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________________ तृतीय परिच्छेद । [७७ द्रव्यों द्वारा अग्निकुमार जातिके देवोंके मुकुटकी अग्निसे दाह किया। भगवानके शरीरका जहां दाह किया था उसकी दाहिनी ओर गणधरादि साधुओंके शरीरका दाह किया और बांईओर केवलज्ञानियोंके शरीरका दाह किया और उत्सव मनाया। इन तीन प्रकारके महापुरुषों के दाहसे तीन पकारकी अग्निकी स्थापना करनेका देवोंने श्रावकोंको उपदेश दिया और प्रतिदिन पांचवीं प्रतिमा तकके धारक श्रावकोंको अग्निमें होमादि करनेकी * आज्ञा दी। भगवान ऋषभदेवके सबसे बड़े पुत्र भरत थे। ये चक्रवर्ती थे। इनका जन्म चैत्र कृष्ण नवमीके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें हुआ था । भरत पहिले चक्रवर्ती और छहों खंडके स्वामी थे, इसलिये इन्हींके नामपर आर्य लोगोंका रहनका भी स्थान भारतवर्ष कहलाया ।x चक्रवर्ती भरत सर्व जीवित प्राणियों में विशेष बलवान थे। भरतने स्वयं ऋषभदेवसे शिक्षा प्राप्त की थी और वे मुख्यता नीतिशास्त्रके प्रखर विद्वान थे। भगवानने जब तप धारण किया था तब इनको ही सम्राट बनाया था। महाराज भरतने दिग्विजय करना प्रारम्भ किया था। उन्होंने सर्व देशोंपर अपना आधिपत्य जमा लिया था । उनने पूर्वमें अंग, बंग, कलिंग, आदि; उत्तरमें काश्मीर आदिको; पश्चिममें कच्छ आदिको और दक्षिणमें सिंहलद्वीपको विजय किया था। दिग्वि * जैन इतिहास भाग १ पृ. ५२ । x हिन्दुओंके बराहपुराणमें भी ऐसा ही लिखा है । यथाः-तस्य भरतस्य पिता ऋषभः हेमाद्रेद्दक्षिण वर्ष महद्भारतं नाम शशास। उनके अग्निपुराणमें भी ऐसा ही लिखा हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035242
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1943
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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