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संक्षिप्त जैन इतिहास: प्रथम माग ।
: साहब की सम्मति पहिले उद्धृत कर चुके हैं, जिससे प्रकट है कि द्राविड़ जातिकं साथ २ उस समय एक विशेष सभ्य समाज भी विद्यमान थी। इस प्रकार जैनधर्मके उक्त कथनकी पुष्टि होती है। और यह भी विचारणीय बात है कि द्राविड भाषाका जो साहित्य उपलब्ध है, वह आदिरूपमें जैनधर्मका है। अर्थात् जैनियों द्वारा ही द्राविड़ साहित्यकी जड़ जमाई गई थी। इसलिए समग्र द्राविड़ जातिको असभ्य कहना युक्तियुक्त भाषित नहीं होता । सर संमुखम चेट्टीका मत है कि द्राविड़ोंका आदि धर्म जैनधर्म ही था ।
क्या भारतमें अनार्य और असभ्य वसते थे ? आधुनिक विद्वानों द्वारा जो यह कहा गया है कि पहिले भारत में अनार्य और असभ्य लोग वसते थे. वह संभवतः इस प्रकार होगा | जैन धर्ममें कहा गया है कि बावीसवें तीर्थङ्कर भगवान नेमि - नाथके मोक्ष जानेके पश्चात् भगवान पार्श्वनाथके जन्म होने तक धर्मका मार्ग यद्यपि बिलकुल बन्द तो नहीं हुआ परन्तु उस समयकी प्रजा धर्ममार्ग से इतनी रहित होगई थी कि चारित्रहीनता के कारण ar किन्हीं अंशमं असभ्य कही जासकती है। अतएव जिस समय के अनुमान हमारे इतिहासकार करते हैं वह समय यही होगा । धर्ममार्ग से रहित होनेके कारण उस समयके मनुष्योंको इतिहासकारोंने अनार्य समझा होगा, परन्तु यह तो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता है कि जिन लोगोंको ये भारतके आदि निवासी और अनार्य मानते हैं उनसे पहिले भारतमें आर्यत्व था ही नहीं । इसलिये जैन धर्म इस बातके माननेके लिये तैयार नहीं है कि भारतवर्षकी कार्य
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