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प्रस्तावना
यह बात ध्यानमें रखना चाहिए कि वाणी चाहे कुछ और कैसी भी क्यों न हो, एक पौगलिक क्रिया है और उसकी उत्पत्ति मानसिक वृत्तियों द्वारा पौद्गलिक अणुओंसे होती है। तब वह शब्द पौगलिक अणुओंसे वेष्टित आकाशमें होकर श्रोताके कर्णगोचर होता है। मनो. वृत्ति. जिससे उसकी उत्पत्ति है अणुओंसे परिपूर्ण है। और उसके विना उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती ! अतएव जब पुद्गलके अंश नही रहेंगे तब वाणीकी उत्पत्तिका होना असम्भव है। और इससे यह भी प्रमाणित हो गया कि परमात्मावस्थामें जीव मनुष्यों द्वारा बातचीत नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त जब कर्मोंसे पूर्ण छुटकारा पाना 'अर्थात् नुक्ति पाना आत्माको म्वतः ही ध्यान करनेसे मिलता है तब कोई भी आत्मा, परमात्मावस्थामें दूसरोंसे बातचीत करनेकी इच्छुक नहीं होगी। अतः यह पूर्णतया सिद्ध होगया कि शुद्धावस्थाकी आत्मा अश्वा परमात्ना द्वारा वाणी मनुष्यों तक नहीं पहुंचाई जा सकती। इसलिए वेद ईश्वरकृत नहीं है। सुतरां वे विविध ऋषि कवियोंकी रचनाएं हैं। इन ऋषियोंने उनसे उनके मंत्रोंको कवितामें प्रकट करके अपनी आमाको उसके गुण गाकर मोहित कर लेना ही, माशय रक्ला था। वेद मंत्रोंमें प्राकृतिक शक्तियों सूर्य. अनि ' आदिकी उपासना नहीं है, बल्कि आत्माके विविध गुणों का वर्णन है। वैदिक कालकी उच्च सभ्यताका ध्यान रखते हुए यह कभी भी
वीकार नहीं किया जा सकता कि वेदोंके रचयिता ऋषिगण इतने • * इस विषयका पूर्ण विवरण स्व० वेरिस्टर चम्पतगय जनकी
Practical Path नामक पुस्तकमें देखना चाहिए; जिसके अनुसार . यहाँ पर रचा की जा रही है।
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