन सभ्यता )में भी अन्तर पड़ता गया। परन्तु विश्वस्ततया वह भगवान शीतलनाथके समय तक अपने वास्तविक रूपमें मौजूद थी। पश्चात् राज्यनैतिक सामाजिक आदि व्यवस्थाओं में रूपान्तर होने लगे और भगवान महावीरके समयमें आकर वह विशेष मिश्रित होगई, क्योंकि समयानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका प्रभाव इस दरमियानमें उसपर अवश्य पड़ा था। इसी जैन सभ्यताके चमकते हुए रत्न श्री तीर्थकर भगवानके अतिरिक्त नाभि, श्रेयांम, बाहुबली, भरत, रामचन्द्र, हनूमान, गवण, कृष्ण, भीम, महादेव आदि नररत्न और ब्राह्मी, चंदनबाला, राजुलदेवी, कौशल्या, मृगावती, सीता, सुभद्रा, द्रौपदी, सुलसा, कुंती, शीलवती. दमयंती, प्रभावती, शिवा आदि महिलामणि थे। यदि इस कालके इन महत् रत्नोंको यहां प्रकाशित किया जाय, तो मेरे विचारसे इस * जैन, सभ्यताके विषयमें विशेष जाननेके लिये “ जैन कलचर" (JAIN CULTURE ) नामक पुस्तकमें देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम परिच्छेद । Al [ १३१ पुस्तक में इनका समावेश न हो सके और न वह सब प्रकाशित ही किये जा सकें। इनका उन्नत प्रकाश विविध आचार्योंने अपने महत्वशाली ग्रन्थोंमें किया है वहांसे जानना चाहिये । जैनधर्म और जैन सभ्यताका दिग्दर्शन करके इस सभ्यता के समय के साधुओं पर एक नज़र डालते चलिये। भगवान ऋभने संसार से विरक्त नरनारियोंके लिए एक सधुसंघकी व्यवस्था की थी, उसमें चार कक्षाएं रक्खी थीं, अर्थात् मुनि संघ, आर्यिका संघ, श्रावक संघ और श्राविका संघ । मुनि संघमें नग्न दिगम्बर भेषधारी * निस्परिग्रह साधुजन एक एक आचार्यकी देखभाल में रह आत्मकल्याण किया करते थे । आर्यिका संघ में वह साध्वी स्त्रियां रहती थीं जो संसारसे उदासीन हो संसारसे कतई नाता तोड़ आई थीं। यह दुर्द्धर तपश्चरण आदि तपा करती थीं। यह श्वेत धोती धारण करती थीं, क्योंकि स्त्रीके लिए लज्जा का निवारण करना एक दुष्कर बात है । इसलिए वह स्त्रीभवके अतिरिक्त मोक्ष भी क्रमशः पा सकती थीं। तीसरे श्रावक संघ में वह * साधुका यथार्थ प्राकृत मंत्र परमहंस नग्नावस्था ही है, क्योंकि स्वभावसे ही जीव जन्मते और मरते समय नग्न होता है । षभूषा कृत्रिम रूप है, इसलिए अपने स्वभावको पानेके इच्छुक मनुष्यको स्वाभाविक भेष में रहना लाजमी है। इस आधुनिक जमानेमें भी लोग इस बातका अनुभव करते हैं और वे नग्न रहते हैं जैसे जर्मनीका एक सभ्य सम्प्रदाय । औरंगजेब पादशाहके जमाने में एक मादरजात नंगे मुसलमान फकीरने बादशाहकी खिलअतको यह कहकर वापिस कर दिया था कि " जिसने तुमको बादशाही ताज दिया, उसीने हमको परेशानीका सामान दिया। जिस किसी में कोई ऐत्र पाया, उसको लिवास पहिनाया और जिनमें ऐब नहीं पाया उन्हें बरहना रहना बतलाया । " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग। श्वेतपटधारी उदासीन श्रावक रहते थे जो ११ प्रतिमाओंका अभ्यास किया करते थे। और इसी प्रकार श्राविका संघमें व्रती श्राविका रहती थीं। सामान्य जैनी गृहस्थ इनसे भिन्न थे। उनकी गणना तीर्थकरों के इस साधु संघमें अलग थी। यह पूर्णरूपमें धर्म पालनका अभ्यास करते थे। आजकलके अथवा वैदिक कालके वानप्रस्थादिकी तरह यह लोग नहीं थे। इनकी उत्कृष्टता विशेष अनुकरणीय थी। इसप्रकार संक्षिप्त रूपमें भावान पार्श्वनाथके समय तकके जैन इतिहासका हम पाठ कर लेते हैं और इसके साथ हमारा प्रथम भाग समाप्त होता है। इस ही भागके इतिहासको यदि पूर्ण विशुद्धरूपसे लिखा जाय तो मेरे खयालसे वह इस पुस्तकसे चौगुनी होजावे। ऐसा विशद इतिहास भी यथासमय पाठकोंके हाथोंतक पहुंचेगा। आशा है इस प्रथम भागसे पाठक समुचित ज्ञान प्राप्त करेंगे। इति शम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थशा alcohlo なたと wwwwwwwwww बा० कामताप्रसाद जैन ग्रन्थ भावान महावीर भगवान पार्श्वनाथ सत्य मार्ग भगवान महावीर 6 हुद संक्षिप्त जैन इतिहास प्र० भाग 10) " , 2-2 ) 1) महारानी खेलनी पतितोद्धारक जैनधर्म बीर पाठारालि पंच CIJIS जैनधर्म सिद्धान्त विशाल जैन संघ जन जातिका हास दिगम्बरस्व-दि० जैन मुनि दिगम्बरजैनपुस्तकाल-सूरत। mammnamammarAmAAAAA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com