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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग |
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सर्वे संशयत मितिस्यादवादिनः स्तभंगी नयज्ञाः " (श्लोक २ अ०.४९) और यह प्रगट ही है कि सप्तभंगी जैनधर्मका मुख्य सिद्धांत है । इस हेतु स्याद्रादियोंसे भाव जैनियोंसे है जैसे कि मि० बार्थ अपनी पुस्तक Religions of India P. 148 पर और अमरकोष एक क्षेपक लोकद्वारा स्वीकार करते हैं ।
महाभारतके आदि पर्व अ० ३ श्लोक २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्नक्षपणक' के रूपमें है। अद्वैत ब्रह्मसिद्धि नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्ता क्षपणक के अर्थ जैन मुनि करते हैं। यथा “क्षपणका नैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इति केचित् (पृष्ठ १६९ Cal: ed: )। फिर महाभारत के शांतिपर्व मोक्षधर्म अ० २३९ श्लोक ६ में सप्तभंगी नया उल्लेख आया है। साथ ही शांतिपर्व मोक्षधर्म अध्याय २६३ पर नीलकण्ठ टीका में ऋषभदेव के पवित्र चरणके प्रभावका उल्लेख व आर्हन्तो वा जैनोंपर पड़ा बतलाते हैं। ऋषभदेवका उल्लेख वाचस्पत्यमें
'जिनदेव " के नामसे और शब्दार्थ - चिन्तामणि में आदि जिनदेवके रूपमें है । इस सबसे प्रगट है कि महाभारतके समय में भी जैनधर्मका अस्तित्व था ।
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1 महाभारतसे पहिले रामायण कालमें भी जैनधमकी विद्यमानता प्रमाणित होती है। योगवशिष्टके वैराग्य प्रकरण में रामचंद्रजी कहते हैंनाहं रामो न मे वांछा, भावेषु न च मे मनः । शांत आसितुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ " - अध्याय १५ श्लोक ८ ।
रामायणमें बालकाण्ड ( सर्ग १४ श्लोक २२ ) के मध्य राजा दशरथका श्रमणको आहार देनेका उल्लेख है । अर्थात्
" तापसा
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