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________________ तृतीय परिच्छेद । 1111 [ ६९ गुरु थे और उन्होंने सकल धर्मके मूल गुह्य ब्राह्म धर्म (आत्मधर्म) का ब्राह्मण दर्शित मार्गके अनुसार उपदेश दिया था (५-६ - अ०) ब्रह्मावर्तमें ब्रह्मर्षियों की सभा के बीच उन्होंने + ब्राह्मधर्मका प्रचार किया (५-४-१६-१९) राजर्षि भरत उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र थे । उन्हीं के नामपर इस देशका नाम भारतवर्ष रखा गया है । वह ब्रह्माक्षरका प करते थे (५–८–११) । * इस वर्णन से प्रकट है कि ऋषभदेवने ही प्रथम रूपमें लौकिक और धार्मिक विद्याओंकी सृष्टि की थी, जिसका महत्व और उत्तमता उक्त वर्णन से प्रगट है । "कदाचित् भगवान सभामंडप में सिंहासनपर विराजमान थे, इन्द्रकी नृत्यकारिणी नीलांजसा उनके सामने नाच रही थी । नानते नाचते ही वह तत्काल विला गई और उसे विलीयमान देख भगवानको वैराम्य हो गया । " x भगवानको वैराग्य हुआ जानकर लौकांतिक देवोंन आकर भगवानकी स्तुति की और भगवानके वैराग्य चितवनकी सराहना की । तत्क्षण ही उन्होंने युवराज भरतका राज्याभिषेक कर दिया और युवराज पद कुमार बाहुबलिको प्रदान कर दिया । इतने में ही इन्द्रोंने स्वर्ग से आकर भगवानका अभिषेक किया और खूब उत्सव मनाया। तब 'भगवान अपने माता पिता आदि परिवार से पूछकर तपके लिये वनकी ओर चल दिये। वे बत्तीस पैडतक तो पैदल ही चले पश्चात् लोगोंके + ब्राह्म धर्मसे भाव आत्म धर्म है अर्थात् आत्माके ज्ञानको बतलानेवाली विद्या । ब्राह्मण दर्शित से भी आत्मज्ञानसे प्रदर्शित ज्ञान समझना चाहिए । * विश्वकोष भाग १ पृष्ठ ६४ | ★ श्री हरिवंशपुराण सर्ग ९ श्लोक ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035242
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1943
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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