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३४.] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । गया और रक्खा जावेगा। यह हर्षका विषय है कि इसकी द्वितीयावृत्ति भी प्रकाशित की जा रही है।
पहिला परिच्छेद। जैन भूगोलमें भारतवर्षका स्थान ।
भारतभूमिके विषयमें जाननेके लिये हमें सामान्यतया जैन भूगोलका दिग्दर्शन करना पड़ेगा। जैन दार्शनिकोंने आप्त वचनानुसार जीवित एवं अन्य पदार्थोसे व्यात आकाशको लोकाकाश कहा है और इससे बाह्यको अलोकाकाश संज्ञा दी है । लोकाकाशके स्वरूपके विषयमें कहा है कि उसका आकार वैसा ही है जैसा पांव पसार कर दोनों हाथोंको चौड़ाकर कमर पर रख लेनेसे विना सिरके मनुष्यका आकार होता है। इस लोकके बीचमें मध्यलोक है जिसे मर्त्यलोक भी कहते हैं। इसके ठीक बीचमें एक लाख योजन अर्थात् चालीस करोड़ माइलका लंबा और इतना ही चौड़ा जम्बूद्वीप है। इस जम्बूद्वीपके बीचमें एक मेरु पर्वत है। इस पर्वतकी दक्षिण दिशाकी ओर भग्तक्षेत्र है यह अर्धचंद्राकार है। इस अर्धचंद्राकार भरतक्षेत्रके बीचमें एक पर्वत है जिसका नाम विजयार्द्ध है। इस पर्वतसे भरतक्षेत्र दो भागोंमें बट गया है। इसी भस्तक्षेत्रसे हमारा संबंध है । इसका आकार कुछ२. इस प्रकार है:
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