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संक्षिप्त जैन इतिहास: प्रथम भाग।
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. उस समयके निर्मापित यज्ञ विषयक अन्योंमें उक्त प्रकारका वर्णन भी कर दिया गया था और यज्ञमें मनुष्योंको ऐसा विश्वास होगया कि कितने ही अपनी बलि स्वर्गप्राप्तिकी इच्छासे देनेको तत्पर होगये । अन्तमें सुलसा और सागरने भी अपनेको यज्ञमें बलिरूपमें भस्म कर दिया । इसप्रकार देव महाकालकी इच्छा पूर्ण हुई
और वह अपने स्थान पाताललोकको चला गया। इसके साथ ही यज्ञ विषयक झूठे दृश्य और रोगादि भी विदा होगए। इसी कारणवश उस समय यज्ञके दृश्यमें कुछ फेरफार नहीं दीख पड़ा।
: कुछ काल पश्चात् यज्ञाचार्योंके अर्थ विशेष रीतियां पूर्णरूपमें रची गई। अनुमानतः उसी ऋग्वेदकालके समय कुछ मंत्रोंका भी परिवर्तन परवतकी कार्यसिद्धिके अर्थ कर दिया गया था और सागरके देशसे वह नूतन मत सर्वत्र प्रचलित होगया । महाकालके चले जाने के उपरान्त भी यज्ञाचार्योंके योगबलक प्रभावसे कितने ही मनुष्य परवतके मतमें मिलते रहे थे।
वदोंमें गुप्तभाषाका व्यवहार क्यों किया गया ?
वेदोंके* विषयमें उक्त विवरणको पढ़ते हुए यह शङ्का उपस्थित होजाती है कि वेदके प्रणेता ऋषियोंने उनको अलंकारिक रूपमें क्यों लिखा जो प्रमोत्पादक है ? इस परदेकी ओटमें होकर अथवा कथानक रूपमें आत्मज्ञान प्रचार करनेसे यही भाव प्रगट होता है कि उसके प्रतिपादक उसको वैज्ञानिक ढङ्गसे प्रतिपादित करनेमें असमर्थ थे। इसलिए यह भी अवश्यम्भावी है कि उन ऋषियोंने यह ज्ञान किसी
* अनिकी मान्यता किन वेदों में है ?इसका उत्तर अगाड़ी मिलेगा।
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